जज़्बात-ए-दिल
सुना है वो आजकल भी
महफिलें लूट रहे हैं
और हम अब भी उनकी
याद में टूट रहे हैं
टूट रहे हैं शाखों से पत्ते
माली को फिक्र ही नहीं है
पतझड़ तो अभी आया ही नहीं
उसे क्यों ये यकीन नहीं है
यकीन करे भी तो कैसे उसपर
वो अब मौसम हो गया है
कह रहा था मिलता रहूंगा
आज जाने कहां खो गया है
खो जाते हैं जो इस राह में
फिर वो मिलते नहीं दोबारा
ये इश्क़ चीज़ ही ऐसी है
ये फिर होता नहीं दोबारा
दोबारा मिलने की चाहत थी उसकी
लग रहा था वो इसी बात से आहत थी
थोड़ा वक्त लग गया समझने में मुझे
जब मिला तो मेरे दिल को भी राहत थी
राहत मिलती है मुझे उसको देखकर
नींद आती है मुझे उसको सोचकर
सबकुछ तो मेरा उसपर निर्भर है
सांसें भी चलती है मेरी उसको पूछकर
पूछना चाहता हूँ मैं उस ख़ुदा से
ये कैसा दर्द बनाया है उसने
लग जाता है कहीं भी किसी को
ये जो दिल का दर्द बनाया है उसने
मिटता नहीं है ये दर्द दिल का
तेरी ज़िंदगी गुज़र जाती है
गुज़ारा नहीं एक पल संग जिसके
उसकी याद पल पल आती है ।