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26 Jul 2017 · 1 min read

“जंग” कविता

विषय- “जंग”
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मापनी-1222×4
बना कर ज़िंदगी को जंग दानवता बढ़ाते हैं
सियासी चाल शतरंजी बिछा शकुनी लड़ाते हैं
बदल कर गिरगिटी सा रंग रिश्तों को मिटाते हैं
बने ये कंस बहनों को यहाँ जी भर सताते हैं।

लहू का रंग काला है कहीं इंसानियत सोती
यहाँ नफ़रत भरी सत्ता महल हैवानियत होती
बिकी जो आबरू घर की तड़पती माँ यहाँ रोती
लुटा धन संपदा अपनी बुढ़ौती पूत को खोती।

बहा कर प्रीत का सागर सहज सम भाव उपजाएँ
बनें हम नेक फ़ितरत से चलो इंसान बन जाएँ
मिटा कर नफ़रती दौलत सरस हम नेह बरसाएँ
भुला कर मजहबी रिश्ते अमन सुख चैन हम पाएँ।

डॉ.रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
संपादिका-साहित्य धरोहर
महमूरगंज, वाराणसी(मो.-9839664017)

Language: Hindi
1 Like · 814 Views
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