छाले
चल पड़ा हूं लेकर, मेरे गांव का नाम।
नहीं है कोई अपना, सिर्फ मेरे है राम।
छाले कितने पड़ गये, मन बसा है गांव,
रोजी को आया, नहीं शहर में काम।।
ऊँचे ऊँचे बंगले, बोलती सी गाड़ियां।
ऊँची सबकी नज़र, ऊंची है झांकियां।
खड़ा सा तक गया, छूट गया मकाम,
रहे कैसे नगर महंगे, मजबूरी है काम।।
भूख लेकर चला हूँ, परिवार है पालना।
मेहनत से ही अब, ये कष्ट है टालना ।
सह लेता जीवन में, कैसी सुबह शाम
भूल वह दर्द को, ढूंढता है बस काम।।
देव सम वह जो पहचाने इस हुनर को।
मिले कभी सम्मान इस श्रमवीर को।
नहीं कुछ चाहिए, बस मान की रोजी,
महलो के पीछे छुपे, श्रम हस्त काम।।
चल पड़ा हूँ लेकर मेरे गाँव का नाम।।
छाले कितने पड़ गये —–
‘मजदूर दिवस पर समर्पित’
(रचनाकार कवि:- डॉ शिव लहरी)