“जगत जननी: नारी”
“जगत जननी: नारी”
उतारो मुझे जिस क्षेत्र में
सर्वश्रेष्ठ कर दिखाउंगी,
औरों से अलग हूं दिखने में
कुछ अलग कर के ही जाउंगी।
चाह नहीं है एक अलग नाम की
इसी को महान बनाउंगी,
नारी हूं मैं इस युग की
नारी की अलग पहचान बनाउंगी।
जो सदियों से देखा तुमने
लिपटी साड़ी में कोमल तन को,
घर-घर में रहती थी वो
पर जान न सके थे उसके मन को।
झुकी हुई सी नज़रें थी
वाणी मध्यम मधुर सी थी,
फिर भी तानों की आवाज प्रबल थी
हिम्मत न थी उफ़ करने की।
अब बदल गयी है ये पहचान
नारी की न साड़ी परिभाषा,
वाणी अभी भी मध्यम मधुर सी
पर कुछ कर गुजरने की है, प्रबल सी आशा।
चाहे जो भी मैं बन जाउं
गर्व से नारी ही कहलाउंगी,
चाहे युग कोई सा आये
मै ही जगत जननी कहलाउंगी।
दुनिया के इस कठिन मंच पर
एक प्रदर्शन मैं भी दिखलाऊंगी,
कठपुतली नहीं किसी खेल की
अब स्वतंत्र मंचन कर पंचम लहराउंगी।
मै नारी हुँ सब कुछ कर दिखनाउंगी ।
नारी भी है पुरुष के ऐसे अनेक गुणहीन अबला
कदम से कदम मिला कर चल दिखाउंगी
(स्वरा कुमारी आर्या ✍️)