जब से ख़ुदको पढ़ना सीखा (‘इश्क़-ए-माही’ पुस्तक ग़ज़ल संग्रह से )
ग़ज़ल– 54
जब से ख़ुदको पढ़ना सीखा
बस तुझ ही में ढलना सीखा
रुह से रुह का कैसा पर्दा
रुह ने रुह में बसना सीखा
क्या ख़ुशियाँ क्या ग़म का मंज़र
हर लम्हें में हँसना सीखा
हमने तो अपनों की ख़ातिर
शम्मा सा बस जलना सीखा
सात स्वरूपों के संग ‘माही’
अक्स तेरा बन चलना सीखा
© डॉ० प्रतिभा ‘माही’