जख्म
क्या बताऊँ क्या हुआ है साथ, बस एक कश्ति-सी चल रही थी
बाँट भी ना पाये जिसे, साथ मेँ वो जख्मोँ की बस्ती चल रही थी
न तीर से, न तलवार से सीने मेँ जो गड़ता गया
काँटा भी न हो सका जो बदन मेँ मेरे एक चुभन दे गया
कहूँ तो एक वक्त था जब रात की अँधेरियोँ से दोस्ती हो गई
वो मुझे जगाते रह गये और दुनिया सोती रह गई
अमावस के सन्नाटे मेँ जब दर्द भी गर्जना बन गये
देख तड़प मेँ किसी की नीँद खुली, वो भी बेबस होकर मुहँ पर चादर ओढ़ गये
राहत मिले तो अन्दर एक डर समा जाए
खोदता गया जो भीतर ही भीतर, मेहमान-नवाजी वो मुझसे ही करवाये
चोट भी एसी लगी है जिसमेँ लहू भी ना बहेँ
दर्द होता रहे और घाव का निशान भी ना रहेँ
वेदना भी जब गूँज उठी उस काली रात की चुपाई मेँ
जख्म तो जरूर मिला है उस चोट की सुनवाई मेँ