जब मुझे कुछ मिला ही नही’ ।
मिला ही क्या मुझे ,जो हर शाम उदास रहूँ ,
ये पत्थर कब तक तोड़ता रहूँ जब मकान बनने से रहा नही ,
चट्टानों जैसा जिगर ले कर चलता हूँ ,
मुस्कुराने के अलावा बचा ही क्या मेरे पास ,
क्यो हर शाम उदास रहूँ ,जब ‘मुझे कुछ मिला ही नही’ ।
ये समझकर हर फिक्र को धुँए में उड़ाता चला गया ,
दिन पर दिन खुद को पत्थर बनाता चला गया ,
मिली नही कुछ खुशियां ,गम को खुशियां बनाता चला गया ,क्यो उदास रहूँ हर शाम जब मुझे कुछ मिला ही नही ।
असफलता सफलता को स्वीकार कर मैं हर रोज लड़ता जाऊंगा , गिरते फड़ते ढेंगलाते मैं जरूर अफसर बन जाऊंगा ,जाया नही जाएगा मेरा पत्थर तोड़ना , मैं हँसते -हँसते इस शाम को रंगीन कर जाऊंगा ,
‘पर’ मिला ही क्या मुझे जो हर शाम उदास रहूँ ।