छत्तीसगढ़ रत्न (जीवनी पुस्तक)
छत्तीसगढ़ रत्न
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डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
एम.ए. (हिन्दी साहित्य, राजनीति विज्ञान, शिक्षाशास्त्र), बी.एड., एम.लिब.आई.एस-सी., पी-एच.डी., यू. जी.सी. एन.ई.टी., सी.जी. टी.ई.टी.)
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भूमिका
इतिहास साक्षी है कि छत्तीसगढ़ अंचल की उर्वर भूमि में समय-समय पर अनगिनत ऐसी महान विभूतियों का जन्म हुआ है जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन अपने देश, समाज, कला, संस्कृति एवं साहित्य के उत्थान के लिए न्यौछावर कर दिया। ये वे लोग हैं जिन पर न केवल हम छत्तीसगढ़िया और भारतीय समाज बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति को गर्व है।
कहा जाता है कि जो राष्ट्र अपनी पूर्व उपलब्धियों के प्रति गर्व अनुभव नहीं करता अथवा उनसे प्रेरणा नहीं लेता है, वह न तो अपने वर्तमान को सुधार सकता है और न ही भविष्य की एक अच्छी योजना बना सकता है। प्रस्तुत प्रस्तक ‘छत्तीसगढ़ रत्न’ में छत्तीसगढ़ अंचल की अनगिनत महान विभूतियों एवं अमर शहीदों में से ऐसे ही छत्तीस लोगों का जीवन परिचय तथा उनके कार्यों को रोचक शैली में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है, जिनसे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। ये महान विभूतियाँ एवं अमर शहीद ऐसे प्रकाश-स्तम्भ हैं, जिनसे हमारी भावी पीढ़ी प्रकाश ग्रहण कर अपने जीवन-पथ को आलोकित कर सकती है।
इस पुस्तक में मात्र छत्तीस महान विभूतियों एवं अमर शहीदों का जीवन परिचय शामिल किया गया है। इसका अर्थ यह बिलकुल भी नहीं है कि जिनका उल्लेख इसमें नहीं है, उनकी महत्ता या योगदान कम है।
इस पुस्तक के माध्यम से हम अपने पूर्वजों को याद करते हुए उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से भावी पीढ़ी को प्रेरणा लेने के लिए प्रेरित करना चाहते हैं। हमारा उद्देश्य किसी भी व्यक्ति, संस्था, समुदाय या धर्म की भावनाओं को आहत करना नहीं है। यदि किसी तथ्य को लेकर कोई आपत्ति, असहमति हो तो कृपया हमें सूचित करें ताकि भविष्य में उसका परिमार्जन कर पुस्तक को और अधिक उपयोगी बनाया जा सके।
महान विभूतियों एवं अमर शहीदों के योगदान की आपस में तुलना करना न तो संभव है और न ही व्यावहारिक। इस कारण प्रस्तुत पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ रत्न’ में पाठों का अनुक्रम इनकी जन्मतिथि के आधार पर निर्धारित किया गया है।
प्रस्तुत पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ रत्न’ को अंतिम परिणति तक पहुँचाने में संस्कृति विभाग एवं जनसंपर्क विभाग, छत्तीसगढ़ शासन की विभागीय वेबसाईट के अलावा कई सहयोगी, मार्गदर्शक, विद्वजन सर्वश्री स्व. वृषभानु दाश शर्मा, स्व. डॉ. श्यामसुंदर त्रिपाठी, स्व. डॉ. विष्णुसिंह ठाकुर, डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र (अध्यक्ष, बख्शी सृजनपीठ, भिलाई), सुभाष मिश्र (अपर संचालक, जनसम्पर्क विभाग), जयप्रकाश मानस (उप संचालक, लोक शिक्षण संचालनालय, रायपुर), डॉ. बलदेव साव, प्रो. डॉ. श्रीमती आभा तिवारी, डॉ. वन्दना केंगरानी, डॉ. राजेश कुमार शर्मा, डॉ. नीलम अरोरा, डॉ. विद्यावती चन्द्राकर, बलदाऊ राम साहू, लोकनाथ शर्मा, जयेशचन्द्र पण्डा, अग्रज प्रवीण कुमार, अनुज द्वय प्रकाश व प्रणीत तथा सहधर्मिणी दीप्तिरेखा शर्मा के प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।
मैं उन सभी विद्वानों एवं संस्थाओं के प्रति हृदय से आभारी हैं जिनकी कृतियों, अभिलेखों या चित्रों का उपयोग पुस्तक लेखन में संदर्भ के रूप में उपयोग किया गया है।
मुझे पूरा विश्वास है कि भावी पीढ़ी इनसे प्रेरित होकर अपने देश व समाज हित में अपना सर्वोत्तम योगदान देगी। इस पुस्तक की उपादेयता का निर्णय विद्वान पाठक स्वयं करेंगे और उनके सुझाव हमें अनुग्रहीत करते रहेंगे।
26-01-2017
रायपुर डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
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अनुक्रमणिका
1. संत गुरु घासीदास
2. क्रांतिवीर नारायण सिंह
3. वीर सुरेन्द्र साय
4. वीर हनुमान सिंह
5. वीर गुण्डाधूर
6. पं. माधवराव सप्रे
7. पं. वामनराव लाखे
8. पं. रविशंकर शुक्ल
9. पं. सुन्दरलाल शर्मा
10. पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय
11. ई. राघवेन्द्र राव
12. ठा. प्यारेलाल सिंह
13. पं. रामदयाल तिवारी
14. यति यतनलाल
15. पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
16. पद्यश्री पं. मुकुटधर पाण्डेय
17. डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र
18. राजा चक्रधर सिंह
19. संत गहिरा गुरु
20. महाराज रामानुज प्रताप सिंहदेव
21. दाऊ मंदराजी
22. दाऊ रामचन्द्र देशमुख
23. गजानन माधव मुक्तिबोध
24. मिनीमाता
25. चंदूलाल चंद्राकर
26. हबीब तनवीर
27. बिसाहूदास महंत
28. पं. श्यामाचरण शुक्ल
29. प्रो. जयनारायण पाण्डेय
30. नगरमाता बिन्नीबाई सोनकर
31. महाराज प्रवीरचंद भंजदेव
32. स्वामी आत्मानंद
33. शहीद विनोद चौबे
34. शहीद राजीव पांडेय
35. शहीद पंकज विक्रम
36. शहीद कौशल यादव
संदर्भ सूची
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1.
संत गुरु घासीदास
छत्तीसगढ़ की संत परंपरा में गुरु घासीदास जी का नाम सर्वोपरी है। उनका जन्म 18 दिसम्बर सन् 1756 ई. को गिरौदपुरी में हुआ था। यह गाँव वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य के बलौदाबाजार जिले में स्थित है। उनके पिताजी का नाम महंगूदास तथा माताजी का नाम अमरौतिन था।
संत गुरु घासीदास का जन्म ऐसे समय में हुआ था जब इस क्षेत्र में अराजकता की स्थिति व्याप्त थी। धर्म के नाम पर समाज में कर्मकाण्ड, तंत्र-मंत्र, जादू-टोना व बलिप्रथा का बोलबाला था। शिक्षा के लिए पर्याप्त सुविधाओं के अभाव तथा दलित समुदाय के एक कृषि श्रमिक परिवार में जन्म लेने वाले घासीदास ने विधिवत स्कूली शिक्षा नहीं पाई थी। वे बाल्यावस्था में अन्य बच्चों से भिन्न थे। उनके पास संवेदनशील हृदय था। उनसे किसी का भी दुःख नहीं देखा जाता था।
घासीदास के माता-पिता धार्मिक विचारों के थे। इसका प्रभाव बालक घासीदास पर भी पड़ा और वे बचपन से ही मांसाहार, नशाखोरी, अस्पृश्यता, पशुबलि एवं अन्य कुप्रथाओं का विरोध करते रहे। बालक घासीदास का हृदय सात्विक विचारों से जगमगाता था। उनके बालमन पर छोटी-से-छोटी धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक घटना का गहरा असर होता था। वे उस घटना से विचलित हो उठते और उसके कारण को जानने का प्रयत्न करते। वे बहुत ही गंभीर तथा जिज्ञासु स्वभाव के थे।
घासीदास के किशोर मन में अनगिनत प्रश्न उठते-रहते। इन जटिल प्रश्नो के उत्तर जानने हेतु वे हमेशा विचारमग्न रहते, चिंतन-मनन करते, संतोषजनक उत्तर नहीं निकलने पर विचलित हो जाते। माता-पिता भी उनके प्रश्नो को सुनकर निरुत्तर हो जाते थे। उनकी वैराग्य प्रवृत्ति को देखकर उनके माता-पिता ने उनका विवाह सिरपुर निवासी अंजोरी दास की कन्या सफुरा से कर दिया। गृहस्थ कर्तव्यों का भार वहन करते हुए अंधविश्वास से जकड़े विषमताग्रस्त समाज के संबंध में उनका विचार प्रवाह एवं आचरण यथावत बना रहा।
एक बार जब घासीदास शांति की खोज में अपने भाई के साथ जगन्नाथपुरी जा रहे थे तो अचानक सारंगढ़ (वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य के रायगढ़ जिला में स्थित) से वापस लौट आए। उन्हें ऐसा बोध हुआ कि मन की शांति के लिए मठों और मंदिरों में भटकने से अच्छा है कि मन के भीतर ही उपाय ढूँढ़ा जाए। इसके लिए एकांतवास की आवश्यकता थी। उन्हांेने गिरौद के समीप छातापहाड़ पर औंरा-धौंरा वृक्ष के नीचे तपस्या कर सतनाम को आत्मसात किया। इस विलक्षण अनुभूति से जन-जन को परिचित कराने के लिए वे अग्रसर हो गए।
भंडारपुरी आकर गुरु घासीदास जी सतनाम का उपदेश देने लगे। उनके सात वचन सतनाम पंथ के सप्त-सिद्धांत के रुप में प्रतिष्ठित हैं। ये हैं- सतनाम पर विश्वास, मूर्तिपूजा का निषेध, जाति एवं वर्णभेद से परे, हिंसा का विरोध, व्यसन से मुक्ति, पर-स्त्रीगमन की वर्जना और दोपहर में खेत न जोतना। उन्होंने लोगों से कर्मयोग के सिद्धांत को अपनाने का आह्वान किया। उनका ऐसा मानना था कि गृहस्थाश्रम में रहते हुए हमें सामाजिक बुराईयों को दूर करके, सत्य, अहिंसा और परोपकार जैसे उच्च नैतिक आदर्शों का पालन करना चाहिए। उनके उपदेशों से समाज के असहाय तथा दलित लोगों में आत्मविश्वास, साहस, व्यक्तित्व की पहचान और अन्याय से जूझने की शक्ति का संचार हुआ।
गुरु घासीदास ने सदैव पूरे छत्तीसगढ़ का दौरा कर सतनाम का प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने सदैव दलित शोषित एवं पीड़ित लोगों का साथ दिया और उनका उत्थान किया। उन्होंने प्रतीक चिह्न श्वेत धर्मध्वजा, जैतखाम सहित की स्थापना को अनिवार्य बताया। रायपुर गजेटियर के अनुसार सन् 1820 से 1830 ई. के बीच तत्कालीन छत्तीससगढ़ अंचल की लगभग 12 प्रतिषत आबादी गुरु घासीदास की अनुयायी हो गई थी। इस घटना की भव्यता को देखकर जिसमें गुरु घासीदास ने पवित्र सतनाम का वृहद प्रचार-प्रसार किया था, उसे सरकारी पत्रों ने सतनाम आंदोलन लिखा।
गुरु घासीदास ने समानता, स्वतंत्रता और स्वाभिमान का संदेश दिया। वे मानव-मानव के भेद को पूर्णतः समाप्त कर देना चाहते थे। वे लोगों को चोरी, जुआ, हिंसा, व्यभिचार, नशाखोरी व मांसाहार का त्याग करने एवं नारी जाति के प्रति सम्मान का भाव रखने का संदेश देते थे। वे ‘सादा जीवन उच्च विचार एवं अतिथि देवो भव’ में विश्वास रखते थे। गुरु घासीदास के उपदेशों ने छत्तीसगढ़ अंचल के सभी वर्ग के लोगों को प्रभावित किया। उनके उपदेश किसी पंथ विशेष के लिए ही नहीं वरन समस्त मानव जाति के लिए थे।
गुरु घासीदास ऐसे पहले संत थे जिन्होंने छत्तीसगढ़ी में अपने अनुयायियों को सत्य का संदेश दिया। गिरौदपुरी में घासीदास जी का निवास गुरु निवास कहलाता है। यहाँ उनके पंथ की गुरु गद्दी स्थापित हुई, जहाँ प्रत्येक वर्ष दिसम्बर माह में उनके जन्म दिवस के अवसर पर अनुयायियों का वृहत मेला लगता है।
गुरु घासीदास की जन्मभूमि गिरौदपुरी में कुतुब मीनार से भी लगभग पाँच मीटर ऊँचे जैतखाम का निर्माण किया गया है। जैतखाम सत्य और सात्विक आचरण का प्रतीक माना जाता है। इस जैतखाम की ऊँचाई सतहत्तर मीटर है। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा इसके निर्माण पर लगभग बावन करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। इसे देखने हेतु देश-विदेश से श्रद्धालु और पर्यटक आते हैं। वायुदाब एवं भूकंपरोधी इस जैतखाम की बुनियाद साठ मीटर व्यास की है और इसके आधार तल पर दो हजार श्रद्धालुओं के बैठने की व्यवस्था के साथ एक विशाल सभागृह का भी निर्माण किया गया है।
गुरु घासीदास का व्यक्तित्व ऐसा प्रकाश-स्तंभ हैं, जिसमें सत्य, अहिंसा, करुणा तथा जीवन का ध्येय उदात्त रुप से प्रकट होता है। उनका जीवन-दर्शन युगों तक मानवता का संदेश देता रहेगा।
यही कारण है कि उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने सन् 1983 ई. में बिलासपुर में गुरु घासीदास विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। सन् 2009 ई. में इस विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया गया है। वर्तमान में यह छत्तीसगढ़ राज्य का एकमात्र केन्द्रीय विश्वविद्यालय है।
सन् 2000 ई. में नवीन राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में सामाजिक चेतना और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में गुरु घासीदास सम्मान स्थापित किया है।
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2.
