जब गुलशन ही नहीं है तो गुलाब किस काम का /लवकुश यादव “अज़ल”
जब गुलशन ही नहीं है तो गुलाब किस काम का,
जब तुम याद ही नहीं तो तुम्हारा नाम किस काम का।
तुम्हारी अदाओं पर कुर्बान थी जान हमारी पागल,
जब पागल ही नहीं रही तो ये पागलपन किस काम का।।
तुम्हें देखने को न तरसे तो ये दृश्य किस काम का,
अप्सरा सा चेहरा और झील सी आंखे तुम्हारी।
दुनियां की भीड़ में छुपाने की शाम ढूढं लाओ,
शाम ही नहीं होगी तो फिर उजाला किस काम का।।
मोतियों की माला ये सजाई है जो तुमने प्रिये,
खरीददार ही न मिले तो मोतियों का क्या कुसूर।
हाथ थाली लिए रोली चंदन की बैठी रहो तुम,
जब हम ही न रहें तो तुम्हारा श्रृंगार किस काम का।।
मौसम के बदलते मिजाज से बादलों ने पूछा,
जब मेघ बरसे नहीं तो बादल किस काम का।
आंखों में देखते हुए अगर तस्वीर तुम्हारी न दिखे,
अज़ल मासूमियत से बोलो इन आँखों का काम क्या।।
महकते गुलाब के बगीचे में आये न सुगंध,
यार तुम ही बताओ फिर बगीचा किस काम का।
जब गुलशन ही नहीं है तो गुलाब किस काम का,
जब पागल ही नहीं रही तो ये पागलपन किस काम का।।
लवकुश यादव “अज़ल”
अमेठी, उत्तर प्रदेश