जब क़मर की रौशनी से जगमगाई आशिक़ी
———-ग़ज़ल——–
2122–2122–2122–212
1-
हो गई क्यूँ रू-ब-रू मेरे पराई आशिक़ी
क़ल्ब लेकर हाय फिर भी तिलमिलाई आशिक़ी
2-
पीर अंतस में जगाकर वो बने अंजान जब
बन गई फिर आज मेरी जग हँसाई आशिक़ी
3-
देखकर दीवाने भौंरे को कली ने यूँ कहा
प्यार से पहलू में तेरे खिलखिलाई आशिक़ी
4-
एक होकर मिल गए हैं दो बदन इक रूह में
मज़हबी बंधन से होकर के रिहाई आशिक़ी
5-
फुर्क़तों का वो अँधेरा हाथ मलता रह गया
जब क़मर की रौशनी से जगमगाई आशिक़ी
6-
मिल गया “प्रीतम” मुझे भी आज़ हँसने का सबब
ज़िन्दगी पुरनूर है अब हाथ आई आशिक़ी
**
प्रीतम श्रावस्तवी
श्रावस्ती(उ०प्र०)