क्रांतिवीर नारायण सिंह
सन् 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम में मातृभूमि के लिए मर मिटने वाले षहीदों में छत्तीसगढ़ के आदिवासी जननायक क्रांतिवीर नारायण सिंह का नाम सर्वाधिक प्रेरणास्पद है। प्रथम भारतीय स्वाधीनता संग्राम में छत्तीसगढ़ अंचल के प्रथम शहीद क्रांतिवीर नारायण सिंह का जन्म सन् 1795 ई. में सोनाखान के जमींदार परिवार में हुआ था। सोनाखान वर्तमान में छत्तीसगढ़ राज्य के बलौदा बाजार जिले में स्थित है।
नारायण सिंह के पिता श्री रामराय स्वतंत्र प्रकृति के स्वाभिमानी पुरुष थे। वे ब्रिटिश शासन से कई बार टक्कर ले चुके थे। रामराय ने सन् 1818-19 ई. के दौरान अंग्रेजों तथा भोंसलों के विरुद्ध तलवार उठाई थी जिसे कैप्टन मैक्सन ने दबा दिया। बिंझवार आदिवासियों के सामथ्र्य और संगठन शक्ति से जमींदार रामराय का दबदबा बना रहा और अंततः अंग्रेजों ने उनसे संधि कर ली थी।
नारायण सिंह बचपन से ही अपने पिताजी की भांति वीर, साहसी, निर्भीक, पराक्रमी एवं स्वतंत्रताप्रिय व्यक्ति थे। वे तीरंदाजी, तलवारबाजी और घुड़सवारी में निपुण थे। बीहड़ जंगलों में हिंसक जानवरों के मध्य नारायण सिंह निर्भीकतापूर्वक घूमते थे। नदी एवं तालाब में तैरना और पेड़ों पर चढ़ना उनका शौक था। वे दशहरा, होली, दीवाली जैसे धार्मिक उत्सवों में बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। उन्होंने अपने गुरुजी से धार्मिक ग्रंथों एवं नीति संबंधी ज्ञान की शिक्षा प्राप्त की। रामायण, महाभारत और गीता में उनकी विशेष रुचि थी। वे परोपकारी, मृदुभाषी न्यायप्रिय एवं मिलनसार स्वभाव के किंतु अत्याचार, अन्याय एवं शोषण के घोर विरोधी थे।
सन् 1830 ई. में रामराय जी की मृत्यु के पश्चात नारायण सिंह जमींदार बने। जमींदारी संभालने के बाद उन्होंने अपनी प्रजा के दुःख-दर्द को अपना दुःख-दर्द समझा और उसे दूर करने के अनेक उपाय किए। उनके पास एक बहुत ही सुन्दर और फुर्तीला कबरा घोड़ा था। वे अकसर उस पर सवार होकर अपने क्षेत्र का भ्रमण करते। लोगों की समस्याएँ सुनते और यथासंभव उन्हें दूर करने का प्रयास करते थे।
नारायण सिंह अन्य जमींदारों की तरह तड़क-भड़क से नहीं बल्कि एकदम सादा जीवन व्यतीत करते थे। उनका मकान कोई बड़ी हवेली या किला नहीं था बल्कि बाँस और मिट्टी से बना साधारण-सा मकान था। उन्होंने अपने क्षेत्र में कई तालाब खुदवाए और उनके चारों तरफ वृक्षारोपण करवाए। वे स्थानीय पंचायतों के माध्यम से ही लोगों की समस्याओं एवं विवादों का समाधान करते थे।
नारायण सिंह अपनी जमींदारी में सुख एवं शांति से जीवन व्यतीत कर रहे थे। सन् 1854 ई. में अंग्रेजी राज्य में विलय के बाद कैप्टन इलियट की रिपोर्ट के आधार पर इस क्षेत्र के लिए नए ढंग से टकोली (लगान) नियत की गई जिसका नारायण सिंह ने कड़ा विरोध किया। इससे रायपुर के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर इलियट उनके विरोधी हो गए।
सन् 1856 में सोनाखान तथा आसपास का क्षेत्र भीषण सूखे की चपेट में आ गया। लोग दाने-दाने के लिए तरसने लगे। वनवासियों को कंदमूल फल और यहाँ तक कि पानी मिलना भी कठिन हो गया। सूखा पीड़ित लोग सोनाखान में एकत्रित हुए। वे नारायण सिंह के नेतृत्व में कसडोल (वर्तमान में छत्तीसगढ़ राज्य के बलौदा बाजार जिले में ही सोनाखान के समीप स्थित) के व्यापारी माखन से संपर्क किए। उसका गोदाम अन्न से भरा था। नारायण सिंह ने माखन से आग्रह किया कि वह गरीब और बेबस वनवासी किसानों को खाने के लिए अन्न और बोने के लिए बीज अपने भंडार से दे दे। किसान उसे परंपरानुसार फसल आने पर ब्याज सहित वापस कर देंगे।
व्यापारी माखन जो अंग्रेजों का विशेष कृपापात्र था, नारायण सिंह की बात मानने से साफ इंकार कर दिया। नारायण सिंह ने व्यापारी माखन के भंडार के ताले तुड़वा दिए और उसमें से उतना ही अनाज निकाला जो गरीब किसानों के लिए आवश्यक था। नारायण सिंह ने जो कुछ भी किया था, उन्होंने तुरंत उसकी सूचना डिप्टी कमिश्नर को लिख कर दे दी थी। अंग्रेज सरकार तो पहले से ही उनके विरुद्ध किसी भी तरह से कार्यवाही करने के फिराक में लगी थी। व्यापारी माखन की शिकायत पर कैप्टन इलियट ने तत्काल नारायण सिंह के विरुद्ध गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया। अंग्रेज सरकार की नजर में यह कानून का उल्लंघन था। उनके लिए मानवीय संवेदना और हजारों किसानों के भूखों मरने का कोई मूल्य नहीं था।
24 अक्टूबर सन् 1856 ई. को नारायण सिंह को संबलपुर में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें चोरी और डकैती के जुर्म में बंदी बनाया गया। एक छोटे से मुकदमें की औपचारिकता निभाकर उन्हें रायपुर जेल में डाल दिया गया। सन् 1857 ई. की ऐतिहासिक स्वाधीनता संग्राम के दिनों में 28 अगस्त सन् 1857 ई. को नारायण सिंह अपने कुछ साथियों के साथ जेल से भाग निकले और सोनाखान पहुँच कर उन्होंने लगभग 500 विश्वस्त बंदुकधारियों की सेना बनाई और अंग्रेजों के विरुद्ध जबरदस्त मोर्चाबंदी कर करारी टक्कर दी। रायपुर के डिप्टी कमिश्नर ने उन्हें पकड़वाने के लिए नगद एक हजार रुपए का ईनाम घोषित किया था।
भीषण संघर्ष के बाद अंग्रेजों ने नारायण सिंह को 21 दिसम्बर सन् 1857 ई. को कूटनीति से कैद कर लिया। अंग्रेज सरकार द्वारा उन पर मुकदमा चलाया गया। शासन के विरुद्ध विद्रोह करने तथा युद्ध छेड़ने के अपराध में उन्हें फाँसी की सजा सुनाई गई।
10 दिसम्बर सन् 1857 ई. को रायपुर के प्रमुख एक चौक में सभी सिपाहियों के सामने क्रांतिवीर नारायण सिंह को फाँसी दे दी गई। ऐसा इसलिए किया गया था ताकि लोग आतंकित हो जाएँ और अंग्रेजों के विरुद्ध सिर उठाने का साहस न कर सकें। हालांकि अंग्रेजों का यह भ्रम मात्र 39 दिनों के भीतर ही दूर हो गया, जब 18 जनवरी सन् 1858 को रायपुर छावनी के थर्ड रेगुलर रेजीमेण्ट के मैग्जीन लश्कर ठा. हनुमान सिंह के नेतृत्व में सिपाहियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।
क्रांतिवीर नारायण सिंह भारत की आजादी की लड़ाई में इस क्षेत्र में युवाओं के प्रेरणास्रोत रहे। अत्याचार एवं अन्याय के विरुद्ध लगातार संघर्ष का आह्वान, निर्भीकता, चेतना जगाने और ग्रामीणों में उनके मूलभूत अधिकारों के प्रति जागृति उत्पन्न करने के प्रेरक कार्यों को दृष्टिगत रखते हुए नवीन राज्य की स्थापना के बाद छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में आदिवासी एवं पिछड़ा वर्ग में उत्थान के क्षेत्र में एक राज्य स्तरीय वीर नारायण सिंह सम्मान स्थापित किया है।
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3.
वीर सुरेंद्र साय
सन् 1857 ई. की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के दूरस्थ वनांचलों में फैलाने वालों में वीर सुरेंद्र साय का नाम अत्यंत श्रद्धापूर्वक लिया जाता है।
सुरेन्द्र साय का जन्म संबलपुर (वर्तमान में उड़िसा राज्य में स्थित) के क्षत्रीय राजवंश में खिंडा ग्राम में 23 जनवरी सन् 1809 ई. में हुआ था। उनके पिताजी का नाम धर्मजीत सिंह था। धर्मजीत सिंह के छह बेटे थे- सुरेंद्र साय, ध्रुव साय, उज्ज्वल साय, छबिल साय, जाज्जल्य और मेदनी साय। सभी भाई अस्त्र-शस्त्र चलाने में निपुण, देशभक्त और स्वतंत्रताप्रिय थे।
सन् 1803 ई. से ही अंग्रेज सरकार के अधिकारियों ने संबलपुर की राजनीति में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया था। संबलपुर के तत्कालीन नरेश महाराज साय का सन् 1827 ई. में देहांत हो जाने पर अंग्रेजों को अपना साम्राज्यवादी पंजा फैलाने का एक अच्छा अवसर मिल गया क्योंकि महाराज साय निःसंतान थे। ऐसी स्थिति में अंग्रेजों ने उनकी विधवा रानी मोहन कुमारी को गद्दी पर बैठा दिया। वह पूरी तरह से अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली थी।
अंग्रेज सरकार के अधिकारियों के प्रभाव में आकर रानी मोहन कुमारी ने आदिवासियों के सारे परंपरागत अधिकार और सुविधाएँ छीन लीं और राज कर्मचारियों द्वारा आदिवासियों का जमकर आर्थिक शोषण किया जाने लगा। इससे जनता का असंतोष बढ़ने लगा। ऐसी स्थिति में अंग्रेजों ने विधवा रानी मोहनकुमारी को अपदस्थ कर उसके दूर के रिश्तेदार नारायण सिंह को राजगद्दी पर बिठा दिया जबकि रानी के बाद राजगद्दी पर सुरेंद्र साय का अधिकार था। क्षेत्र की जनता भी उसे पसंद करती थी।
नारायण सिंह राज परिवार के दूर का रिश्तेदार था। वह अंग्रेजों का पिट्ठू था। उसने अंग्रेज सरकार के अधिकारियों के इषारे पर सुरेंद्र साय के भाईयों और विश्वस्त साथियों को चुन-चुनकर गिरफ्तार करवाया। नारायण सिंह का प्रशासन अत्यंत निर्बल और भ्रष्ट था। ऐसी स्थिति में सुरेंद्र साय ने उसका खुला विद्रोह कर दिया। लखनपुर के तत्कालीन जमींदार बलभद्र देव ने भी उनका खुलकर साथ दिया।
एक रात सुरेंद्र साय अपने साथियों के साथ देवरीगढ़ की गुफा में सो रहे थे। उसी समय नारायण सिंह ने उन पर हमला कर दिया। सुरेंद्र साय तो किसी तरह बच निकले पर बलभद्र देव की वहीं पर हत्या कर दी गई। इस हमले में नारायण सिंह को सहयोग करने वाले रामपुर के जमींदार को सुरेंद्र साय ने चेतावनी दी। इससे क्रोधित होकर उसने सुरेंद्र साय के गाँव को लूट लिया। जवाब में सुरेंद्र साय ने रामपुर पर हमला कर उसके किले को ध्वस्त कर दिया। रामपुर का जमींदार अपनी जान बचाकर भाग खड़ा हुआ। सुरेंद्र साय का यह आक्रमण अंग्रेजों के लिए एक चुनौती था।
अंग्रेजों ने सुरेंद्र साय को गिरफ्तार करने के लिए फौज भेजी और पटना के पास उन्हें घेर लिया। सुरेंद्र साय ने अपने साथियों के साथ तीर और तलवार से अंग्रेजों का जमकर मुकाबला किया किंतु वे ज्यादा देर तक न टिक सके। सुरेंद्र साय को उनके भाई उदंत साय और काका बलाराम साय के साथ गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर बिना कोई मुकदमा चलाए आजीवन कारावास की सजा भुगतने के लिए हजारीबाग जेल भेज दिया गया।
हजारीबाग जेल में उन्हें कठोर यातनाएँ दी जाती थी। यहीं पर सुरेन्द्र साय के काका बलाराम साय की मृत्यु हो गई। इसी बीच सन् 1849 ई. में राजा नारायण सिंह की मृत्यु हो गई। उसकी भी कोई संतान नहीं थी। इस बार तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने अपनी हड़प नीति से संबलपुर राज्य को पूरी तरह से अपने साम्राज्य में मिला लिया।
30 जुलाई सन् 1857 ई. को हजारीबाग में बर्दवान पल्टन ने बगावत कर जेल की दीवारें तोड़ दी। सुरेंद्र साय अपने भाईयों सहित संबलपुर की ओर भाग निकले। उन्होंने दो माह के भीतर ही लगभग दो हजार विश्वस्त सैनिकों की फौज तैयार कर ली।
7 अक्टूबर सन् 1857 ई. को सुरेंद्र साय ने अचानक ही संबलपुर के किले पर आक्रमण कर दिया। संबलपुर के तत्कालीन कमिष्नर कैप्टन ली ने घबराकर सुरेन्द्र साय के सामने संधि का प्रस्ताव रखा। सुरेंद्र साय ने उस पर विश्वास कर लिया जबकि कैप्टन ली ने उन्हें छलपूर्वक बंदी बना लिया। षीघ्र ही सुरेंद्र साय अंग्रेज अधिकारियों को चकमा देकर भाग निकले।
इस घटना के बाद सुरेंद्र साय ने छापामार युद्ध नीति अपनाई और छिप-छिप कर अचानक ब्रिटिश फौज तथा अधिकारियों पर हमला किया। उन्होंने कई अंग्रेज सैनिकों तथा अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया। उनकी ब्रिटिश फौज से कुडोपाली, सिंगोराघाटी, झारघाटी, कोलाबीरा, डिब्रीगढ़, रामपुर, देवरी, खरियार आदि कई जगह मुठभेड़ र्हुइं। पाँच वर्षों तक अंग्रेजी फौज उनके पीछे लगी रही पर, उन्हें गिरफ्तार न कर सकी।
सुरेन्द्र साय की गिरफ्तारी के लिए तत्कालीन अंग्रेज सरकार की ओर से एक हजार रूपए के नगद पुरस्कार की घोषणा भी की गई, किंतु इससे भी कोई लाभ नहीं हुआ। अंततः अंग्रेजों ने उनसे संधि कर लेना ही उचित समझा। अंग्रेजों ने उन्हें सन् 1862 में 4600 रुपए प्रतिवर्ष पेंशन के रूप में देने का वचन दिया और आग्रह किया कि वे अपनी सेना का विघटन कर दे। सुरेंद्र साय सहमत हो गए।
सुरेन्द्र साय ने अपनी सेना के विश्वस्त साथी कमल सिंह को सेना गठित करने के लिए कहा और उसकी मदद करने लगे। जब अंग्रेज सरकार के अधिकारियों को यह पता चला तो उन्होंने सुरेंद्र साय को उनके पुत्र, भाई एवं भतीजों सहित 23 जनवरी सन् 1864 ई. को गिरफ्तार कर लिया। उन्हें पहले रायपुर जेल में रखा गया। बाद में कुछ दिन नागपुर जेल में भी रखा गया। उनकी सारी सम्पत्ति जप्त कर ली गई और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। बाद में नागपुर जेल से हटाकर उन्हें असीरगढ़ के किले में डाल दिया गया।
यहीं पर 28 फरवरी सन् 1884 ई. को वीर सुरेन्द्र साय की मृत्यु हो गई। उन्हें सन् 1857 ई के भारतीय स्वाधीनता संग्राम का अंतिम शहीद माना जाता है।
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4.
