जख्म के दाग हैं कितने मेरी लिखी किताबों में /”लवकुश यादव अज़ल”
हर दर्द ,ज़ख्म यूँ ही नही मिलता है जमाने में,
दर्द को गुजरना पड़ता है सूनसान राहों से।
होंठ लाल हैं उनके जरा देखो लवकुश,
रक्त का कतरा कतरा निछोडा मेरी बांहों से।।
हम तो अंजान हैं अब भी महफ़िल के सितारों से,
जख्म के दाग हैं कितने मेरी लिखी किताबों में।
लौट आ मेरे शहर पीते हैं जाम किसी मयखाने में,
जख्म के दाग हैं कितने मेरी लिखी किताबों में।।
कई शामें हैं कैद जान तेरे सिर्फ मुस्कराने में,
इश्क़ के बाग में कैद हम भी कई जमाने से।
हर दर्द ,ज़ख्म यूँ ही नही मिलता है जमाने से,
दर्द को गुजरना पड़ता है सूनसान राहों से।।
अश्क़ के दाग है दिखाता ये सिरहाना मेरा,
कई सवाल हैं पूछे मेरी कलम की स्याही ने।
कितने गीत हैं लिखे हमने तेरी रुसवाई में,
दर्द कम क्यों नहीं होता दर्द की दवाई में।।
चेहरा देखना अपना आईने से पहले किताबो में,
नाम तुम्हारा ही लिखा है आज भी मेरी बांहों में।
कई शामे हैं कैद जान तेरे सिर्फ मुस्कराने में,
इश्क़ के बाग में कैद हैं हम भी कई जमाने से।।
लवकुश यादव “अज़ल”
अमेठी ,उत्तर प्रदेश