जब स्वयं के तन पर घाव ना हो, दर्द समझ नहीं आएगा।
जब स्वयं के तन पर घाव ना हो, दर्द समझ नहीं आएगा,
ये नियति हंस कर देख रही, कि कल काल तुझे समझायेगा।
निंदनीय शब्दों की तीखी तलवार, तू आज औरों पर चलाएगा,
तेरे शब्दों से गूंजेगा ब्रह्मांड आज, और कल घर को तेरे हीं गुंजाएगा।
मिथ्या अहम् और स्वार्थ को जो तू, सर पर खुद के सजायेगा,
इक दिन स्वयं घमंड तेरा, तेरे शीश को काट गिरायेगा।
आँखों में तेरी स्वयं लज्जा नहीं और, सवाल चरित्रों पर उठाएगा,
घर में तेरे भी दो फूल खिले, कोई उस पर भी घात लगाएगा।
गीली मिट्टी की मूरत के हृदय को, तू आज विचारशून्य हो तरपायेगा,
कल तेरे अश्रु भी तेरी आँखों से नजरें चुरायेगा।
विचलित मन की पीड़ा का तू, मनोरंजन आज बनाएगा,
कल स्वांग बनेगा तेरा भी और ठगा सा तू रह जाएगा।
कर्म का लेखा ऐसा है, जो देगा वापस आएगा,
वो ईश्वर रिश्वतखोर नहीं, जो तेरे कर्मों पर पर्दा गिरायेगा।