वीर हनुमान सिंह
10 दिसम्बर सन् 1857 को सोनाखान के देशभक्त जमींदार क्रांतिवीर नारायण सिंह को राजद्रोह के अपराध में रायपुर के चैराहे पर फाँसी पर लटका दिया गया। इसे देखने के लिए रायपुर के सभी फौजियों को उपस्थित रहने आदेशित किया गया था। ऐसा इसलिए किया गया था ताकि लोग आतंकित हो जाएँ और अंग्रेजों के विरुद्ध सिर उठाने का साहस न कर सकें।
अंग्रेजों का यह भ्रम मात्र 39 दिनों बाद ही दूर हो गया जब 18 जनवरी सन् 1858 ई. को रायपुर में ठाकुर हनुमान सिंह के नेतृत्व में सिपाहियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। यद्यपि इस विद्रोह को मात्र छह-सात घंटे में ही दबा दिया गया लेकिन यह एक साहसिक प्रयास और ऐतिहासिक घटना थी।
रायपुर (वर्तमान में छत्तीसगढ़ की राजधानी) में उस समय फौजी छावनी थी। इसे थर्ड रेगुलर रेजीमेण्ट कहा जाता था। इसी रेजीमेण्ट में हनुमान सिंह मैग्जीन लश्कर के पद पर नियुक्त थे। जिस समय क्रांतिवीर नारायण सिंह को रायपुर के जयस्तम्भ चौक के पास सरेआम फाँसी पर लटकाया जा रहा था, उसी समय हनुमान सिंह ने अंग्रेजों से इसका बदला लेने की प्रतिज्ञा की थी। इसे पूरा करने के लिए उन्होंने अपने कुछ विश्वस्त साथियों से चर्चा की और योजनाबद्ध तरीके से 18 जनवरी सन् 1858 ई. की रात्रि साढ़े सात बजे सशस्त्र हमला बोल दिया।
देशी पैदल सेना की थर्ड रेजीमेण्ट के सार्जेण्ट मेजर सिडबेल उस समय अपने कक्ष में अकेले ही बैठे आराम कर रहे थे। वे बहुत ही तेज-तर्रार अफसर माने जाते थे। हनुमान सिंह बिना अनुमति लिए ही उस कक्ष में निर्भीकतापूर्वक घुस गए। उन्होंने पहले अंग्रेज सरकार को जमकर कोसा फिर तलवार से उन पर लगातार कई बार घातक प्रहार किए। कुछ ही देर में मेजर सिडबेल की मौत हो गई। इस सम्बन्ध में अंग्रेज अधिकारियों के द्वारा तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के समक्ष प्रस्तुत प्रतिवेदन के अनुसार सार्जेण्ट मेजर सिडबेल पर ठा. हनुमान सिंह ने नौ घातक हमले किए थे।
मेजर सिडबेल को मौत की नींद सुलाने के बाद ठा. हनुमान सिंह अपने कुछ साथियों के साथ छावनी पहुँचे। उन्होंने ऊँची आवाज में चिल्ला-चिल्लाकर अपने अन्य साथी सिपाहियों को भी इस विद्रोह में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया। दुर्भाग्य से सभी सिपाहियों ने उनका साथ नहीं दिया। इसी बीच सिडबेल की हत्या का समाचार पूरी छावनी में फैल चुका था। अंग्रेज अधिकारी सतर्क हो गए। उन्होंने हनुमान सिंह और उनके साथियों को चारों तरफ से घेर लिया।
हनुमान सिंह और उनके साथी 6-7 घंटे तक अंग्रेजों का मुकाबला करते रहे। अंत में उनके कारतूस खत्म हो गए। मौका देखकर हनुमान सिंह तो भागने में सफल हो गए लेकिन उनके सत्रह साथी अंगे्रजों द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए। गिरफ्तार किए गए सिपाहियों पर तत्कालीन अंग्रेज सरकार के द्वारा राष्ट्रद्रोह और बगावत के अपराध में मुकद्मा चलाया गया और सबको मृत्युदण्ड दिया गया।
22 फरवरी, सन् 1858 ई. को फौज के सभी सिपाहियों की उपस्थिति में इन्हें फाँसी पर लटका दिया गया। इन सत्रह शहीदों के नाम हैं- गाजी खान (हवलदार), अब्दुल हयात (गोलंदाज), मुल्लू (गोलंदाज), शिवरी नारायण (गोलंदाज), पन्नालाल (सिपाही), मातादीन (सिपाही), ठाकुर सिंह (सिपाही), अकबर हुसैन (सिपाही), बल्ली दुबे (सिपाही), लल्ला सिंह (सिपाही), बुद्धु (सिपाही), परमानंद (सिपाही), शोभाराम (सिपाही), दुर्गाप्रसाद (सिपाही), नाजर मोहम्मद (सिपाही), शिव गोविंद (सिपाही) और देवीदीन (सिपाही)।
हनुमान सिंह के नेतृत्व में किए गए विद्रोह के सत्रह शहीदों में सभी जाति, धर्म और सम्प्रदाय के लोग थे जो इस बात का प्रतीक है कि स्वतंत्रता की चाह और राष्ट्रहित की उत्कृष्ट भावना इस क्षेत्र के लोगों में कूट-कूट कर भरी थी।
कैप्टन स्मिथ के बयान से लगता है कि ठा. हनुमान सिंह ने छावनी में विद्रोह के दो दिन बाद ही फिर से 20 जनवरी सन् 1858 ई. की देर रात छत्तीसगढ़ क्षेत्र के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर के बंगले पर भी हमला करने की कोशिश की थी। उस समय बंगले में इस क्षेत्र के कई प्रमुख वरिष्ठ अधिकारी सो रहे थे। कैप्टन स्मिथ इन अधिकारियों की सुरक्षा हेतु नियुक्त थे। ठीक समय पर कैप्टन स्मिथ और उसके साथियों के जाग जाने से हनुमान सिंह को वहाँ से भागना पड़ा। अंग्रेज सरकार ने उनकी गिरफ्तारी के लिए पाँच सौ रुपए के नगद पुरस्कार की घोषणा भी की थी। इतनी बड़ी राशि के प्रलोभन के बावजूद हनुमान सिंह को कभी गिरफ्तार नहीं किया जा सका। उनके फरार होने की इस घटना के बाद उनका कोई विवरण प्राप्त नहीं होता।
ठा. हनुमान सिंह के जन्म और मृत्यु के सम्बन्ध में कोई भी प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती किंतु हनुमान सिंह सम्बन्ध में अंग्रेज अधिकारियों के द्वारा तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के समक्ष प्रस्तुत प्रतिवेदन के अनुसार वे बैसवाड़ा के राजपूत थे और सन् 1858 ई. में उनकी आयु 35 वर्ष थी। अर्थात् उनका जन्म सन् 1833 ई. माना जा सकता है।
कैप्टन स्मिथ के अनुसार जिस प्रकार हनुमान सिंह ने डिप्टी कमिश्नर के बंगले पर साहसपूर्ण आक्रमण किया, यदि उसे अपने उद्देश्य में सफलता मिल जाती तो निश्चय ही अंग्रेजी हुकूमत के अधिकारियों का इस शहर से सफाया हो जाता।
हनुमान सिंह ने शहीद मंगल पांडेय की भाँति रायपुर स्थित छावनी के सिपाहियों से क्रांति का आह्वान किया था। सफलता उनके हाथ नहीं लगी अन्यथा रायपुर भी देश के स्वाधीनता संग्राम के दिनों में महत्वपूर्ण नगर बन गया होता। फिर भी हनुमान सिंह का योगदान सदैव अविस्मरणीय रहेगा और भावी पीढ़ी को प्रेरणा देता रहेगा।
नवीन राज्य निर्माण के बाद छत्तीसगढ़ शासन के द्वारा उनकी स्मृति में खेल प्रशिक्षकों हेतु राज्य स्तरीय वीर हनुमान सिंह पुरस्कार की स्थापना की गई है।
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5.
वीर गुण्डाधूर
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में देश के जनजातीय अंचल के अनेक गुमनाम क्रांतिवीरों में बस्तर (छत्तीसगढ़) के गुण्डाधूर का नाम सर्वोपरि हैं। उनका जन्म बस्तर के नेतानार नामक गाँव में हुआ था। गुण्डाधूर सन् 1910 ई. के आदिवासी विद्रोह के प्रमुख सूत्रधार थे। धुरवा जनजाति के माटीपुत्र वीर गुण्डाधूर के नेतृत्व में बस्तर के देशभक्त आदिवासियों ने अंग्रेजी शासन को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए शासकीय संस्थाओं तथा संपत्तियों को निशाना बनाया।
सन् 1909-10 ई. में बस्तर में राजा रुद्रप्रताप देव राज करते थे। अंग्रेज सरकार ने वहाँ बैजनाथ पण्डा नाम के एक व्यक्ति को दीवान के पद पर नियुक्त किया था। दीवान बैजनाथ पण्डा अंग्रेजों का चापलूस था। वह आदिवासियों का जमकर आर्थिक शोषण करता और उन पर अत्याचार करता था। बैजनाथ पंडा अपने बेतुके आदेशों से बस्तर के भोले-भाले लोगों को परेशान करता था। अंग्रेजों के शोषण और दीवान की कुटिल नीतियों से बस्तर के लोग त्रस्त थे।
बस्तर के अधिकांश लोगों की आजीविका वन और वनोपज पर आधारित थी। वनोपज से ही वे अपना जीवनयापन करते थे। वनों पर उनका एकाधिकार था, परंतु तत्कालीन दीवान बैजनाथ पंडा ने ऐसी नीति अपनाई कि उनका अधिकार सीमित हो गया। वनवासी अपनी आवश्यकता की छोटी-छोटी वस्तुओं के लिए भी तरसने लगे। जंगल से दातौन और पत्तियाँ तक तोड़ने के लिए भी उन्हें सरकारी अनुमति लेनी पड़ती। बस्तर क्षेत्र में खोले जा रहे स्कूलों एवं पुलिस चैकियों के भवन निर्माण आदि के कार्यों में आदिवासियों से बेगार लिया जा रहा था।
रियासत के अधिकारी और कर्मचारी आम जनता से दुव्र्यवहार करते। व्यापारी, सूदखोर और षराब ठेकेदार लोगों का शोषण करते थे। लोगों को राजा से मिलने नहीं दिया जाता था। यह सब दीवान बैजनाथ पंडा की षह पर हो रहा था। धीरे-धीरे जनता में असंतोष पनपने लगा। राज परिवार के लोगों में से राजा के चाचा लाल कालेन्द्र सिंह और राजा की सौतेली माँ सुवर्ण कुँवर जनता में बहुत लोकप्रिय थे। सन् 1909 ई. में बस्तर की जनता ने इनके साथ मिलकर इंद्रावती नदी के तट पर एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया। हाथों में धनुष, बाण और फरसा लिए हजारों लोग इसमें शामिल हुए। इस सम्मेलन में सबने यह संकल्प लिया कि वे दीवान और अंग्रेजों के दमन व अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करेंगे। यहाँ सर्व सम्मति से एक उत्साही युवक गुण्डाधूर को नेता चुना गया। गुण्डाधूर पढ़ा-लिखा नहीं था, मगर उसमें नेतृत्व करने की क्षमता थी।
गुण्डाधूर का असली नाम सोमारू था। सन् 1910 ई. में जब बस्तर का संघर्ष हुआ, तब गुण्डाधूर की उम्र लगभग 35 वर्ष थी। गुण्डाधूर निडर, साहसी तथा सत्यवादी युवक था। आदिवासियों के स्वाभिमान तथा अधिकारों की रक्षा के लिए किसी से भी लड़ने का साहस उनमें था। गुण्डाधूर ने नेतृत्व संभालते ही विद्रोह के कार्यक्रम की रुपरेखा बनाई। इस विद्रोह को स्थानीय बोली में ‘भूमकाल’ कहा गया। इसका संदेश आम की टहनियों में मिर्च बाँधकर गाँव-गाँव में भेजा जाता था। स्थानीय लोग इसे ‘डारामिरी’ कहते और बड़े उत्साह से उसका स्वागत करते।
यह गुण्डाधूर की अद्भुत संगठन क्षमता का ही परिणाम था कि अल्प समय में ही हजारों लोग ‘भूमकाल आंदोलन’ से जुड़ गए। गुण्डाधूर ने अंग्रेजों, शोषक व्यापारियों, सूदखोरों, सरकार के पिट्ठू अधिकारियों, कर्मचारियों को सबक सिखाने की रुपरेखा बनाई। उनकी योजना में अंग्रेजों के संचार साधनों को नष्ट करना, सड़कों पर बाधाएँ खड़ी करना, थानों एवं अन्य सरकारी कार्यालयों को लूटना और उनमें आग लगाना शामिल था।
2 फरवरी सन् 1910 ई. को सबसे पहले बस्तर में इस ऐतिहासिक ‘भूमकाल’ की शुरुआत हुई। देखते ही देखते यह पूरे बस्तर में फैल गया। राजा ने इसकी सूचना अंग्रेजों को दी। अंग्रेज सरकार ने इस विद्रोह को कुचलने के लिए मेजर गेयर और डी बे्रट को 500 सशस्त्र सैनिकों के साथ बस्तर भेजा।
गुण्डाधूर ने मूरतसिंह बख्शी, बालाप्रसाद नाजिर, वीरसिंह बंदार, रानी सुवर्ण कुँवर तथा लाल कालेन्द्र सिंह के सहयोग से विद्रोह का कुशलतापूर्वक संचालन किया। आधुनिक हथियारों से लैस अंग्रेज सैनिकों का इन वनवासियों ने अपने डण्डा, भाला, तीर, तलवार और फरसा से जमकर मुकाबला किया। जगह-जगह मुठभेड़ हुई। सैकड़ों क्रांतिकारी तथा अंग्रेज सैनिक मारे गए। मई सन् 1910 ई. तक यह विद्रोह अंग्रेजों द्वारा क्रूरतापूर्वक कुचल दिया गया।
प्रख्यात इतिहासकार डॉ. रामकुमार बेहार के अनुसार- ‘‘सन् 1910 का बस्तर विद्रोह संघर्ष के क्षेत्र और गहनता दोनों ही दृष्टियों से व्यापक था। उत्तर से दक्षिण 136 किलोमीटर और पूर्व से पश्चिम 95 किलोमीटर का बस्तर क्षेत्र इस उथल-पुथल से प्रभावित था। गाँव-गाँव में आम की टहनी, लाल मिर्च, एक तीर घुमाए गए थे। लड़ाई के लिए एकत्र होना है, यही उसका सांकेतिक संदेश था।’’
गुण्डाधूर ने पुनः अपने सहयोगियों को एकत्रित कर अलनार में अंग्रेजों से मुकाबला किया। सोनू माँझी नामक एक लालची व्यक्ति के विश्वासघात करने पर उनके कई साथी मारे तथा पकड़े गए। पकडे़ गए लोगों को बाद में फाँसी दे दी गई। गुण्डाधूर किसी तरह से बच निकले। अंग्रेजों ने बस्तर का चप्पा-चप्पा छान मारा, लेकिन अंत तक गुण्डाधूर का पता नहीं लगा सके। अंग्रेजों ने उसे जीवित या मृत पकड़ने वाले को पुरस्कृत करने की घोषणा भी की परन्तु अंत तक वे पकड़े नहीं जा सके।
भूमकाल आंदोलन यद्यपि असफल हो गया पर इसके माध्यम से गुण्डाधूर ने आदिवासियों को उनके अधिकारों के प्रति जागृत कर दिया। उनके भीतर अपनी मिट्टी, अपने जंगल और देश के प्रति प्रेम का भाव जगा। असफलता के बावजूद गुण्डाधूर के नेतृत्व में किया गया यह विद्रोह आदिवासियों को अनेक सुविधाएँ दिलाने वाला साबित हुआ। वनों का आरक्षण कम किया गया। बेगारी पर कुछ हद तक रोक लगी।
गुण्डाधूर को बस्तर स्वाभिमान कहा जाता है। जनश्रुतियों तथा गीतों में उनकी वीरता का वर्णन मिलता है।
आओ हम सब मिलकर गाएँ, गाथा गुण्डाधूर की।
धीर था, वह वीर था, बस्तर का शमशीर था।।
छत्तीसगढ़ शासन के द्वारा वीर गुण्डाधूर की स्मृति में साहसिक कार्य तथा खेल के क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने के लिए राज्य स्तरीय गुण्डाधूर सम्मान स्थापित किया गया है।
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पं. माधवराव सप्रे
पं. माधवराव सप्रे मध्य भारत में राष्ट्रीय चेतना एवं साहित्यिक जागरण के पितामह कहे जाते हैं। वे एक महान पत्रकार, विचारक, लेखक तथा स्वतंत्रता सेनानी थे। आधुनिक हिन्दी साहित्य को पहली मौलिक कहानी देने का श्रेय पं. माधवराव सप्रे को प्राप्त है।
माधवराव सप्रे का जन्म वर्तमान मध्य प्रदेश के दमोह जिले के पथरिया नामक ग्राम में 19 जून सन् 1871 ई. को हुआ था। उनके पिताजी का नाम कोडोपंत तथा माताजी का नाम श्रीमती लक्ष्मीबाई था। जीविका की खोज में उनके पिताजी बिलासपुर आकर बस गए। यहीं पर उनकी प्रारंभिक शिक्षा संपन्न हुई।
हाईस्कूल की शिक्षा के लिए पं. माधवराव सप्रे जी रायपुर आए। यहाँ के गवर्नमेंट हाईस्कूल में पढ़ाई करते समय उनके हिन्दी शिक्षक श्री नंदलाल दुबे की प्रेरणा से उनमें हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ। उन्होंने ग्वालियर से एफ.ए. तथा नागपुर से बी.ए. की शिक्षा ग्रहण की।
पं. माधवराव सप्रे प्रतिभावान और कुषाग्र बुद्धि के थे। उनकी प्रतिभा और योग्यता से प्रभावित होकर ब्रिटिश शासन द्वारा उन्हें कई बार शासकीय नौकरी में उच्च पदों पर नियुक्ति हेतु आमंत्रित किया गया पर उन्होंने सरकारी नौकरी का प्रस्ताव ठुकरा दिया। उन्होंने आजीवन देश, साहित्य तथा समाज सेवा का संकल्प लिया था।
सन् 1899 ई. में सप्रेजी 50 रुपए मासिक वेतन पर पेण्ड्रा राजकुमार के शिक्षक नियुक्त हो गए। उसी धन से उन्होंने सन् 1900 ई. में अपने मित्र पं. वामनराव लाखे तथा रामराव चिंचोलकर के सहयोग से मासिक पत्र ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन प्रारंभ किया जो इस क्षेत्र का पहला पत्र था। इसके संपादक एवं प्रकाषक स्वयं सप्रे जी थे। इसकी की देशभर में प्रशंसा हुई परंतु अर्थाभाव के कारण यह तीन वर्ष ही चल सका और सन् 1902 ई. में बंद हो गया। अल्प समय में ही इसने ने स्वस्थ पत्रकारिता के मानदण्ड कायम किए।
हिन्दी साहित्य में समालोचना का प्रांरभ छत्तीसगढ़ मित्र के माध्यम से पं. माधवराव सप्रे ने ही किया। उनकी लिखी हुई कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ संभवतः हिन्दी की पहली मौलिक तथा श्रेष्ठ कहानियों मे से एक है। यह कहानी छत्तीसगढ़ मित्र में ही सर्वप्रथम प्रकाशित हुई थी।
सन् 1900 में ही पं. माधवराव सप्रे की प्रेरणा से कंकालीपारा, रायपुर में आनंद समाज वाचनालय की स्थापना हुई। वस्तुतः यह वाचनालय उस समय राष्ट्रीय चेतना और राजनीतिक विचार-विमर्श का एकमात्र केन्द्र था। सन् 1905 ई. में सप्रे जी ने नागपुर में ‘हिन्दी ग्रंथ प्रकाशन मंडली’ की स्थापना की।
पं. माधवराव सप्रे ने सन् 1906 में ‘हिन्दी ग्रंथमाला’ नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरु किया जो सन् 1908 में ब्रिटिश सरकार प्रेस एक्ट में बंद करवा दिया गया। इसके एक अंक में ‘स्वदेशी आंदोलन और बायकाट’ शीर्षक से एक लंबा निबंध प्रकाशित हुआ। इसने महात्मा गांधीजी से भी पहले स्वदेशी को अपनाने तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने की भावना देशभर में फैलाई। इसमें पं. माधवराव सप्रे ने ईस्ट इण्डिया कंपनी द्वारा भारत के लघु एवं कुटीर उद्योगों को समाप्त करने के षड्यंत्र का खुलासा किया था। सन् 1908 में यह पुस्तिका के रुप में प्रकाशित किया गया। देखते ही देखते इसकी हजारों प्रतियाँ हाथों-हाथ बिक गईं। इसे अंग्रेज सरकार ने जब्त कर लिया।
सन् 1905 ई. के बनारस अधिवेशन में पं. माधवराव सप्रे ने प्रदेश का प्रतिनिधित्व किया। यहीं उनकी भेट लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से हुई। वे तिलक जी के विचारों से बहुत प्रभावित थे। सप्रे जी उनकी विचारधारा का हिन्दी में प्रचार प्रसार करना चाहते थे। बाल गंगाधर तिलक ने सप्रे जी को अनुमति दे दी कि वे उनके मराठी के प्रखर पत्र ‘केसरी’ का नागपुर में हिन्दी संस्करण निकालें।
पं. माधवराव सप्रे ने अपने मित्रों की सहायता से पूँजी का प्रबंध किया और 13 अप्रैल सन् 1907 ई. से साप्ताहिक ‘हिन्दी केसरी’ का प्रकाशन प्रारंभ किया। यह उग्र विचारधारा का पत्र था। शीघ्र ही यह प्रदेश का सर्वाधिक प्रसार संख्या वाला पत्र बन गया। हिन्दी केसरी में काला पानी, सरकार की दमन नीति और भारत माता के पुत्रों का कर्तव्य, बम गोले का रहस्य जैसे राजद्रोहात्मक लेख लिखने के कारण उन्हें गिरफ्तार किया गया।
