जग में कुछ कर जाओ तुम
आदित्य उदय पूरब में
तन्द्रा तिमिर हटाओ तुम
सूरज सुमन से ऊर्जा ले
स्फूर्ति मय हो जाओ तुम।
मुस्करा के हर कली
आतुर कुसुम बनने को है
भँवरे खग तितलियों सा
कर्म में लग जाओ तुम।
पर कंटकों के सर छिपे हैं
हर कली की गोद में
सुख की अभिलाषा कल्पना
यह मर्म समझ जाओ तुम।
ज्ञान विवेक सभ्यता और
संस्कृति का समत्व कर के
परोपकार मार्ग पर चल
जग में कुछ कर जाओ तुम।
शून्य में बिलीन होओ
पूर्व उससे मृत्यलोकी
जीवन भर लेते रहे हो
कुछ तो लौटा जाओ तुम।