छल
तुम मृत्यु देते स्वीकार था
छल दिया क्या द्वेष था
आन अर्पित मान अर्पित
रक्त का कण कण समर्पित
और अब क्या शेष था
विषहीन समझा तुम विषैले
क्या ये मेरा दोष था
प्रतिशोध तेरा है सही
विश्वास मेरा क्या हुआ।
मैं अडिग था उद्दीपनों में
अंतर्घात का ना भान था
विजयरथ की कामना का
ताज तेरा यूं सजा था
कुंडली के चक्र से
विषदंत का ये व्यूह था।
पर जीतकर भी हार तेरी
हे प्रिए! इसका तुझे ना ज्ञान था
मैं तो परे हूं जय विजय से
मैं तो परे हूं छल कपट से
सुन हृदय धिक्कारता कि
ना हार का है दुःख मुझे
ना जीत चाही थी कभी
जब छल हुआ तो जान पाया
क्या था तेरा
जो है तूने खो दिया
अर्जित उपार्जित ख्यतियों का
संचित समाहित वैभवों का
स्वामित्व तेरे ही लिए था।
पर लोभ से पनपे हुए छल से
सर्वस्व पाकर
विश्वास तूने खो दिया
प्यार तूने खो दिया
जो था शायद सागर सा गहरा
गिर से ऊंचा
लोभ तेरा मोह तेरा
द्वेष भी पाखंड भी
छल से भरा गागर भी तेरा
पर ना पाया
प्यार का विश्वास का
इक अल्प सा टुकड़ा हृदय का
जिसमे समाहित विश्व का
परमार्थ सारा अभिज्ञान सारा।