पारिवारिक दबाव में आकर पं. माधवराव सप्रे ने क्षमा माँगी और तीन माह बाद जेल से रिहा हो गए। इससे उन्हें अत्यंत ग्लानि हुई। पश्चाताप की अग्नि में जलकर उनका व्यक्तित्व तपस्यामय हो गया था। उन्होंने सन् 1909 ई. में रायपुर में रामदास मठ की स्थापना की। सन् 1910 ई. से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके ओजस्वी लेखों का पुनः प्रकाशन प्रारंभ हो गया।
उस समय की श्रेष्ठ पत्रिकाओं में से एक ‘सरस्वती’ में पं. माधवराव सप्रे के कई लेख छद्म नामों से प्रकाशित हुए। उन्होंने गुरु रामदास के ‘दासबोध’ का मराठी से हिन्दी में अनुवाद किया तथा श्रीराम चरित्र, एकनाथ चरित्र, आत्म विद्या, भारतीय युद्ध नामक ग्रंथों की रचना की। उन्होंने बाल गंगाधर तिलक के मराठी में लिखे ‘गीता रहस्य’ का हिन्दी में अनुवाद किया। नई पीढ़ी के लिए उन्होंने प्रेरक साहित्य की रचना की।
पं. माधवराव सप्रे शिक्षा का माध्यम हिन्दी को बनाने के पक्षधर थे। उन्होंने पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली के दोषों को सामने रखा। वे भारत को एक स्वतंत्र संपन्न एवं आत्मनिर्भर राष्ट्र के रुप में देखना चाहते थे। इसके लिए वे स्वदेशी परंपरा, विचार व वस्तुओं को अपनाने पर जोर देते और विदेशी के बहिष्कार की अपील करते थे। वे देशवासियों को अपने अधिकारों के प्रति जागृत करने के लिए पे्ररित और कर्तव्यों के निर्वाहन के लिए जागरुक करते थे। वे अस्पृष्यता को एक सामाजिक कलंक मानते थे।
पं. माधवराव सप्रे लड़कियों की शिक्षा तथा स्त्री-स्वातंत्र्य के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने सन् 1912 ई. में रायपुर में जानकीदेवी कन्या पाठशाला की स्थापना की। सन् 1921 में गाँधीजी के आह्वान पर सरकारी स्कूल छोड़ने वाले विद्यार्थियों की शिक्षा-दीक्षा हेतु उन्होंने रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय तथा अनाथ बच्चों हेतु हिन्दू अनाथालय की स्थापना करवायी।
सन् 1918 ई. में रायपुर में प्रांतीय हिन्दी सम्मेलन की स्थापना में सप्रे जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। सन् 1920 में सप्रे जी के अथक प्रयासों से ही जबलपुर में साप्ताहिक ‘कर्मवीर’ का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसके संपादक पं. माखनलाल चतुर्वेदी थे। सप्रे जी के प्रयासों से ही नागपुर से ‘संकल्प’ नामक पत्र का प्रकाशन हुआ। इसके संपादक पं. प्रयागदत्त शुक्ल थे।
पं. माधवराव सप्रे उच्चकोटि के प्रवचनकर्ता थे। वे छत्तीसगढ़ के कई नगरों में अपने प्रवचन के माध्यम से राजनीतिक जागृति उत्पन्न करते रहे। सन् 1924 में सप्रे जी देहरादून में आयोजित अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। वे जीवन पर्यंत साहित्य साधना में लीन रहे।
23 अप्रैल सन् 1926 ई. को पं. माधवराव सप्रे जी का रायपुर में देहावसान हो गया।
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पं. वामनराव लाखे
छत्तीसगढ़ अंचल में सहकारिता के जनक माने जाने वाले पं. वामनराव लाखे का जन्म 17 सितम्बर सन् 1872 ई. को रायपुर में हुआ था। उनके पिताजी का नाम पं. बलीराम गोविन्दराव लाखे था। वे पहले अत्यंत गरीब थे किंतु कठोर परिश्रम से उन्होंने धन अर्जित किया और कई गाँव खरीदे। वामनराव लाखे के जन्म के समय तक उनके परिवार की गणना समृद्ध घरानों में होने लगी थी।
वामनराव लाखे ने मैट्रिक तक की पढ़ाई रायपुर में की। पं. माधवराव सप्रे उनके सहपाठी तथा अभिन्न मित्र थे। सन् 1898 में उन्होंने नागपुर के फिलिप कॉलेज से बी.ए. की परीक्षा पास की। सन् 1900 ई. में पं. माधवराव सप्रे ने छत्तीसगढ़ मित्र नामक मासिक पत्र का प्रकाशन किया। पं. वामनराव लाखे इसके प्रकाशक तथा स्वामी थे। यह छत्तीसगढ़ अंचल का पहला पत्र था। इसके माध्यम से क्षेत्र में साहित्य एवं राष्ट्रीय जागरण का युग आरंभ हुआ।
पं. वामनराव लाखे सन् 1904 ई. में कानून की पढ़ाई पूरी कर रायपुर में वकालत करने लगे। उन्होंने वकालत को जनसेवा का एक सशक्त माध्यम बनाया। वे कई वर्षों तक रायपुर के अधिवक्ता संघ के अध्यक्ष रहे। उनकी पत्नी श्रीमती जानकी बाई ने भी घरेलू कामकाज के साथ-साथ लाखेजी की समाज सेवा के कार्य में हमेशा साथ दिया। यही कारण है कि वे कई बार बूढ़ापारा वार्ड से रायपुर नगर पालिका के सदस्य चुने गए। बाद में पं. वामनराव लाखे दो बार नगरपालिका के अध्यक्ष भी निर्वाचित हुए।
अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में पं. वामनराव लाखे घर से नगर पालिका कार्यालय तक पैदल ही आना-जाना करते। रास्ते में लोग उनसे अपनी निजी व सामाजिक समस्याओं को लेकर मिलते और लाखे जी उनकी बातें सुनते और समस्याओं के निराकरण हेतु उचित पहल भी करते।
क्षेत्र के गरीब किसानों को साहूकारों के चंगुल से मुक्त कर सहकारी सिद्धांतों के आधार पर उन्हें आर्थिक मदद करने के उद्देश्य से पं. वामनराव लाखे ने सन् 1913 ई. में रायपुर में को-आपरेटिव सेण्ट्रल बैंक की स्थापना की। वे स्थापना से सन् 1936 ई. तक इसके अवैतनिक सचिव तथा सन् 1937 ई. से 1940 ई. तक अध्यक्ष रहे। उन्हीं के प्रयासों से ही बैंक का अपना भवन बन सका।
सन् 1915 ई. में रायपुर में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक तथा श्रीमती एनीबीसेण्ट की प्रेरणा से होमरुल लीग की स्थापना की गई। पं. वामनराव लाखे इसके संस्थापकों में से थे।
सन् 1915 ई. में ही पं. सुन्दरलाल शर्मा के प्रयासों से विशाल किसान सम्मेलन का आयोजन किया गया था जिसकी अध्यक्षता पं. वामनराव लाखे ने ही की थी। निर्धन किसानों के कल्याण हेतु किए गए लाखे जी के कार्यों से प्रसन्न होकर तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘राय साहब’ की उपाधि दी थी। इसे उन्होंने सन् 1920 ई. में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधीजी के आह्वान पर असहयोग आंदोलन में भाग लेते हुए लौटा दिया था।
सन् 1918 ई. में उनके क्षेत्र में एन्फ्लूएंजा की महामारी फैल गई। इस समय पं. वामनराव लाखे ने बीमार लोगों की तन-मन-धन से सेवा की। इनकी निःस्वार्थ सेवाभाव के कारण लोगों ने उन्हें ‘लोकप्रिय’ की उपाधि से विभूषित किया था।
सन् 1920 ई. के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ऐतिहासिक नागपुर अधिवेशन में महात्मा गाँधीजी ने असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव रखा। इस अधिवेशन में पं. वामनराव लाखे भी सम्मिलित हुए थे। अधिवेशन से लौटकर वे रायपुर में असहयोग आंदोलन के संचालन में सक्रिय हो गए। उन्होंने स्वदेशी तथा खादी का प्रचार किया। सन् 1921 ई. पं. माधवराव सप्रे ने राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की। लाखे जी इसके मंत्री बने। रावणभाँठा में एक विशाल खादी प्रदर्षनी आयोजित की गई। पं. वामनराव लाखे उस प्रदर्शनी के संयोजक थे।
सन् 1922 ई. में रायपुर जिला राजनीतिक परिषद के आयोजन में पं. वामनराव लाखे प्रमुख आयोजकों में से थे। इसी साल वे रायपुर जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गए।
सन् 1930 ई. में गाँधीजी द्वारा शुरु किए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन का रायपुर में नेतृत्व पं. वामनराव लाखे, प्यारेलाल सिंह, मौलाना अब्दुल रऊफ, महंत लक्ष्मीनारायण दास तथा षिवदास डागा ने किया। इन्हें ‘पाँच पाण्डव’ कहा जाता था। इनमें से लाखे जी को ‘युधिष्ठिर’ कहा जाता था। इससे स्पष्ट होता है कि उस समय उनकी गणना उच्च कोटि के नेताओं में होती थी।
पं. वामनराव लाखे को आरंग (रायपुर के समीप स्थित) में एक जनसभा में अंग्रेजी शासन के खिलाफ भाषण देने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें एक साल की सजा तथा तीन हजार रुपए का जुर्माना सुनाया गया। सन् 1941 ई. के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेने के कारण उन्हें फिर से सिमगा से गिरफ्तार कर लिया गया तथा चार माह के कारावास की सजा दी गई।
पं. वामनराव लाखे ने सन् 1945 ई. में बलौदाबाजार में किसान को-आपरेटिव राइस मिल की स्थापना की। उन्होंने रायपुर में शिक्षा के विकास में भी उल्लेखनीय कार्य किया। उन्होंने यहाँ एम. व्ही. एम. स्कूल की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यही कारण है कि उनकी मृत्यु के बाद इस स्कूल का नाम बदलकर श्री वामनराव लाखे उच्चतर माध्यमिक शाला, रायपुर कर दिया गया। नगरपालिका परिषद के अध्यक्ष की हैसियत से उन्होंने नगर की अन्य कई शिक्षण संस्थाओं को भी सहयोग दिया।
15 अगस्त सन् 1947 ई. को भारत स्वतंत्र हुआ। इस दिन रायपुर के मुख्य कार्यक्रम में पं. वामनराव लाखे ने ही झण्डारोहण किया था। सन् 1948 ई. में वे प्रांतीय सहकारी बैंक की बैठक में शामिल होने के लिए नागपुर गए और अस्वस्थ हो गए। यहीं उपचार के दौरान ही 21 अगस्त सन् 1948 ई. को उनका देहान्त हो गया।
पं. वामनराव लाखे छत्तीसगढ़ के उन महान सपूतों में से एक हैं, जिनकी सेवाओं का यह अंचल सदैव ऋणी रहेगा।
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8.
पं. रविशंकर शुक्ल
मध्य प्रदेश के निर्माता के रूप में विख्यात पं. रविशंकर शुक्ल का जन्म 2 अगस्त सन् 1877 ई. को सागर में हुआ था। उनके पिताजी का नाम जगन्नाथ प्रसाद तथा माताजी का नाम तुलसी देवी था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा सागर में ही हुई। बाद में उनके पिताजी अपने कारोबार के सिलसिले में राजनांदगाँव चले गए। कुछ समय बाद वे रायपुर में आकर बस गए। रविशंकर शुक्ल ने सन् 1895 ई. में रायपुर में मैट्रिक, सन् 1897 ई. में जबलपुर में इंटरमीडिएट, सन् 1899 ई. में नागपुर के हिसलॉप कॉलेज में बी.ए. की परीक्षा पास की। बाद में उन्होंने जबलपुर से एल. एल. बी. की परीक्षा उत्तीर्ण की।
बी.ए. करने के बाद रविशंकर शुक्ल की नियुक्ति चीफ कमिश्नर के दफ्तर में हुई। सन् 1901 में उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी। वे जबलपुर के हितकारिणी स्कूल में शिक्षक बन गए और कानून की शिक्षा ग्रहण करने लगे। सन् 1902 में रविशंकर शुक्ल का विवाह भवानी देवी से हुआ। विवाह के बाद वे खैरागढ़ आ गए। यहाँ उनकी नियुक्ति एक हाईस्कूल में प्राचार्य के पद पर हो गई। उन्होंने बस्तर के युवराज रुद्रप्रताप देव, कवर्धा के युवराज यदुनंदन सिंह तथा पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी को पढ़ाया था। वे एक कुशल अध्यापक थे।
सन् 1907 ई. में रविशंकर शुक्ल ने राजनांदगाँव में वकालत शुरु की। कुछ ही महीनों बाद वे रायपुर आकर वकालत करने लगे। इस बीच उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेना शुरु कर दिया। वे सन् 1910 ई. में प्रयाग कांग्रेस अधिवेशन में सम्मिलित हुए। राष्ट्रसेवा के उद्देश्य से उन्होंने सक्रिय राजनीति में प्रवेश लिया।
सन् 1912 ई. में रविशंकर शुक्ल के प्रयासों से कान्य कुब्ज महासभा की स्थापना हुई। उन्होंने रायपुर में कान्य कुब्ज छात्रावास की स्थापना की तथा कान्य कुब्ज मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरु किया।
वे लोकमान्य बाल गंगाधार तिलक के विचारों से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने तिलक और एनीबीसेण्ट द्वारा संचालित होमरुल लीग आंदोलन का समर्थन किया। रोलेक्ट एक्ट और जलियाँवाला बाग हत्याकांड से आहत होकर उन्होंने अपना संपूर्ण समय और शक्ति देश को आजाद कराने के लिए लगाने का संकल्प किया।
रविशंकर शुक्ल ने सन् 1920 ई. में कोलकाता में हुए कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में सक्रिय रुप से भाग लिया और स्वाधीनता आंदोलन को मध्यप्रांत में प्रसारित किया। विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार एवं स्वदेशी के प्रचार हेतु उन्होंने स्वयं खादी वस्त्र धारण करना प्रारंभ किया। अंग्रेजी शिक्षा के बहिष्कार एवं राष्ट्रीय शिक्षा के प्रचार के लिए उन्होंने जनवरी सन् 1921 ई. में रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना करवायी।
मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का पाँचवा अधिवेशन 4 मार्च सन् 1922 को नागपुर में शुक्ल जी की अध्यक्षता में हुआ। उन्होंने इसमें हिन्दी को देश की राजभाषा बनाने का विचार प्रमुखता के साथ रखा। उन्होंने ‘आयरलैण्ड का इतिहास’ लिखा जो ‘उत्थान’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ।
सन् 1921 में शुक्ल जी को अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति का सदस्य चुना गया। इसी वर्ष उनका रायपुर जिला परिषद् के सदस्य के रुप में चुनाव किया गया। सन् 1922 में रायपुर जिला परिषद के सम्मेलन में कुछ अंग्रेज अधिकारियों को बिना टिकट के प्रवेश नहीं देने पर उन्हें गिरफ्तार किया गया। इससे नगर में उत्तेजना फैल गई। बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया।
सन् 1927 से 1936 ई. तक शुक्ल जी रायपुर जिला परिषद् के अध्यक्ष रहे। उन्होंने परिषद् के माध्यम से राष्ट्रीय जागरण एवं स्वतंत्रता संग्राम के लिए क्षेत्र में वातावरण तैयार किया। अध्यक्ष की हैसियत से उन्होंने जिले भर में स्कूलों का जाल फैला दिया। उन्होंने स्कूली बच्चों में राष्ट्रीयता की भावना जगाने के लिए स्कूलों में वन्दे मातरम् का गायन और राष्ट्रीय झण्डे को फहराना अनिवार्य कर दिया था। सन् 1924 में वे पहली बार प्रांतीय विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए।
सन् 1926 में उन्हें नागपुर विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी का सदस्य मनोनीत किया गया। उन्होंने गाँधीजी द्वारा चलाए गए नमक सत्याग्रह तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन का रायपुर में नेतृत्व उन्होंने किया और कई बार जेल की यातनाएँ सहीं। नवम्बर सन् 1933 ई. में गाँधीजी के छत्तीसगढ़ प्रवास में वे शुक्ल जी के बूढ़ापारा स्थित निवास में ठहरे थे।
क्षेत्र में राजनैतिक व सामाजिक चेतना जागृत करने के लिए सन् 1935 ई. में उन्होंने साप्ताहिक महाकौशल का प्रकाशन आरंभ किया। शुक्ल जी सन् 1936 ई. में विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए तथा डॉ. खरे मंत्रिमंडल में शिक्षामंत्री बने। उन्होंने महात्मा गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा सिद्धांत के अनुरुप विद्यामंदिर योजना शुरु की। पहली विद्यामंदिर का शिलान्यास गाँधीजी ने किया। इस योजना का मूलमंत्र शिक्षा को स्वावलंबी बनाना था।
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों द्वारा अपनायी जा रही नीति के विरोध में गाँधीजी के आदेश पर उन्होंने सन् 1939 ई. में मंत्रिमंडल से त्याग पत्र दे दिया। सन् 1940 ई. में गाँधीजी के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेते हुए वे पुनः गिरफ्तार किए गए। सन् 1942 ई. में भारत छोड़ो आंदोलन का छत्तीसगढ़ में शुक्लजी ने ही नेतृत्व किया। सन् 1942 ई. को उन्हें मलकापुर रेलवे स्टेशन में गिरफ्तार किया गया। 13 जून सन् 1945 ई. को उन्हें जेल से रिहा किया गया।
सन् 1946 ई. के विधानसभा चुनाव में मध्यप्रांत में कांग्रेस को भारी बहुमत मिला। पं. रविशंकर शुक्ल के नेतृत्व में मंत्रीमंडल का गठन किया गया। 15 अगस्त सन् 1947 ई. को आजादी के अवसर पर शुक्ल जी ने नागपुर के सीताबर्डी के किले में तिरंगा झण्डा फहराया। सन् 1956 ई. तक वे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। देश की स्वतंत्रता के बाद शुक्ल जी ने छत्तीसगढ़ की सभी चैदह रियासतों का मध्य प्रदेश में विलय कराने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने सागर में हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, रायपुर में संस्कृत, विज्ञान और आयुर्वेदिक महाविद्यालय की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
संविधान सभा के सदस्य के रुप में पं. रविशंकर शुक्ल ने संविधान के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 1 नवम्बर सन् 1956 ई. को नए राज्य मध्यप्रदेश का गठन हुआ तथा पं. रविशंकर शुक्ल ही नए राज्य के मुख्यमंत्री बने। उन्होंने राज्य के सर्वांगीण विकास के लिए अनेक योजनाएँ बनाई तथा उनका समुचित क्रियान्वयन किया। 31 दिसम्बर सन् 1956 ई. को हृदयाघात से उनका देहावसान हो गया।
छत्तीसगढ़ की उन्नति और यहाँ सामाजिक सद्भाव बनाए रखने के लिए उनके प्रयास लम्बे समय तक याद किए जाएँगे। शिक्षा के क्षेत्र में उनके द्वारा किए गए उल्लेखनीय कार्यों के कारण कालान्तर में रायपुर में स्थापित विश्वविद्यालय का नामकरण उन्हीं के नाम पर किया गया है। छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षिक क्षेत्र में अभिनव प्रयत्नों के लिए पं. रविशंकर शुक्ल सम्मान स्थापित किया है।
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9.
