जख्म मिले जो बरसों पहले
जख्म मिले जो बरसों पहले
अब पककर नासूर हुए हैं।
तेरे सितम का गम क्या कम था
जो अपने भी दूर हुए हैं।
जब तक तूफ़ां हमलावर थे
हम थे फौलादी चट्टानें,
पर फूलों से ठोकर खाकर
पल में चकनाचूर हुए हैं।
यही सोंचकर हम रूठे थे,
हमें मना ही लेंगे वो,
मगर सताना शौक है उनका,
वो खुद ही रंजूर हुए हैं।
लोग पराये जज्बों वाले,
क्यों दिखते हैं अपने से
दिल पागल है जिनकी खातिर
वो कितने मगरूर हुए हैं।
गुरबत में रिश्तों नातों से
मुँह मोड़ा, नज़रें फेरीं,
रुतबा पाकर प्यार भुलाना
अब बदले दस्तूर हुए हैं।
संजय नारायण