जग का पागलपन
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लोगो देखो जग का कोना पागल जैसा हँसना-रोना।
विज्ञानों को चीर-फाड़ कर हथियारों का जंगल बोना।
मानव लड़ते मानव ही से गिद्धों सा नोचे वे तन,मन।
दौड़े आते रण आँगन में खोले रक्त पिपासु आनन।
सारे स्वर्ण पिघलकर किसके राजमुकुट को चमकाएगा!
किसके हिस्से इस दुनिया का सारा धरती आ जाएगा।
किसके आयु में मृतकों के सारे उम्र समा जाएंगे।
किसके बाँह-भुजाओं में सारे बल,शौर्य पिघल आएंगे।
इससे इतर रस्म लड़ते हैं, रस्म ही नहीं नस्ल लड़ते हैं।
कोई कहता रस्म हमारा, कोई नस्ल बड़ा करते हैं।
इस जंगल ने उस सागर ने किसका गर्व किया है खंडित?
ऐसा ध्वंस देख-देख कर जंगल,सागर व्यथित व विस्मित।
शान्ति भागता इधर-उधर है पथ छोटा होता जाता है।
पुन: बुद्ध से शरण मांगता धर्म-ग्रन्थों से दु:ख कहता है।
अगर धर्म हो मलिन गया तो धर्म मानवीय होना होगा।
ग्रन्थों की सामूहिक व्याख्या मानव ही को करना होगा।
कवि कह जाता है इतना सा सुधिजन अर्थ लगावें,जानें।
विजय चिन्ह विध्वंसों का या निर्माणों का कहिए तानें!
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