जब वे आम थे
जब वे आम थे हँसते थे, खिलखिलाते थे,
चाहे जिससे मिलते, चाहे जिससे बतियाते थे।
अब वे हो गये हैं खास, समाप्त हो चुकी है उनकी निजता-
और हो गया है उनकी हर बात का सरकारी करण।
प्रोटोकाल के चलते खुलकर हँसना, हर किसी से मिलना-
बतियाना बन गया है एक स्वप्न।
अब वे वही कर पाते हैं-
जो सरकारी अधिकारी चाहते हैं।
उस दिन वे चाहते थे अपने दिवंगत मित्र की-
शव यात्रा में सम्मलित होना।
अधिकारियों ने रोक दिया उनको वहाँ जाने से-
देकर सुरक्षा कारणों का हवाला।
उनके नाखुशी दिखाने पर, बनाया गया उनके वहाँ जाने का-
सरकारी कार्यक्रम।
सभी राजकीय तामझाम के साथ वे वहाँ जा पाए थे-
जब बीत चुके थे लगभग तीन माह, उनके मित्र को दिवंगत हुये।
वे स्वर्गवासी मित्र को अपने शब्दों में न दे पाये श्रदांजलि-
और उनके स्वजनों को सान्त्वना।
सरकारी तंत्र ने उनको पकड़ा दिया एक लिखित वक्तब्य।
उन्होंने कर दिया एक कुशल राजनेता की तरह-
उसका पाठन और उद्घाटन मित्र की स्मृति में होने वाले साप्ताहिक कार्यक्रमों का।
जयन्ती प्रसाद शर्मा