“जंगलराज”
आम नागरिक की परेशानियों को प्रतीकों के साथ गूँथ कर कुछ दोहे पिरोये हैं;आप भी पढ़िये और बताइये मेरा प्यास कैसा रहा:-
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“जंगलराज”
“दोहे”
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मूर्खों की बैठक सजी,
श्रोता बने विद्वान,
हर कोई हांके आपणी,
ख़ुद को बतावें महान
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घोड़े हिनहिनाते रहे,
खच्चर खुजावैं कान,
घास की अब कौन सुने,
जब गधे भये पहलवान।
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कोयल नीम पर गा रही
कौआ खावै आम,
गौरैया रही असमंजस में,
किसका गावैं गान ।
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खेत खुला ही रह गया
बैल चर गये बाढ़ ,
भैंसे को रोके कौन फिर,
जब बिजूका चौकीदार।
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वानर राजा हो गये
लोमढ चले है चाल
शेर जी मिमिया रहे,
बिल्ली गुरू घंटाल।
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सुरखाबों के पर निकले
कौओं ने मोती चुगे
हंस पीयें शराब,
मगरमछ के आँसुओं से;
देखो भर गया तालाब।
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राजेश”ललित”शर्मा
२४-१-२०१७
९:५८—रात
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