छल छद्म
मैं नेत्रहीन नहीं
आंखे मूंदे बैठा हूं
मैं भी अवगत था
सत्य से
पर विवश रहा
सदा
अन्तर्मन मेरा
क्या मिलेगा व्यर्थ में
लड़ने से
समस्त भारत के लिए
कुछ करने से
विदित था सब मुझे
मृत्यु तो मेरी ही होगी
अंत भी ही मेरा होगा
और शेष सभी विजयी होंगे
यहां
योंही मरने से तो
रक्त ही बहेगा
पीड़ा ही मिलेगी
नही नहीं नहीं
मैं मूढ़ नहीं
इस धर्मक्षेत्र में
या कर्मक्षेत्र में
मैं मर ही नहीं सकता
निस्वार्थ
क्यों मैं कुछ करूं
मैं भयभीत हूं
और रहूंगा अब योंही सदा
निसंदेह
मैं जीवित तो रहूंगा
सदा ,हमेशा आह!
वीरों में न सही
कायरो में ही सही
स्मरण तो मेरा भी होगा
आजाद भारत में
मनोज शर्मा