पं. सुन्दरलाल शर्मा
जिस प्रकार भारत में राष्ट्रीय जागरण का अग्रदूत राजा राममोहन राय को माना जाता है ठीक उसी तरह छत्तीसगढ़ अंचल में राष्ट्रीय जागरण के प्रणेता पं. सुन्दरलाल शर्मा को माना जाता है। उन्होंने ही इस क्षेत्र में सामाजिक और राष्ट्रीय आंदोलन का सूत्रपात किया था। बहुमुखी प्रतिभा के धनी पं. सुन्दरलाल शर्मा की ख्याति एक महान साहित्यकार, मूर्तिकार, चित्रकार, शिक्षाविद, समाज सुधारक, संघर्षशील नेता एवं प्रखर स्वतंत्रता सेनानी के रूप में है।
पं. सुन्दरलाल शर्मा का जन्म 21 दिसम्बर सन् 1881 ई. को राजिम के पास महानदी के तटवर्ती ग्राम चमसुर (चंद्रसूर) में हुआ था। उनके पिता पं. जियालाल तिवारी तत्कालीन कांकेर रियासत में विधि सलाहकार थे। उन दिनों छत्तीसगढ़ अंचल में शिक्षा का प्रचार-प्रसार बहुत ही कम था। इस कारण सुंदरलाल शर्मा की विधिवत स्कूली शिक्षा केवल प्राथमिक स्तर तक ही हुई। पढ़ाई में रुचि होने से उन्होंने स्वाध्याय से ही संस्कृत, बांग्ला, मराठी, अंग्रेजी, उर्दू, उड़िया आदि कई भाषाएँ भी सीख लीं।
पं. सुन्दरलाल शर्मा ने किशोरावस्था में ही कविताएँ, लेख एवं नाटक आदि लिखना प्रारंभ कर दिया था। वे आशुकवि थे। नाट्य-लेखन तथा रंगमंच में उनकी गहरी रुचि थी। सन् 1898 ई. में उन्होंने पं. विश्वनाथ दुबे के सहयोग से राजिम में कवि समाज की स्थापना की। यह ऐसी पहली साहित्यिक संस्था थी जिसने छत्तीसगढ़ अंचल में साहित्यिक चेतना जागृत की।
पं. सुन्दरलाल शर्मा सन् 1903 ई. में अखिल भारतीय कांग्रेस के सदस्य बने। उन्होंने सन् 1907 ई. में सूरत (गुजरात) में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में जाने वाले छत्तीसगढ़ के युवाआंे का नेतृत्व किया।
सूरत से लौटते ही पं. सुन्दरलाल शर्मा ने नारायणराव मेघावाले तथा कुछ अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार-प्रसार का आंदोलन शुरू किया। उनका मानना था कि जब तक देश के लोग स्वदेश में बनी वस्तुओं का उपयोग नहीं करेंगे, तब तक न तो गाँवों की गरीबी मिटेगी और न ही राष्ट्रीय भावनाओं का जागरण होगा। इस हेतु पं. सुन्दरलाल शर्मा ने अपनी जमीन जायदाद बेचकर राजिम, धमतरी और रायपुर में स्वदेशी वस्तुओं की कई दुकानें खोलीं तथा लगातार घाटा होने पर भी उन्हें वर्षों चलाया।
अगस्त सन् 1920 ई. में बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव के नेतृत्व में कण्डेल ग्राम में नहर सत्याग्रह आरंभ हुआ। यह भारत का प्रथम सत्याग्रह आंदोलन था जिसे स्वयं किसानों ने संगठित होकर चलाया। इस समय पं. सुन्दरलाल शर्मा के प्रयासों से 20 दिसम्बर सन् 1920 ई. को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का पहली बार छत्तीसगढ़ आगमन हुआ।
पं. सुन्दरलाल शर्मा हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे। सन् 1925 ई. में धमतरी में हिन्दू-मुस्लिम दंगा हुआ। शर्मा जी ने दोनों पक्षों में समझौता कर इसे षांत किया।
26 जनवरी सन् 1930 ई. का दिन पूरे देश में स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया गया। धमतरी में इस दिन विराट आयोजन कराने का श्रेय शर्मा जी को है। सन् 1930 ई. में जंगल सत्याग्रह का नेतृत्व करने के कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तथा राजद्रोह का अभियोग लगाकर दो वर्षों का कठोर कारावास दिया गया।
सन् 1931 ई. में गांधी-इरविन समझौते के कारण पं. सुन्दरलाल शर्मा को जेल से मुक्त कर दिया गया। स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी के कारण उन्हें कई बार जेल यात्राएँ करनी पड़ीं तथा ब्रिटिश सरकार के जुल्म का शिकार होना पड़ा। वे सत्यवादी थे। उनका विचार था- ‘‘सत्य के लिए डरो मत, चाहे जियो या मरो।’’
गाँवों से अज्ञानता, अंधविश्वास तथा कुरीतियों को मिटाने के लिए पं. सुन्दरलाल शर्मा शिक्षा के प्रचार-प्रसार को आवश्यक समझते थे। इस हेतु उन्होंने राजिम में एक संस्कृत पाठशाला तथा एक वाचनालय स्थापित किया था। रायपुर के बाह्मण पारा में ‘बाल समाज पुस्तकालय’ की स्थापना का श्रेय भी उन्हें ही दिया जाता है।
पं. सुन्दरलाल शर्मा ऐसे पहले विचारक थे जिनकी स्पष्ट मान्यता थी कि दलितों के भी समाज में सवर्णों की भाँति राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक अधिकार हैं। वे दलितों को समाज में बराबरी का दर्जा देने के लिए सतत् संघर्षशील थे। अस्पृश्यता को वे भारत की गुलामी तथा हिन्दू समाज के पतन का प्रमुख कारण मानते थे। उन्होंने दलितों के उत्थान एवं संगठन के लिए गाँव-गाँव घूमकर उनकी हीन भावना दूर की। उनसे यज्ञ करवाया तथा उन्हें जनेऊ पहनाकर समाज में सवर्णों की बराबरी का दर्जा प्रदान किया। जनेऊ पहनाते समय उनसे प्रतिज्ञा करा ली जाती थी कि वे मादक द्रव्य तथा माँस का सेवन नहीं करेंगे।
अछूतोद्धार के क्षेत्र में किए गए उनके उल्लेखनीय कार्य के कारण उन्हें छत्तीसगढ़ का गांधी कहा जाता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी का जब दूसरी बार छत्तीसगढ़ आगमन हुआ तो उन्होंने पं. सुन्दरलाल शर्मा के द्वारा किए गए कार्यों को देखकर कहा था- ‘‘सुन्दरलाल जी तो हरिजनोद्धार के इस कार्य में मेरे भी गुरु निकले। समाज सुधार का उनका यह प्रयास प्रशंसनीय एवं अभिनंदनीय है।’’
सुन्दरलाल शर्मा एक महान साहित्यकार थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ी बोली को भाषा का रूप दिलाने के लिए अथक प्रयास किया। इस हेतु उन्होंने स्वयं हिन्दी तथा छत्तीसगढ़ी में कई ग्रंथों की रचना की। इनमें प्रमुख हैं- प्रह्लाद चरित्र, करुणा पचीसी, प्रलाप पदावली, श्री रघुराज गुण कीर्तन, ध्रुव चरित्र, छत्तीसगढ़ी दानलीला। उनकी लिखी छत्तीसगढ़ी दानलीला तो इतनी लोकप्रिय हुई कि आज भी लोग गाँव-गाँव में उसे बड़े शौक से गाते हैं। यह छत्तीसगढ़ी का प्रथम प्रबंध काव्य है। वे अपनी कविताओं में ‘सुन्दर कवि’ उपनाम का उपयोग करते थे।
पं. सुन्दरलाल शर्मा एक अच्छे चित्रकार तथा मूर्तिकार थे। वे प्राकृतिक दृश्यों का सुंदर चित्रांकन करते थे। वे कृषि कार्य में भी अपने विचारों के अनुकूल वैज्ञानिक एवं नवीन पद्धति का उपयोग करते थे। जीवन के अंतिम वर्षों में वे पद की लालसा से दूर अपने गाँव में कृषि कार्य में संलग्न रहे।
28 दिसम्बर सन् 1940 को उनका निधन हो गया। हम उन्हें छत्तीसगढ़ के गांधी के रूप में हमेशा याद करते रहेंगे।
छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में साहित्य एवं आंचलिक साहित्य रचना के लिए एक राज्य स्तरीय पं. सुन्दरलाल शर्मा सम्मान स्थापित किया है।
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10.
पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय
खड़ी बोली हिन्दी तथा देवनागरी लिपि के प्रचार-प्रसार में अपना सर्वस्व अर्पित करने वालों में पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय का नाम अत्यंत श्रद्धापूर्वक लिया जाता है। उनका जन्म जांजगीर-चांपा जिले की धार्मिक नगरी चन्द्रपुर के निकट स्थित ग्राम बालपुर में 4 जनवरी सन् 1887 को हुआ था। उनके पिताजी का नाम पं. चिंतामणि तथा माताजी का नाम देवहुति देवी था। वे पद्मश्री पं. मुकुटधर पाण्डेय के अग्रज तथा पुरुषोत्तम पाण्डेय के अनुज थे।
लोचन प्रसाद की प्रारंभिक शिक्षा गृहग्राम बालपुर में ही संपन्न हुई। उन्होंने सन् 1898 ई. में प्रायमरी और सन् 1902 ई. में सम्बलपुर हाईस्कूल से मिडिल स्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की थी। सन् 1905 ई. में कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्रवेषिका पास कर वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने सेंट्रल हिन्दू कॉलेज, काशी में भर्ती हुए। यहीं उनका परिचय एनीबीसेंट तथा अयोध्या सिंह उपाध्याय से हुआ। वे अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाए क्योंकि उनकी दादी उनको अकेले नहीं छोड़ना चाहती थीं। वे घर लौट आए और घर में ही ऐसी शिक्षा प्राप्त की कि वह षायद ही किसी विद्यालय से प्राप्त कर पाते। उन्होंने न केवल हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, उड़िया, उर्दू, बांग्ला और छत्तीसगढ़ी भाषा सीख ली बल्कि इन सभी भाषाओं पर अधिकारपूर्वक लिखने भी लगे।
अपने अग्रज पुरुषोत्तम प्रसाद तथा मामाश्री अनंतराम पाण्डेय की प्रेरणा और प्रोत्साहन से लोचन प्रसाद ने सन् 1903 ई. में लिखना शुरु कर दिया था। बालकृष्ण भट्ट के संपादन में निकलने वाली पत्रिका हिन्दी प्रदीप में उनकी पहली कविता सन् 1904 ई. में प्रकाशित हुई। इसी वर्ष ‘सरस्वती’ में पाण्डेय जी की एक छोटी-सी कविता छपी। इसी पत्रिका में अगले साल छत्तीसगढ़ी नाटक ‘कलिकाल’ के दो अंक छपे। इसे छत्तीसगढ़ी का प्रथम नाटक होने का गौरव प्राप्त है। सन् 1906 ई. में उनके प्रथम उपन्यास ‘दो मित्र’ का प्रकाशन हुआ। यह छत्तीसगढ़ प्रांत के साहित्यकारों द्वारा लिखित प्रथम उपन्यास माना जाता है। सन् 1909 ई. में प्रवासी, नीति कविता और बालिका विनोद नामक उनकी तीन किताबें छपीं और इसी साल उन्होंने नागपुर से प्रकाशित ‘मारवाड़ी’ पत्रिका का संपादन भी किया।
सन् 1910 ई. में लोचन प्रसाद पाण्डेय ने ‘कविता-कुसुम माला’ नामक काव्य-संग्रह का संपादन किया। इसमें उन्होंने हिन्दी साहित्य के तात्कालीन लगभग सभी प्रमुख कवियों की रचनाएँ सम्मिलित की। इसे शासन ने माध्यमिक शालाओं के पाठ्यक्रम में भी स्वीकृत किया था। उनकी लिखी एक अन्य पुस्तक ‘रघुवंश सार’ (संस्कृत से अनुदित) पटना व नागपुर विश्वविद्यालयों द्वारा पाठ्यपुस्तक के रुप में मान्यता दी गई थी। पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय को आधुनिक छत्तीसगढ़ी का प्रथम कवि भी कहा जाता है। सन् 1904 ई. में छत्तीसगढ़ी की प्रथम कविता उन्होंने ही लिखी थी, जिसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ हैं- “जयति जय-जय छत्तीसगढ़ देस, जनम भूमि, सुन्दर सुख खान.’’
