वक्त के हाथों पिटे
वक़्त के हाथो पिटे शतरंज के मोहरे हैं हम
खेल जब तक हो न अगला बेसबब हैं क्या करें
स्वतः उगते हैं किसी वट वृक्ष पर आश्रित नहीं
इस लिये इस दौर में हम बेअदब हैँ क्या करें
गैर के तप से मिले देवत्व इस अरमान में
इस दशा में वो अधर में जा फसें हैं क्या करे
था नहीं जिनके मुकाबिल कल तलक कोई गुलाब
अब वही बेरंग बेबस खुश्क लब हैं क्या करें
जिनकी छाया मात्र से कुछ लोग हो जाते थे भृष्ट
उनका मंदिर उनकी पूजा वो ही रब हैं क्या करें
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डॉक्टर इंजीनियर
मनोज श्रीवास्तव
तीसरी कविता