जब भी सुनी बात….
जब भी सुनी बात खुले
वातावरण की
गाँव की कल्पना मन में
उभर आयी
जब भी मन ऊबा शहर की
तंग गली से
गाँव का सौम्य, स्वच्छ परिवेश
याद आया
जब भी अकेलापन महसूस
हुआ गाँव की चौपाल
याद आयी
जब भी हाथ आरो का
पानी लगा
गाँव के बूढ़े कुएँ की
याद आयी
जब भी ए. सी के कमरे में
घुटन महसूस हुई
गाँव के बूढ़े बरगद की
याद आयी
जब भी नींद नहीं आयी
बेचैनी हुई
मखमली बिस्तर पर
गाँव की मूँज की चारपाई
याद आयी
जब भी सड़कों पर कूड़ेदान में
मुँह डालते
जानवरों को देखा गाँव की
हरी घास और बरसीन
के संग
प्यारी गाय की मासूमियत
याद आयी
जब भी सुबह उठने के लिए अलार्म
लगाना पड़ा
गाँव के मुर्गे की बाँग
याद आयी
जब भी फैसला लेना हुआ
खुद को
गाँव के बुजुर्गों की सलाह
याद आयी
जब भी परेशान कर मजा
लेना हुआ
गाँव की बूढ़ी काकी और काका
की याद आयी
जब भी स्नेह कम लगा
सम्बन्धों में
गाँव के संयुक्त परिवारों की
याद आयी
जब भी रात में रोटियाँ
फेकनी पड़ी
गाँव के दरवाजे बैठे कुत्ते
की याद आयी
जब भी लगा हाथ पाँव जवाब
दे रहे हैं
हो रहे हैं डायबिटीज के शिकार
और लाचार तब
गाँव के छोटे-छोटे कामों की
याद आयी
जब भी प्रदर्शनी गये घूमने
चकाचौंध में
गाँव के उत्सव और मेले की
याद आयी
5 पैसे में पूरा मेला घूम आता
पूरा घर
आज हजार भी कम पड़
जाते हैं
और वो मजा भी अब नहीं
रहा जो
गाँव के साथियों के संग
मिलता था!
.
शालिनी साहू
ऊँचाहार, रायबरेली(उ0प्र0)