मात्र 25 वर्ष की में ही पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय गद्य-पद्य, संपादन, अनुवाद, नाटक और उपन्यास साहित्य में अपनी छाप छोड़ चुके थे। द्विवेदी युग के महान साहित्यकार- महावीर प्रसाद द्विवेदी, पं. माधवराव सप्रे, ष्याम सुंदर दास, कामता प्रसाद गुरु, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध के साथ उनका नाम भी बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाता था। उनकी रचनाएँ सरस्वती, इन्दु, कमला, आनंद, कादम्बिनी, हिन्दी प्रदीप, भारत मित्र, पाटलीपुत्र, देवनागर, प्रभा, सुधा, श्री शारदा, हितकारिणी, विशाल भारत, माधुरी, प्रताप जैसे प्रायः सभी श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रुप से छपती थीं।
पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय की प्रमुख कृतियाँ प्रवासी, नीति कविता, बाल विनोद, कविता-कुसुम माला, माधव मंजरी, मेवाड़ गाथा, पद्म पुष्पांजलि, कृषक बालसभा काफी प्रसिद्ध हुई। भतृहरि शतक तथा रघुवंष सार संस्कृत से अनुदित हैं, जबकि रोगी रोदन तथा महानदी उड़िया भाषा की रचनाएँ हैं। ‘महानदी’ खण्ड काव्य पर वामण्डा नरेश सच्चिदानंद त्रिभुवन देव ने उन्हें सन् 1912 ई. में काव्य-विनोद की उपाधि दी थी।
हिन्दी में प्रगीति शब्द का प्रथम प्रयोग पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय ने ही किया था। उन्होंने सन् 1910 ई. में ‘कविता कुसुम माला’ की भूमिका में अंग्रेजी भाषा के ‘लिरिक’ के पर्याय रूप में ‘प्रगीति’ का प्रयोग किया था। उन्होंने ही खड़ी बोली हिन्दी में पहली बार ‘सॉनेट’ कविता लिखी जो बाद में बहुत लोकप्रिय हुई।
पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय एक कुशल शिक्षक थे। उन्होंने पहले बालपुर, बाद में नटवर स्कूल, रायगढ़ में अध्यापन किया। सन् 1912 में उन्हें तत्कालीन रायगढ़ राज दरबार के प्रायवेट सेक्रेटरी की हैसियत से रीवाँ दरबार भेजा गया, बाद में उन्हें चन्द्रपुर जमींदारी का ऑनरेरी मजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया।
पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय को उनकी उत्कृष्ट साहित्यिक सेवाओं के लिए सन् 1921 ई. में जबलपुर में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन के चतुर्थ अधिवेशन में सभापति चुना गया। सन् 1939 ई. में रायपुर में संपन्न प्रांतीय इतिहास परिषद में वे सभापति चुने गए थे। अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के मेरठ अधिवेशन में उनको ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधि दी गई।
पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय न केवल एक अच्छे साहित्यकार थे वरन् उच्च कोटि के पुरातत्ववेत्ता भी थे। छत्तीसगढ़ की प्राचीन कला, साहित्य और संस्कृति के उत्थान के लिए उन्होंने सन् 1940 ई. में महाकौशल हिस्टोरिकल सोसायटी की स्थापना की थी। वे इसके चालीस वर्षों तक मंत्री रह कर इतिहास तथा पुरातत्व की सेवा करते रहे। पुराणकालीन अपीलक का सिक्का, महाभारत में उल्लेखित ऋषभ तीर्थ की खोज, सिंघनपुर, विक्रमखोल, कबरा पहाड़ के चार हजार वर्ष पुराने आदिमानव द्वारा निर्मित शैलचित्रों को अंधकार के समुद्र तल से निकाल कर इतिहास की खुली हथेलियों पर रख दिया। उन्होंने अनेक प्राचीन मंदिरों तथा स्मारकों का पता लगाया तथा प्राचीन स्थापत्य कला, मूर्तिकला तथा संस्कृति से परिचित कराया।
पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी तथा पाठ्यपुस्तक समिति के भी वर्षों सदस्य रहे। अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन तथा नागरी प्रचारिणी सभा के वे वरिष्ठ तथा स्थाई सदस्य थे।
पं. लोचनप्रसाद पाण्डेय महान समाज सुधारक भी थे। किसानों और गरीबों की दुर्दषा से वे अत्यंत व्यथित थे। उन्हीं की प्रेरणा से उनके अनुज मुरलीधर पाण्डेय ने ग्राम सहाय समिति गठित की। गाँव के प्रत्येक किसान को एक पात्र में प्रतिदिन एक मुट्ठी अनाज डालने को कहा गया। इसे जरुरतमंदों में बाँट दिया जाता। स्वतंत्रता के उपरांत सन् 1956 ई. में राज्य पुनर्गठन के समय भी लोचन प्रसाद पाण्डेय ने अंचल के हितों के लिए उग्र संघर्ष किया। उन्हीं की बदौलत चन्द्रपुर क्षेत्र आज संबलपुर जिले में न होकर जांजगीर-चांपा छत्तीसगढ़ में है। चांपा में कुष्ठ आश्रम को उनके प्रयासों के चलते ही शासकीय आर्थिक सहयोग मिला।
लोचन प्रसाद पाण्डेय का तिहत्तर वर्ष की आयु में 18 नवम्बर सन् 1959 को निधन हो गया।
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11.
ई. राघवेन्द्र राव
ई. राघवेन्द्र राव का जन्म अगस्त सन् 1889 ई. में कामठी नगर में हुआ। उनके पिता श्री नागन्ना अपने समय के प्रभावशाली एवं संपन्न व्यापारी थे। श्री नागन्ना राव व्यवसाय के लिए बिलासपुर (छत्तीसगढ़) आए थे और उसके बाद वहीं बस गए। श्री नागन्ना की धर्मपत्नी श्रीमती लक्ष्मी नरसम्मा उदार स्वभाव वाली, धार्मिक एवं अनुशासन प्रिय महिला थीं। ई. राघवेन्द्र राव पर पारिवारिक आदर्श का बाल्यावस्था से ही प्रभाव पड़ा। फलस्वरूप उन्होंने एक प्रतिभाशाली, मेधावी, बुद्धिमानी एवं विलक्षण व्यक्ति के साथ उज्ज्वल चरित्रवान, सत्पुरुष बनने की प्रथम सीढ़ी बाल्यकाल में ही तय कर ली।
राघवेन्द्र राव की प्राथमिक शिक्षा बिलासपुर में संपन्न हुई। यहीं के म्युनिसिपल हाईस्कूल से उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उच्च शिक्षा के लिए ई. राघवेन्द्र राव ने हिस्लॉप कॉलेज, नागपुर में प्रवेश लिया। वहीं उनके मन में कानून की शिक्षा प्राप्त करने के इच्छा जागी। इसी बीच सरस्वती बाई नामक सुशील, सरल स्वभाव की कन्या से उनका विवाह संपन्न हुआ।
ई. राघवेन्द्र राव कानून की शिक्षा प्राप्त करने विलायत जाना चाहते थे। पिताश्री नागन्ना राव उनको लंदन नहीं भेजना चाहते थे, परंतु वे किसी तरह उन्हें मनाकर लंदन चले गए। अभी ई. राघवेन्द्र राव ने विलायत पहुँच कर बैरिस्टरी की शिक्षा आरंभ ही की थी कि उनके पिता श्री नागन्ना राव का आकस्मिक निधन हो गया। ई. राघवेन्द्र राव को शिक्षा बीच में छोड़ कर स्वदेश लौटना पड़ा।
सन् 1912 में ई. राघवेन्द्र राव पुनः विलायत चले गए, जहाँ उन्होंने बड़े लगन के साथ वकालत की शिक्षा पूरी की। सन् 1914 में ई. राघवेन्द्र राव बैरिस्टर बनकर बिलासपुर लौटे और वहीं वकालत शुरू कर दी। देश के राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की बागडोर उस समय लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के हाथों में थी। सारे देश में उस समय गरम दल की हवा चल रही थी। इसी समय राघवेन्द्र राव का राजनैतिक जीवन में प्रवेश हुआ। वे सन् 1916 से सन् 1927 तक बिलासपुर नगर पालिका के अध्यक्ष रहे। वे जिला परिषद के अध्यक्ष पर भी आठ वर्षों तक पदासीन रहे।
सन् 1920 ई. में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधीजी के आह्वान पर ई. राघवेन्द्र राव वकालत छोड़कर सक्रिय राजनीति में कूद पड़े। उसी वर्ष वे महाकौशल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। जब प. मोतीलाल नेहरू ने स्वराज्य पार्टी का गठन किया, तब ई. राघवेन्द्र राव भी उसमें सम्मिलित हो गए।
सन् 1923 ई. से सन् 1926 ई. तक वे सी. पी. और बरार विधानसभा में स्वराज्य पार्टी के सदस्य व नेता रहे। उन्होंने सेठ गोविंद दास और पं. रविशंकर शुक्ल के साथ मिलकर क्षेत्र में स्वराज्य पार्टी का गठन किया था। सन् 1926 ई. में गठित मंत्रि मण्डल में ई. राघवेन्द्र राव शिक्षामंत्री बनाए गए थे। यद्यपि वे शासन के सक्रिय सदस्य थे, फिर भी साइमन कमीशन का बहिष्कार कर उन्होंने अपनी देशभक्ति और अदम्य साहस का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया।
सन् 1930 में ई. राघवेन्द्र राव सात वर्षों के लिए मध्यप्रांत के राज्यपाल के गृह सदस्य नियुक्त हुए, जो उस समय राज्यपाल के बाद सबसे महत्वपूर्ण पद होता था। इस पद पर रहते हुए उन्होंने कृषकों की दशा सुधारने के लिए ऋणमुक्ति, सिंचाई सुविधओें का विस्तार, चकबंदी इत्यादि कई जनहित के कार्य करवाए।
सन् 1936 ई. में राघवेन्द्र राव चार माह के लिए मध्यप्रांत के प्रभारी राज्यपाल भी बनाए गए। उन दिनों किसी भारतीय नागरिक को यह सम्मान प्राप्त नहीं होता था।
सन् 1939 में राघवेन्द्र राव भारत सचिव के सलाहकार पद पर लंदन बुलाए गए। वहाँ वे दो वर्षों तक रहे। अंतिम समय में ई. राघवेन्द्र राव वाइसराय की कार्यकारिणी कौंसिल में प्रतिरक्षा मंत्र पद पर भी नियुक्त हुए।
अंग्रेजी शासन के उच्च पदों पर आसीन रहते हुए भी ई. राघवेन्द्र राव ने राष्ट्रीयता की भावना का त्याग नहीं किया। वे अंग्रेजी प्रशासन से भारतीयों के अधिकार के लिए सतत् संघर्ष करते रहे।
सन् 1916 ई. में जब बिलासपुर क्षेत्र में प्लेग की महामारी फैली हुई थी, तब ई. राघवेन्द्र राव ने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए कुछ विश्वसनीय साथियों के साथ बीमार लोगों की खूब सेवा की। सन् 1929-30 ई. के ऐतिहासिक अकाल के समय भी उन्होंने गरीब किसानों की भरपूर सहायता की। उनके प्रयासों से लगान व मालगुजारी की वसूली पर रोक लगाई गई तथा लगान का पुनर्निर्धारण उदारता के साथ किया गया।
ई. राघवेन्द्र राव ने मध्यप्रांत में निरक्षरता दूर करने के लिए प्रौढ़ शिक्षा की तीव्रगामी योजना बनाई। ग्रामीण इलाकों में पुस्तकालयों और वाचनालयों की व्यवस्था करना, शिक्षा में कृषि विषयां को शामिल कर रोजगार से जोड़ना, बालिकाओं की समुचित शिक्षा-दीक्षा के लिए स्कूलों की व्यवस्था करना शिक्षा मंत्री के रूप में उनकी महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ थी। उन्होंने संपूर्ण बिलासपुर जिले में पाठशालाओं का न केवल जाल फैला दिया अपितु प्रचलित पाठ्यक्रम के मापदण्ड को ऊँचा उठाने का सतत् प्रयास किया।
डॉ. राघवेन्द्र राव रसायन शास्त्र, ज्योतिष व खगोल विज्ञान, अंग्र्रेजी व हिन्दी साहित्य के महान ज्ञाता थे। इसके साथ-साथ संसदीय व्यवहार नीति में भी उनकी विद्वता प्रसिद्ध थी। वे बड़े ही अध्ययनशील प्रवृत्ति के थे। आंध्रप्रदेश के वाल्टेयर विश्वविद्यालय ने ई. राघवेन्द्र राव को डी. लिट् की उपाधि से सम्मानित किया।
ई. राघवेन्द्र राव के व्यक्तिगत पुस्तकालय में लगभग पंद्रह हजार पुस्तकें, थीं जो नगरपालिका वाचनालय, बिलासपुर; एस. बी. आर. कॉलेज वाचनालय, बिलासपुर; नागपुर विश्वविद्यालय तथा आंध्रप्रदेश विश्वविद्यालय में आज भी उपलब्ध हंै।
15 जून सन् 1942 ई. को मात्र 53 वर्ष की अल्पायु में ई. राघवेन्द्र राव का निधन हो गया।
देशहित में किए गए अभूतपूर्व कार्यों के कारण वे सदैव दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत बने रहेंगे।
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12.
ठा. प्यारेलाल सिंह
ठा. प्यारेलाल सिंह छत्तीसगढ़ में श्रमिक आंदोलन के सूत्रधार तथा सहकारिता आंदोलन के प्रणेता थे। उनका जन्म 21 दिसंबर सन् 1891 को राजनांदगाँव जिले के दैहान ग्राम में हुआ था। उनके पिताजी का नाम ठा. दीनदयाल सिंह तथा माताजी का नाम नर्मदा देवी था। ठा. दीनदयाल सिंह शिक्षा विभाग में एक अधिकारी थे।
ठा. प्यारेलाल सिंह की प्रारंभिक शिक्षा राजनांदगाँव में सम्पन्न हुई। उन्होंने रायपुर के गवर्नमेण्ट हाईस्कूल से मैट्रिक तथा हिसलाॅप कॉलेज से इंटरमीडिएट पास किया। इसी बीच उनके पिताजी का देहांत हो गया। पं. नारायण प्रसाद की आर्थिक सहायता से उन्होंने जबलपुर से बी.ए. तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से वकालत की परीक्षा पास की। विद्यार्थी जीवन में वे मेधावी तथा राष्ट्रीय विचारधारा से ओतप्रोत थे। वे सिर्फ पढ़ाई-लिखाई में ही नहीं खेलकूद तथा सामाजिक गतिविधियों में भी आगे रहते थे।
ठा. प्यारेलाल सिंह के संघर्ष की शुरूआत उनके विद्यार्थी जीवन से ही हो गई थी। षिक्षकों के अविवेकी निर्णयों और राज परिवारों के बालकों की उद्दण्डता को ठीक करने का बीड़ा उन्होंने उठाया। उनके नेतृत्व में एक बालटोली बनी। सन् 1905-06 ई. में गरीब छात्रों को शिक्षा से वंचित करने के लिए फीस बढ़ा दी गई और यूनिफार्म अनिवार्य कर दिया गया। ठा. प्यारेलाल सिंह के नेतृत्व में छात्रों ने इसके विरूद्ध आंदोलन किया और इसमें सफलता प्राप्त की।
सन् 1906 में ठा. प्यारेलाल सिंह बंगाल के कुछ क्रांतिकारियों के संपर्क में आए और क्रांतिकारी साहित्य का प्रचार करते हुए अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत की। उन्होंने विद्यार्थी जीवन में ही सन् 1909 में राजनांदगाँव में सरस्वती पुस्तकालय की स्थापना की। यह क्रांतिकारी साहित्य के प्रचार-प्रसार का अच्छा माध्यम सिद्ध हुआ। सन् 1928 में ब्रिटिश सरकार ने इस पुस्तकालय में ताला लगा दिया।
वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद ठा. प्यारेलाल सिंह वकालत करने लगे। पहले उन्होंने दुर्ग में वकालत की फिर रायपुर में। शीघ्र ही उनकी गणना प्रतिभाषाली वकीलों में होने लगी। निर्धन तथा कमजोर लोगों को न्याय दिलाने वे सदैव तत्पर रहते।
अप्रेल 1920 में ठा. प्यारेलाल सिंह के नेतृत्व में राजनांदगाँव के बी.एन.सी. मिल के मजदूरों ने हड़ताल कर दी। यह देश की सबसे लम्बी हड़ताल थी, जो 37 दिनों तक चली। अंत में मजदूरों की माँगें पूरी हुई। इससे मजदूरों की प्रतिवर्ष एक लाख रूपए की आमदनी बढ़ गई। इसी वर्ष गांधीजी के आह्वान पर वे असहयोग आंदोलन में कूद पड़े और वकालत छोड़ दी। उन्होंने खादी और स्वदेशी का खूब प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने पं. बलदेव प्रसाद मिश्र के साथ मिलकर राजनांदगाँव में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की थी। 1924 में राजनांदगाँव के मिल मजदूरों ने ठा. प्यारेलाल के नेतृत्व में पुनः हडताल कर दी। कई गिरफ्तारियाँ र्हुइं। उन पर सभा लेने और भाषण देने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। उन्हें राजनांदगाँव छोड़ने के लिए मजबूर किया गया पर वे मजदूरों की माँगें पूरी होने के बाद ही राजनांदगाँव छोड़े। वे स्थायी रूप से रायपुर में बस गए। उन्होंने पं. सुंदरलाल शर्मा के अंत्योद्धार कार्य में सहयोग किया।
ठा. प्यारेलाल सिंह ने छत्तीसगढ़ में शराब भट्ठियों में पिकेटिंग, हिंदू- मुस्लिम एकता, नमक कानून तोड़ना, दलित उत्थान जैसे अनेक कार्यों का संचालन किया। स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेते हुए वे अनेक बार जेल गए तथा यातनाएँ सहीं। मनोबल तोड़ने के लिए उनके घर पर छापा मारकर सारा सामान कुर्क कर दिया गया। उनके वकालत की सनद भी जब्त कर ली गई, परंतु वे अपने मार्ग से नहीं हटे।
सन् 1934 में जेल से छूटते ही ठा. प्यारेलाल सिंह को महाकोशल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी का मंत्री चुना गया। सन् 1936 में वे पहली बार मध्यप्रदेश विधानसभा के सदस्य चुने गए। राजनैतिक झंझावतों के बीच वे तीन बार (सन् 1937,1940 व 1944) रायपुर नगरपालिका के अध्यक्ष चुने गए। वे हर बार प्रचंड बहुमत से चुने जाते थे। अध्यक्ष के रूप में उन्होंने कई प्रायमरी स्कूल, बालिकाओं के लिए स्कूल, दो नए अस्पताल खोले, सड़कों पर तारकोल बिछवाई और बहुत से कुँए खुदवाए।
छत्तीसगढ़ के बुनकरों को संगठित करने के लिए ठा. प्यारेलाल सिंह ने 6 जुलाई सन् 1945 ई. को छत्तीसगढ़ बुनकर सहकारी संघ की स्थापना की। वे मृत्युपर्यंत उसके अध्यक्ष रहे।
ठा. प्यारेलाल सिंह ने छत्तीसगढ़ कंज्यूमर्स, म. प्र. पीतल धातु निर्माता सहकारी संघ, विश्वकर्मा औद्योगिक सहकारी संघ, तेलघानी सहकारी संघ, ढीमर सहकारी संघ, स्वर्णकार सहकारी संघ आदि अनेक संस्थाओं का निर्माण किया। वे छत्तीसगढ़ में सहकारी आंदोलन के पुरोधा थे।
छत्तीसगढ़ के रियासतों का भारतीय संघ में विलय कराने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रवासी छत्तीसगढ़ियों को शोषण एवं अत्याचार से मुक्त कराने की दिशा में भी वे सक्रिय रहे।
सन् 1950 ई. में ठा. प्यारेलाल सिंह ने ‘राष्ट्रबंधु’ नामक अर्धसाप्ताहिक का प्रकाशन किया। वे इसके संस्थापक तथा प्रधान सम्पादक थे। वे हिंदी, संस्कृत तथा अंग्रेजी के विद्वान थे। इतिहास, राजनीति, धर्म, दर्शन के क्षेत्र में उनका ज्ञान अगाध था। ग्रामीणों के बीच वे अपना भाषण छत्तीसगढ़ी तथा सामान्य बोलचाल की भाषा में देते थे।
वैचारिक मतभेदों के कारण ठा. प्यारेलाल सिंह ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया और आचार्य कृपलानी जी के द्वारा गठित किसान मजदूर पार्टी में षामिल हो गए। सन् 1952 में वे रायपुर से मध्यप्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए तथा विरोधी दल के नेता बने।
भूमिहीन खेतिहर मजदूरों को भू-स्वामी बनाने के लिए उन्होंने आचार्य विनोबा भावे के भूदान एवं सर्वोदय आंदोलन छत्तीसगढ़ में विस्तारित किया। वे विनोबा भावे के भूदान आंदोलन के सिपाही के रूप में गाँव-गाँव की पदयात्रा करते तथा मालगुजार एवं बड़े किसानों को भूदान के लिए प्रेरित करते। इसी भू-दान के लिए पदयात्रा करते समय जबलपुर के समीप वे अचानक अस्वस्थ हो गए और 20 अक्टूबर सन् 1954 को उनका निधन हो गया।
राज्य स्थापना के बाद छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में सहकारिता के क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने के लिए ठा. प्यारेलाल सिंह सम्मान स्थापित किया है।
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13.
