जगदाधार सत्य
भिन्न नहीं जगदीश जगत से, हैं अभिन्न कवि कविता जैसे।
जगदाधार सत्य, जग मिथ्या, पर विश्वास करूॅं मैं कैसे?
कहता है अध्यात्म सिन्धु में, बाड़वाग्नि का वास चिरन्तन।
दिखती हैं वीचियाॅं सतह पर, भीतर अविरल चलता मन्थन।।
रत्नों का अम्बार अतल में, कुछ मिल पाता जैसे – तैसे।
जगदाधार सत्य, जग मिथ्या, पर विश्वास करूॅं मैं कैसे?
नाना विहग गगन में उड़ते, भिन्न-भिन्न हैं सबकी गतियाॅं।
अहोरात्रि चलती रहती हैं, जगदीश्वर की सब गतिविधियाॅं।।
सूरज चाॅंद सितारे जगमग, वर्षों से वैसे के वैसे ।
जगदाधार सत्य, जग मिथ्या, पर विश्वास करूॅं मैं कैसे?
परमात्मा सर्वत्र कर्मरत, पर्वत-शिखर मरुस्थल भू-तल।
उदयाचल से अस्ताचल तक, विद्यमान है उसकी हलचल।।
क्रेता – विक्रेता दोनों ही, देते – लेते रुपए – पैसे ।
जगदाधार सत्य जग मिथ्या, पर विश्वास करूॅं मैं कैसे?
उसमें भी है वास उसी का, जो असत्य की कसमें खाता।
जब असत्य से भिड़ना पड़ता, तभी सत्य जग में जय पाता।।
सत्य धर्म कहलाता तब ही, जब लड़ता अन्याय अनै से ।
जगदाधार सत्य, जग मिथ्या, पर विश्वास करूॅं मैं कैसे?
तीन लोक, चौदह भुवनों में, होती जिसकी जयजयजय है।
जो उसके आश्रित हैं उनको, कहीं न कोई किंचित भय है।।
वही सत्य से हुए सुपरिचित, पर कम ही हैं प्राणी ऐसे।
जगदाधार सत्य, जग मिथ्या, पर विश्वास करूॅं मैं कैसे?
महेश चन्द्र त्रिपाठी