जंग
बारूद की महक अब भी हवा में बाकी थी
दुश्मन के पास अब भी कई बम बाकी थे
वो बस थोड़ी देर के लिए रुके हुए थे
ऐसा भी नहीं कि वो थके हुए थे
बस टैंक को थोड़ा सा आराम दिया गया था
लाशें बटोरने के लिए लम्हों का ईनाम दिया गया था
ज़मीं का रंग पूरी तरह गाढ़ा लाल हो चुका था
किसीको बाप का सर मिला, तो कोई अब भी ढूंढ रहा था
टैंक फिरसे बमों की बारिश के लिए तैयार था
ये सबकुछ ज़ाती नहीं सियासती कारोबार था।
ऐसे हालात में भी कुछ बच्चे खेलते रहते थे
बम से बिना डरे परिंदें उड़ते रहते थे।
-जॉनी अहमद ‘क़ैस’