पं. रामदयाल तिवारी
पं. माधवराव सप्रे ने छत्तीसगढ़ मित्र में हिंदी समालोचना की बुनियाद रखी थी किंतु उनके पास समालोचना के मानदंडों पर विस्तार-पूर्वक विचार करने का अवसर नहीं था। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए कार्यों को पूरा करने का कार्य पं. रामदयाल तिवारी ने किया। मुंशी प्रेमचंद और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जैसे शीर्षस्थ साहित्यकार तिवारी जी की समालोचना का लोहा मानते थे। यही कारण है कि ‘माधुरी’ जैसी उत्कृष्ट पत्रिका ने तिवारी जी को ‘समर्थ समालोचक’ की उपाधि से विभूषित किया था।
रामदयाल तिवारी का जन्म 23 जुलाई सन् 1892 को रायपुर में हुआ था। उनके पिताजी का नाम रामबगस तिवारी तथा माता का नाम गलाराबाई था। रामदयाल तिवारी मेधावी विद्यार्थी थे। अध्ययन उनके लिए व्यसन था। जब वे हाईस्कूल में पढ़ रहे थे तब उनके पिताजी सेवानिवृत्त हो गए। घर की आर्थिक स्थिति कमजोर होने से रामदयाल ट्यूशन करके पढ़ाई का खर्च निकालते। वे रात को नगर पालिका के लैम्प के नीचे सड़क के किनारे बैठकर पढ़ाई करते। प्रतिभा कभी परिस्थितियों की मोहताज नहीं रही। घोर दरिद्रता भी रामदयाल तिवारी के अध्ययन के मार्ग में बाधा नहीं बन सकी। निबंध लेखन तथा वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में वे सदैव प्रथम स्थान प्राप्त करते। वे किशोरावस्था से ही काव्य रचना करने लगे थे। पढ़ाई-लिखाई में तो वे तेज थे ही, सामाजिक गतिविधियों में भी बढ़-चढ़कर भाग लेते। मोहल्ले के गणेशोत्सव में सजावट का दायित्व उन्हीं पर होता था।
मेघावी छात्र होने से रामदयाल को छात्रवृत्ति भी मिलती थी। सन् 1907 में उन्होंने गवर्नमेण्ट हाईस्कूल रायपुर से मैट्रिक की परीक्षा पास की। वे उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद चले गए। 1911 में उन्होंने बी.ए. की परीक्षा पास की। इसी वर्ष उनके पिताजी की मृत्यु हो जाने से वे आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख सके। गृहस्थी का बोझ उनके सिर पर आ गया तो वे रायगढ़ में शिक्षक बन गए। वे पं. मुकुटधर पांडेय के शिक्षक थे। तिवारी जी ने उन्हें बहुत प्रोत्साहित किया। बाद में पांडेय जी छायावाद के प्रवर्तक कवि तथा समीक्षक के रूप में प्रसिद्ध हुए।
सन् 1915 में पं. रामदयाल तिवारी ने वकालत की शिक्षा पूरी की और रायपुर में वकालत करने लगे। वकालत करते हुए वे सार्वजनिक जीवन में भी सक्रिय रहे। सन् 1918 में रायपुर में प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन हुआ। तिवारी जी इसके प्रमुख आयोजकों में से एक थे।
पं. माधवराव सप्रे के संपर्क में तो पं. रामदयाल तिवारी विद्यार्थी जीवन में ही आ चुके थे। आनंद समाज पुस्तकालय में इनकी गोष्ठी जमती थी। सप्रेजी को हिंदी में आधुनिक समालोचना का प्रवर्तक माना जाता है। समालोचना के क्षेत्र में तिवारी सप्रेजी के सच्चे उत्तराधिकारी थे। हितवाद, माडर्न रिव्यू, हिंदू आदि पत्र-पत्रिकाओं में उनके सम सामयिक समस्याओं पर विचारोत्तेजक लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते थे। तिवारी जी गंभीर चिंतक और प्रखर लेखक ही नहीं ओजस्वी वक्ता भी थे। हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू, उड़िया, मराठी एवं उर्दू पर उनका समान अधिकार था।
पं. रामदयाल तिवारी ने राष्ट्रकवि मैथिलीषरण गुप्त की महाकाव्य ‘यशोधरा’ एवं खंडकाव्य ‘साकेत’ की समीक्षा की। उस समय तक न तो मैथिलीशरण गुप्त प्रसिद्ध हुए थे और न ही उन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि मिली थी फिर भी तिवारी जी ने उसकी समीक्षा की। गुप्त जी को इससे प्रसिद्धि मिली साथ ही तिवारी जी की पहचान एक समर्थ आलोचक के रूप में होने लगी।
सन् 1930 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी की अध्यक्षता में नागपुर में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का आयोजन हुआ। इसमें गांधीजी भी उपस्थित थे। पं. रामदयाल तिवारी उस सम्मेलन के आयोजकों तथा प्रमुख वक्ताओं में से एक थे।
पं. रामदयाल तिवारी स्वाधीनता आंदोलन सें भी घनिष्ठ रूप जुड़े रहे। सन् 1930 ई. में ठा. प्यारेलाल सिंह सहित कई नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में उन्होंने दस हजार लोगों का जुलूस निकाला और सभा की। धारा 144 लागू होने पर भी उन्होंने इस सभा को संबोधित करते हुए अंग्रेज सरकार के दमन की भत्र्सना की। इसी वर्ष रायपुर प्लेटफार्म पर बंदी सत्याग्रहियों के स्वागत के लिए एकत्र भीड़ पर पुलिस ने अंधा-धुंध लाठियाँ बरसाई थीं। इस बर्बरतापूर्ण कार्यवाही की जाँच के लिए प्रबुद्ध नागरिकों की एक समिति गठित की गई। तिवारी समिति के प्रमुख सदस्य थे। उन्होंने मोहल्लों में घूम-घूमकर पचासों घायलों के बयान लिए, उनकी चिकित्सा का प्रबंध किया और विस्तृत रिपोर्ट समिति को सौंपीं। यह सच है कि पं. रामदयाल तिवारी कभी जेल नहीं गए किंतु स्वाधीनता आंदोलन में उनकी भूमिका किसी से कम नहीं थी। लोगों में राष्ट्रीय चेतना जगाने के लिए उन्होंने अपनी वाणी और लेखनी का भरपूर उपयोग किया।
सन् 1935 में पं. रामदयाल तिवारी एक दुर्घटना में घायल हो गए। उन्हें कई माह अस्पताल में रहना पड़ा। इसी अवधि में उन्होंने ‘गांधी-मीमांसा’ की रचना की। बाद में उन्होंने ‘गांधी एक्सरेड’ नामक एक विशाल ग्रंथ अंग्रेजी में लिखा। इसके अलावा उन्होंने विद्यालयोपयोगी पुस्तकें ‘हमारे नेता’ तथा ‘स्वराज्य प्रश्नोत्तरी’ की रचना की। ये दोनों पुस्तकें कई वर्षों तक मध्यप्रदेश शासन के शिक्षा विभाग द्वारा विद्यालयों के लिए स्वीकृत की गई थीं।
पं. रामदयाल तिवारी ने उमर खय्याम की रूबाइयों पर भारतीय दृष्टिकोण से समीक्षा की। इसे पढ़कर मुंशी प्रेमचंद जी बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने तिवारी जी की मौलिक समीक्षा दृष्टि की प्रशंसा की।
अगस्त सन् 1942 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का महाधिवेशन मुंबई में आयोजित हुआ। इसमें ऐतिहासिक भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ था। इसी सम्मेलन में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी ने देशवासियों को ‘करो या मरो’ का नारा दिया था। इस अधिवेशन में भाग लेने के लिए तिवारी जी मुंबई गए थे। वहाँ अचानक उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। लौटने के बाद वे और भी अस्वस्थ हो गए। 21 अगस्त सन् 1942 को उनका निधन हो गया।
पं. रामदयाल तिवारी की स्मृति में छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के आमापारा चौक के पास एक विद्यालय की स्थापना उनके नाम पर की गई है।
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14.
