जगत जननी की पीड़ा
जगत जननी की पीड़ा
आजकल नवरात्रि चल रहा है
ये तो हमें भी क्या आपको भी पता है,
पर आज ही सुबह सुबह आदिशक्ति के
साक्षात दर्शन से यह और भी पक्का हो गया है।
माँ आदिशक्ति शायद इसीलिए धरती पर
अपने भक्तों की खुशियां देखने और
उन पर अपनी कृपा लुटाने आई हैं।
अब ये तो पता नहीं कि
ये सौभाग्य किसने किसने पाया
पर मेरे हिस्से में तो जरूर आया।
माँ को देखकर मैंनें उन्हें नमन किया
माँ ने अपनी कृपा प्रसाद से
मुझे भरपूर अभिभूत कर दिया।
पर वो तो जगत जननी हैं
मेरे मन को भी लगे हाथ पढ़ लिया
मगर अंजान बन पूछ बैठी
वत्स! कुछ कहना चाहते हो?
मैंने बिना किसी भूमिका के हां कह दिया
और बिना माँ के आदेश के ही
अपनी आदत के अनुसार
अपने मन की बात कह दिया।
अब आप सोच रहे होंगे
मैंने माँ से क्या क्या मांग लिया?
कितना धन दौलत संपत्ति मांग लिया,
पर ईमानदारी से कहता हूं यहीं मैं चूक गया।
अब साफ साफ बता देता हूं
जो मैंने मां से निवेदन किया,
पहले तो मां मुझे आग्नेय नेत्रों से घूरती रहीं
शायद मेरी मूर्खता पर क्रोध करने लगीं,
मेरी तो सांस अटक गई।
एक पल में माँ मेरे पास आकर खड़ी हो गईं
मेरे सिर पर हाथ फेर मुझे दुलराने लगीं
तब मेरी सांसे अपने रंग में आ पाईं।
तब मैं अपने मन की बात कहने लगा
धरा पर हर कोई स्वस्थ सानंद खुशहाल रहे
भाईचारा अमन शान्ति चहुँओर रहे
हर किसी का समुचित मान सम्मान हो
मां बाप बुजुर्गों का ऊंचा स्थान हो
हिंसा का धरती पर कहीं न स्थान हो
मातृशक्तियों का सदा उचित स्थान सम्मान हो
उनके मन में कहीं भी कभी भी भय न हो
भाईचारा एकता का सभी के मन में भाव हो।
तब मां! बड़े प्यार से कहने लगी
वत्स! तुम बड़े भोले पर समझदार हो
तुमने तो मांगकर भी कुछ नहीं मांगा
फिर भी तुमको सबकुछ दूंगी
पर तुम्हारी मांग पर अभी कुछ नहीं कहूँगी।
क्योंकि इसमें देने जैसा कुछ है ही नहीं,
जो तुम सबके लिए चाहते हो
यह सब तो मानव के अपने हाथों में है
मगर वो इतनी सी बात समझता कहाँ है?
ठीक वैसे जैसे वो मेरी पूजा आराधना कम
दिखावा ज्यादा करता है,
नीति नियम सिद्धांतों को सदा ताक पर रखता है
मेरी भक्ति की आड़ लेकर अनीति की राह पर चलता है
सीधे शब्दों में कहूं तो अपने स्वार्थ की खातिर
दिनरात इंतजाम और काम करता है।
अब तुम बताओ भला इसमें मेरा क्या दोष है?
तुम सबको हमारी कृपा, आशीर्वाद का कहाँ काम है?
तुम सब तो हमको ही भरमा रहे हो
जैसे हम पर ही अहसान कर रहे हो
और करो भी क्यों न
जब तुम अपनी जन्मदायिनी माँ का
अपमान उपेक्षा करने से नहीं चूकते,
उसमें मेरी मूरत देखने की जहमत तक नहीं उठाते
तब बताओ भला मेरी क्या बिसात है?
सबको पता है जैसी करनी वैसी भरनी
फिर आज के जमाने में हमसे भला डरता कौन है?
फिलहाल देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है
या मान लो मेरा कुछ भी देने का
विचार तक नहीं बन पा रहा है।
वैसे भी सब कुछ तुम सबके अपने हाथों में है
जब तुम सब का कार्य व्यवहार उसके अनुरूप होगा
तब बिना मांगे ही तुम्हें सब कुछ
समय समय पर मिलता रहेगा
और तब मेरा भी मन अति प्रसन्न होगा
और देवी देवताओं का भी तब ही मान सम्मान होगा।
वरना महज औपचारिकताओं भरा
तुम्हारा ये सारा तामझाम होगा
मेरी पूजा आराधना जागरण जगराता
निश्चित जान लो सब व्यर्थ होगा।
मानव जैसा चाहता है वैसा ही तो आशीर्वाद होगा
नवरात्रि का शोर बिना किसी अर्थ के
इस बार भी नौ दिनों बाद शांत हो जायेगा,
एक बार फिर हमें भी
निराशा के भंवर में छोड़ जाएगा।
मां बोलते बोलते एकदम गंभीर हो गईं
मुझे एकदम लाचार कर गईं,
वैसे भी मेरे पास बोलने को कुछ शेष नहीं था
क्योंकि सच भी तो पूरी तरह साफ था
दोष तो हमारा आपका ही है
वैसे भी हमें आपको चाहिए भी क्या
माँ की कृपा से ज्यादा अपने स्वार्थ का
बस! अथाह प्रसाद मिलते रहना चाहिए।
मैंने मां को नमन करने के लिए सिर झुकाया
फिर जब सिर उठाया तो मां को नहीं पाया
मां की नाराज़गी का कारण जान पाया
उनकी कृपा करुणा से वंचित रहने का राज
बड़ी आसानी से मेरी समझ में आया,
जगत जननी की पीड़ा पहली बार जान पाया।
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश