*जब कभी दिल की ज़मीं पे*
जब कभी दिल की ज़मीं पे चहलक़दमी करती हूँ मैं,
ठोकरें खाती हूँ कभी, कभी ख़ुद ही संभलती हूँ मैं|
पहचाने रास्ते भी कभी अजनबी से नज़र आते हैं,
अजनबी डगर पर भी कभी बेख़ौफ़ चलती हूँ मैं| जब कभी दिल की ज़मीं पे….
एक बालिश्त पर मंज़िल नज़र आती है कभी,
दूर तलक वीरानों से कभी अकेले लड़ती हूँ मैं|
महकते फूलों से सजती हैं कभी दिल की गलियाँ,
खंडहर कभी, कभी कँटीले झाड़ों से गुज़रती हूँ मैं| जब कभी दिल की ज़मीं पे…
दोस्त ही दोस्त पग-पग पर नज़र आते हैं कभी,
वश-ए-हालात ज़हर दुश्मनी का भी चखती हूँ मैं |
कला में पारंगत सफलता का मकरंद चखती हूँ कभी,
कभी चातक-सी मावस-रात चांदनी को तरसती हूँ मैं| जब कभी दिल की ज़मीं पे…
ज़िन्दगी संगीत लगती है कभी बंसी की तान-सी,
टूटे साज़ के तारों में भी सरगम कभी बुनती हूँ मैं|
क्यों रहता नहीं चिराग़ रोशन सफ़र में हरदम?
दिन के उजाले में दिल के अँधेरों में भटकती हूँ मैं| जब कभी दिल की ज़मीं पे…
सोचती हूँ, समझती हूँ, समझाती हूँ ख़ुद को कभी,
गर ख़ुशी है आसपास तो क्यों अपनी ही ख़ुशी से डरती हूँ मैं|
सोचती हूँ, समझती हूँ, समझाती हूँ ख़ुद को कभी,
गर ख़ुशी है आसपास तो क्यों अपनी ही ख़ुशी से डरती हूँ मैं| जब कभी दिल की ज़मीं पे…