छोटी-छोटी कविता
१. 10.11
ये चमन, ये गुल, ये गुलिस्तां सब अपनी ही जगह रह जाएंगे
लोग आते हैं, आते रहेंगे अपनी अदाकारी दिखा कर लौट जाएंगे
… सिद्धार्थ
२.
राम जाने हम सोये हैं या वो
हम तो जागे जगे हैं
वो भी आगे आगे हैं
मिट्टी है जिस से वो हैं बने हुए
मिट्टी है जो हमारी आंखो में है पड़े हुए
हम अंधो में ही खेल कर बड़े हुए
वो अंधे बन खेल के बीच हैं खड़े हुए
राम जाने हम जागे हैं या वो…
… सिद्धार्थ
३.
ये देश मेरा भी है
हम जैसे, तुम जैसे सभी लोगों का
ये देश घर है हमारा बडा सा घर,
और हम… इस देश में
इस घर में ठीक वैसे ही हैं
जैसे गरमी के दिनों में
जूते में बास मारता पैर
हम से निकलने वाली बदबू
देश की हवा को दुर्गन्धित कर रही है
और हम अभी आत्म बिभोर हैं
तुम्हारा तुम जनो…
… सिद्धार्थ 10.101
४.
हर हाल में नियत से तुम्हारे पर्दा उठने लगा है
आज आठ अक्टूबर को तुम्हारा मौन खलने लगा है
कमर तोड़ने चले थे कलाधन और आतंक का
आतंक साए में तुम्हारे फलने फूलने में लगा है
मेरे गुल्लक के दरारों में अजियत बन के बैठे हो तुम
तुम्हारे नापाक इरादों का असर सरेआम दिखने लगा है।
… सिद्धार्थ
५.
” क्या बिगाड़ के डर से इमान की बात न करोगे?”
….…….…
अपना बिगाड़ हो तो लोग सह भी ले,
पूरे समाज का बिगाड़ न हो जाए
इस का खतरा ज्यादा बढ़ गया है।
माचिस की एक तीली काफी होती है,
भूसे के ढेर को शोला में बदल जाने को, और
भूसा का जलता ढेर निगल लेता है मोहल्ले को,
मोहल्ला निगल लेता है गांव को, और
गांव निगल लेता है देश को,
इस लिए…
इस बार बिगाड़ अपना नहीं अपनों का होगा… जय हो
…सिद्धार्थ 10.11