जग के पिता
ए मुसाफिर,तू किस ओर आँख बन्द कर बढ़ता जा रहा है,
जाना कहाँ था ? अँधेरी खाई में खुद ही डूबता जा रहा है I
कितने अरमानों से जग के पिता ने संसाररूपी जहाँ बनाया,
हमने उस “सुंदर घर” में आग लगाकर अपना घरोंदा बसाया,
बगिया में फूल-२ को बांटकर काँटों से गुलशन को सजाया,
तेरे दिए हुए “प्यार के दो बोलों” को अपना-पराया बताया I
ए मुसाफिर,तू किस ओर आँख बन्द कर बढ़ता जा रहा है,
जाना कहाँ था ? अँधेरी खाई में खुद ही डूबता जा रहा है I
इंसान आया इस जग में,सब कुछ छोड़ कर चला गया,
वो अपने साथ लोगों से मोहब्बत का गुलदस्ता ले गया,
बनाया हुआ उनका सोने का महल धरती पर रह गया,
बन्दे ने इंसान से प्रेम न किया तो हाथ मलते रह गया I
ए मुसाफिर,तू किस ओर आँख बन्द कर बढ़ता जा रहा है,
जाना कहाँ था ? अँधेरी खाई में खुद ही डूबता जा रहा है I
किसलिए “मालिक” ने भेजा था, और तू क्या करने लगा,
गरीब – मजलूम बहन-बेटियों की आबरू से खेलने लगा,
जग का रचयिता अपने घर को उजड़ते हुए देखने लगा,
वक़्त “राज” की लेखनी को चुप रहने के लिए कहने लगा I
ए मुसाफिर,तू किस ओर आँख बन्द कर बढ़ता जा रहा है,
जाना कहाँ था ? अँधेरी खाई में खुद ही डूबता जा रहा है I
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देशराज “राज”
कानपुर I