यति यतनलाल
यति यतनलाल छत्तीसगढ़ अंचल में राष्ट्रीय चेतना की मशाल प्रज्ज्वलित करने वाले प्रमुख नेताओं मंा से एक थे। उनका जन्म राजस्थान के बीकानेर शहर के एक अस्पताल में सन् 1894 में हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि इनके माता-पिता ने इनका त्याग कर दिया था। संयोगवश उस समय जैन धर्म के एक महान संत गणी विवेकवर्धन बीकानेर में थे। उन्होंने उस शिशु को गोद ले लिया उसका पुत्रवत पालन-पोषण रायपुर में किया। गणी जी ने शिशु का नाम यतनलाल रखा।
यति यतनलाल बचपन से ही अत्यंत प्रतिभाशाली थे। स्वाध्याय से ही उन्होंने भाषा, साहित्य और संस्कृति का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। जब वे 19 वर्ष के हुए तो गणी विवेकवर्धन ने उन्हें यति की दीक्षा दी। उस दिन से लोग उन्हें यति यतनलाल के नाम से जानने लगे। दीक्षा के बाद यतनलाल की दिनचर्या अत्यंत ही संयमित और नियमित हो गई।
सन् 1919 में यति यतनलाल राजनीति से जुड़ गए। यह वह समय था जब महात्मा गांधीजी के नेतृत्व में लाखों देशभक्त नौजवान स्वतंत्रता के यज्ञ में अपनी आहुति देने आगे आ रहे थे। सन् 1921 में यतनलाल ने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की। सन् 1922 ई. में उन्हें रायपुर जिला कांग्रेस कमेटी का सदस्य तथा सन् 1924-25 ई. में अध्यक्ष चुना गया।
यति यतनलाल रचनात्मक कार्यों के माध्यम से अंचल में जन-जागरण के लिए निरंतर प्रयासरत रहे और दलित उत्थान व उन्हें संगठित करने के उद्देश्य से गाँव-गाँव में घूमकर हीन भावना दूर करने के प्रयास किए। सत्साहित्य के प्रचार तथा लोगों में स्वाध्याय की प्रवृत्ति विकसित करने के लिए यति यतनलाल जी ने रायपुर में महावीर पुस्तकालय और महासमुंद में भगत पुस्तकालय की स्थापना की। षीघ्र ही ये पुस्तकालय स्वतंत्रता सेनानियों, स्वयंसेवकों तथा नेताओं के मिलन केंद्र बन गए। यहीं पर उनका संपर्क पं. रविशंकर शुक्ल, पं. सुंदरलाल शर्मा, ठा. प्यारेलाल सिंह, महंत लक्ष्मी नारायण दास आदि स्वतंत्रता सेनानियों से हुआ।
सन् 1922 ई. में रायपुर जिला राजनीतिक परिषद के आयोजन में जिलाधीश तथा पुलिस कप्तान के बिना प्रवेश-पत्र के जबरन प्रवेश का विरोध करते हुए यति यतनलाल अन्य नेताओं के साथ गिरफ्तार किए गए। राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी के आव्हान पर उन्होंने अपने सैकडों सहयोगियों के साथ शराब की दुकानों पर धरने दिए। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार-प्रसार का कार्य किया। वे गाँवों में घूम-घूमकर स्वदेशी का प्रचार करते थे।
यति यतनलाल ने सन् 1930 ई. में सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की। महासमुन्द (छत्तीसगढ़) के तमोरा क्षेत्र में जंगल सत्याग्रह का सफल संचालन यति यतनलाल और शंकरराव गनौदवाले ने ही किया था। इस हेतु उन्हें 25 अगस्त सन् 1930 ई. को उन्हें गिरफ्तार कर एक वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। किंतु गांधी-इरविन समझौते के कारण 11 मार्च सन् 1931 ई. को वे रिहा कर दिए गए। जेल से रिहा होने के बाद यति यतनलाल का सन् 1931 ई. में कराँची (अब पाकिस्तान में स्थित) में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में भाग लेने के लिए छत्तीसगढ से उनका चयन किया गया क्योंकि वे एक श्रेष्ठ वक्ता, लेखक तथा समाज सुधारक थे।
सन् 1934 ई. में जब रायपुर में हैजा की महामारी फैली तो यति यतनलाल अपने प्राणों की परवाह किए बिना लगातार रोगियों की सेवा में लगे रहे। वे गाँव-गाँव, गली-गली पहुंचकर लोगों को दवाइयाँ बाँटते। वे हरिजन उद्धार आंदोलन के प्रचार में भी सक्रिय थे। महात्मा गांधीजी के निर्देशानुसार उन्होंने ग्रामोद्योग, दलितोद्धार, बेमेल विवाह, मृतक-भोज, बलिप्रथा तथा नशाखोरी का विरोध और हिंदू-मुस्लिम एकता की दिशा में अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए।
फरवरी सन् 1939 को त्रिपुरी में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ऐतिहासिक अधिवेशन, जिसकी अध्यक्षता नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने की थी, में भाग लेने के लिए यति यतनलाल भी गए थे। सन् 1940 में तत्कालीन रायपुर जिले में भयंकर अकाल पड़ा था। उस समय यति यतनलाल जी ने तत्कालीन महासमुन्द तहसील (अब जिला) के पचास गाँवों का दौरा करके जिला कांगे्रस कमेटी को विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। सन् 1940 ई. में राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी के आह्वान पर यति यतनलाल ने क्षेत्र में व्यक्तिगत सत्याग्रह चलाया और गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें चार माह की सजा सुनाई गई।
सन् 1941 ई. में अपने पालक और गुरु गणी विवेकवर्धन जी के अस्वस्थ हो जाने पर यति यतनलाल ने स्वयं को स्वाधीनता आंदोलन से अलग कर लिया और उनके अंतिम समय तक उनकी जी-जान से सेवा की। वे अक्सर कहा करते थे कि ‘‘मैं आज जो कुछ भी हूँ सिर्फ अपने सद्गुरु के कारण ही हूँ।’’
सन् 1942 ई. में यति यतनलाल को भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के कारण फिर से गिरफ्तार किया गया। जेल से छूटने के पष्चात वे सन् 1946 से 1949 ई. तक वे रायपुर जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे। राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और कई बार जेल गए। भारत की आजादी के बाद यति यतनलाल जी की राजनीति में रूचि कम होती गई और वे पूज्य गणी जी के महासमुंद स्थित आश्रम में रहकर दीन-दुःखियों की सेवा में लग गए। उन्होंने इस आश्रम में सन् 1976 ई. में एक बड़े अस्पताल की भी स्थापना की।
यति यतनलाल को कई बार संसद की सदस्यता का प्रस्ताव मिला जिसे उन्होंने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया। उन्होंने देश के स्वाधीनता सेनानियों को सरकार की ओर से मिलने वाले सम्मान निधि को अस्वीकार कर दिया था।
4 अगस्त सन् 1976 ई. को लम्बी बीमारी के बाद यति यतनलाल का निधन हो गया।
छत्तीसगढ़ अंचल में अहिंसा के प्रचार-प्रसार में अविस्मरणीय योगदान को दृष्टिगत रखते हुए नवीन राज्य की स्थापना के बाद छत्तीसगढ शासन ने उनकी स्मृति में अहिंसा और गौ-रक्षा के क्षेत्र में राज्य स्तरीय यति यतनलाल सम्मान स्थापित किया है।
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पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी छत्तीसगढ़ ही नहीं देश के महान साहित्यकारों में से एक थे। उन्होंने देश की सबसे प्रतिष्ठित एवं कालजयी साहित्यिक पत्रिका सरस्वती का संपादन कर राज्य का गौरव बढ़ाया था। उनका जन्म 27 मई सन् 1894 ई. को राजनांदगाँव के खैरागढ़ गाँव में एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था।
पदुमलाल पुन्नालाल की प्रारंभिक शिक्षा खैरागढ़ में ही हुई। जब वे मिडिल स्कूल में पढ़ाई कर रहे थे तो उनके प्रधानपाठक पं. रविशंकर शुक्ल थे। बाद में वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने। पदुमलाल विद्यार्थी जीवन में एक मेधावी छात्र थे। प्रायमरी स्कूल पास करने के बाद ही उन्हें कथा-कहानी का चस्का लग गया और वे स्कूल से भागकर ष्मषान के एकांत में चंद्रकांता उपन्यास पढ़ते थे। इसी बीच उन्हें लिखने की भी रुचि पैदा हो गई। 1911 में एक अंग्रेजी कहानी का हिंदी अनुवाद हितकारिणी में प्रकाशित हुआ। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
सन् 1912 में पदुमलाल पुन्नालाल ने मैट्रिक की परीक्षा पास की। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने सेंट्रल हिंदू कॉलेज, काशी में प्रवेश लिया। यहीं से उन्होंने सन् 1916 ई. में बी.ए. पास किया। काशी में उन्हें पं. मदनमोहन मालवीय, पारसनाथ सिंह तथा आत्माराम खरे जैसी महान विभूतियों का सान्निध्य मिला। इसी बीच उनका विवाह लक्ष्मीदेवी से हुआ। वे एक आदर्ष गृहिणी थीं। उन्होंने घर एवं परिवार का संपूर्ण दायित्व अपने ऊपर लेकर बख्शीजी को सांसारिक उत्तरदायित्वों से पूरी तरह मुक्त कर दिया जिससे कि वे लिखने-पढ़ने में अपना सारा समय लगा सकें। यही कारण है कि बख्शी जी उन्हें लक्ष्मी नहीं गृहलक्ष्मी कहते थे।
बी.ए. की परीक्षा पास करने के बाद ही पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की नियुक्ति तत्कालीन राजनांदगाँव स्टेट के एक हाईस्कूल में शिक्षक के पद पर हो गई। उनकी रचनाएँ ‘हितकारिणी’, ‘सरस्वती’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपती रहीं।
साहित्यिक अभिरूचि होने से वे सन् 1920 ई. में इलाहाबाद चले गए। वे सरस्वती के संपादक नियुक्त किए गए। यह इंडियन प्रेस इलाहाबाद से प्रकाशित होती थी। सरस्वती उस समय की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका मानी जाती थी। इसमें किसी रचना का प्रकाशित होना उन दिनों साहित्यकारों के लिए बड़े गौरव की बात होती थी। इनके संपादन में युग बदल गया। द्विवेदी युग ने अपना स्थान छायावादी युग को दे दिया। जयषंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का स्वागत पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी ने किया।
पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने हिंदी में मौलिक कहानी लेखन को प्रोत्साहित किया। इसी समय उनका आलोचक तथा निबंधकार रूप भी सामने आया। वे स्वभाव से सीधे-सादे किंतु स्वाभिमानी व्यक्ति थे। जैसे-जैसे उनकी प्रतिभा चमकने लगी उनके विरोधियों की संख्या भी बढ़ने लगी। जब उनके स्वाभिमान को चोट पहुँची तो उन्होंने सन् 1925 ई. में सरस्वती से त्यागपत्र देकर खैरागढ़ लौट आए। सन् 1927 ई. में पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी को पुनः सरस्वती के प्रमुख संपादक के रूप में नियुक्त कर इलाहाबाद बुला लिया गया। सन् 1929 ई. तक उन्होंने इस दायित्व का कुशलतापूर्वक निर्वहन किया। उनके संपादन में सन् 1928 ई. में सरस्वती का विशेषांक बड़ी सज-धज के साथ प्रकाशित हुआ।
सन् 1929 में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने सरस्वती से त्यागपत्र देकर अध्यापन को अपनी जीविका के लिए चुना। सन् 1934 ई. तक उन्होंने कांकेर में अध्यापन किया। सन् 1935 ई. में वे अपने पैतृक ग्राम खैरागढ़ आ गए और सन् 1949 ई. तक विक्टोरिया हाईस्कूल, खैरागढ़ में अंग्रेजी अध्यापक के रूप में कार्य किया। इनका संबंध इंडियन प्रेस से लगातार बना रहा। उन्होंने इंडियन प्रेस के लिए कुछ पाठ्यपुस्तकें संपादित किए।
इस बीच उनकी पुस्तकें ‘प्रदीप’ और ‘अश्रुदल’ प्रकाशित हुई। उनकी पहली प्रकाशित पुस्तक ‘प्रायष्चित’ थी। यह बेल्जियम लेखक मारिस मेटरलिक के नाटक का हिंदी अनुवाद था। बख्शी जी 1952 से 1956 तक खैरागढ से ही सरस्वती का संपादन करते रहे। 1958-59 में ‘षतदल’ तथा कहानी संग्रह ‘झलमला’ प्रकाशित हुई। बख्शी जी सन् 1949 से 1957 ई. तक खैरागढ़ राजकुमारियों के ट्यूटर रहे। उनके साहित्यिक योगदान को देखते हुए उन्हें सन् 1959 ई. में राजनांदगाँव के दिग्विजय कॉलेज में प्राध्यापक नियुक्त किया गया। यद्यपि वे केवल बी.ए. तक पढ़े थे पर उनके निबंध एम.ए. की कक्षाओं में पढ़ाए जाते थे। वे स्वयं एम.ए. के विद्यार्थियों को पढ़ाते भी थे।
सन् 1949 ई. में पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी को अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्य वाचस्पति की उपाधि से विभूषित किया गया। सन् 1950 ई. में वे मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति चुने गए। उन्होंने कुछ समय तक रायपुर से निकलने वाले दैनिक समाचार पत्र महाकोषल का संपादन किया था। सन् 1960 ई. में सागर विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डी. लिट्. की मानद उपाधि देकर सम्मानित किया गया। उन्हें मध्यप्रदेश शासन तथा मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा सम्मानित किया गया।
बख्शी जी ने अपना साहित्यिक जीवन एक कवि के रूप में प्रारंभ किया था किंतु विशेष ख्याति मिली एक निबंधकार के रूप में। उनके प्रमुख निबंध संग्रह हैं- विश्व साहित्य, पंचपात्र, हिंदी साहित्य विमर्श, साहित्य चर्चा, मंजरी, बिखरे पन्ने, हिंदी कथा साहित्य, मेरा देश, मेरे प्रिय निबंध, समस्या और समाधान, नवरात्र, हिंदी साहित्य एक ऐतिहासिक समीक्षा। उनके लिखे हुए भावपूर्ण निबंध कारी के आधार पर दाऊ रामचंद्र देशमुख जी ने कारी लोकनाट्य बनाया जिसे बहुत प्रसिद्धि मिली। बख्शी जी की कहानी झलमला कालजयी कहानी मानी जाती है।
28 दिसंबर सन् 1971 ई. को रायपुर में उनका देहावसान हो गया। वे एक सफल सम्पादक, भावुक कवि, कुशल कहानीकार, तटस्थ आलोचक एवं आदर्ष शिक्षक थे। वे राजनीति एवं दलबंदियों से दूर रह कर जीवन पर्यन्त साहित्य सेवा में लगे रहे। उनके सभी मित्र उन्हें मास्टर जी कहकर संबोधित करते थे। उनकी इच्छा थी कि वे इस जन्म में तो मास्टरजी रहें ही अगले जन्म में भी मास्टर जी ही बनें।
यही कारण है कि उनकी स्मृति में छत्तीसगढ़ शासन के स्कूल शिक्षा विभाग द्वारा राज्य स्तरीय पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी स्मृति शिक्षक सम्मान स्थापित किया गया है। कहानी में निबंध और निबंध में कहानी के समन्वय की शैली के जन्मदाता पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के नाम पर पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर में बख्शी शोधपीठ तथा भिलाई (छत्तीसगढ़) में बख्शी सृजनपीठ की स्थापना की गई है।
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16.
पद्यश्री पं. मुकुटधर पाण्डेय
पं. मुकुटधर पाण्डेय हिंदी साहित्य के इतिहास में छायावाद के प्रवर्तक के रूप में विख्यात हैं। उनका जन्म जांजगीर-चांपा जिले के चंद्रपुर के निकट स्थित ग्राम बालपुर में 30 सितम्बर सन् 1895 ई. में हुआ था। उनके पिताजी का नाम चिंतामणि पाण्डेय तथा माताजी का नाम देवहुति देवी था। राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकार पं. लोचनप्रसाद तथा पं. पुरुषोत्तम पाण्डेय पं. मुकुटधर के अग्रज थे। चिंतामणि पाण्डेय ने अपनी माता पार्वती देवी के नाम पर अपने गृहग्राम बालपुर में एक विशाल पुस्तकालय की स्थापना की थी। बाद में उन्होंने एक पाठशाला भी खोली, जहाँ मुकुटधर पाण्डेय ने प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने सन् 1912 ई. में रायगढ़ से मीडिल स्कूल तथा सन् 1915 ई. में मैट्रिक की परीक्षा पास की।
उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए मुकुटधर पाण्डेय ने सन् 1916 ई. में प्रयाग के क्रिष्चियन कॉलेज में प्रवेश लिया। विपरीत परिस्थितियों के कारण वे कॉलेज की शिक्षा अधूरी छोड़कर बालपुर लौट आए तथा गाँव की पाठशाला में सन् 1919 से 1931 ई. तक अध्यापन करते हुए स्वतंत्र रूप से साहित्य रचना करने लगे। साहित्यानुरागी पितामह तथा अग्रजों के स्नेह सानिध्य में पाण्डेय जी ने 12 वर्ष की अल्पायु में ही लिखना प्रारंभ कर दिया था। उन्होंने घर पर ही हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत, उड़िया तथा बांग्ला आदि भाषाएँ सीख ली। सन् 1909 ई. में उनकी पहली कविता आगरा से प्रकाशित पत्रिका स्वदेश बांधव में प्रार्थना पंचक नाम से छपी थी।
जब मुकुटधर पाण्डेय मीडिल स्कूल में पढ़ते थे, तब उनकी लिखी हुई कविताएँ स्वदेश बांधव, हितकारिणी, इन्दु, आर्य महिला तथा सरस्वती में छपने लगी थीं। उनकी प्रारंभिक रचनाओं में थोड़ा बहुत संशोधन तथा सुधार उनके अग्रज लोचन प्रसाद पाण्डेय करते थे। उन्हीं की प्रेरणा और प्रोत्साहन से मुकुटधर ने भावनात्मक कविताएँ लिखीं, जिसे महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती में प्रकाशित की। ये कविताएँ भाव, भाषा एवं शिल्प की दृष्टि से सर्वथा नवीन थीं। इससे आचार्य द्विवेदी बहुत प्रभावित हुए तथा उनकी कविताएँ नियमित रूप से सरस्वती में छपने लगीं।
सन् 1931 ई. में पं. मुकुटधर पाण्डेय रायगढ़ नरेष चक्रधर सिंह के संपर्क में आए। उनके आग्रह पर ही वे सन् 1931 से 1937 ई. तक रायगढ़ के नटवर हाईस्कूल में अध्यापक रहे। उन्होंने सन् 1937 से 1940 ई. तक रायगढ़ स्टेट में द्वितीय श्रेणी दण्डाधिकारी का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व निभाया। राजा से उनके मित्रवत संबंध रहे।
छायावाद की नवीन शैली को साहित्य जगत में परिभाषित तथा नामकरण करने का श्रेय पं. मुकुटधर पाण्डेय को है। इस शैली के संबंध में सन् 1920 ई. में जबलपुर से प्रकाशित पत्रिका श्री षारदा के चार अंकों में जब उनकी लेखमाला ‘छायावाद’ शीर्षक से छपी तब इस पर राष्ट्रव्यापी विमर्श हुआ। जुलाई सन् 1920 ई. में प्रतिष्ठित पत्रिका ‘सरस्वती’ में उनकी ‘कुररी के प्रति’ जैसी छायावाद की दिशा निर्दिष्ट करने वाली कविता छपी, जो छायावादी काव्यधारा की पहली कविता मानी जाती है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ. रामविलास शर्मा, जयशंकर प्रसाद तथा डॉ. नामवर सिंह ने पं. मुकुटधर पाण्डेय को छायावाद का प्रवर्तक कवि माना है। छायावाद के मर्म को समझाने के साथ-साथ पाण्डेय जी ने अपने चिंतन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी प्रश्न उठाया। वे कविप्रतिभा के स्वतंत्र उठान के पक्षधर थे। उन्होंने राष्ट्रीय चेतना के प्रचार-प्रसार व जातीय अस्मिता की रक्षा को कवि का उद्देश्य घोषित किया।श्
अबाध गति से देश के सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लिखते हुए पं. मुकुटधर पाण्डेय ने हिंदी पद्य के साथ-साथ गद्य पर भी खूब लिखा है। उनकी प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं- पूजा के फूल (काव्य संग्रह), शैलबाला (अनुदित उपन्यास), लच्छमा (अनुदित उपन्यास), परिश्रम (निबंध संग्रह), हृदयदान (कहानी संग्रह), मामा (अनुदित उपन्यास), छायावाद और अन्य निबंध, स्मृतिपुंज, विश्वबोध (काव्य संकलन), छायावाद और अन्य श्रेष्ठ निबंध, मेघदूत (छत्तीसगढ़ी अनुवाद)।
महाकवि कालिदास से पं. मुकुटधर पाण्डेय बहुत प्रभावित थे। भारतीयता की रक्षा के लिए कालिदास के ग्रंथों की रक्षा को आवश्यक मानते थे। उन्होंने न केवल कालीदास की मेघदूत का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद किया बल्कि कालिदास तथा मनोविज्ञान, कालिदासकालीन भारत का भौगोलिक चित्र, रघुवंष महाकाव्य में आदर्श स्थापना जैसे निबंध भी लिखे जो उनके कालिदास के प्रति उनकी आस्था को प्रकट करते हैं।
सन् 1928 ई. के कोलकाता कांग्रेस अधिवेशन में पं. मुकुटधर पाण्डेय को राष्ट्रभाषा सम्मेलन के अध्यक्ष महात्मा गांधी तथा नेताजी सुभाषचंद्र बोस के साथ मंच पर बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पं. मुकुटधर पाण्डेय को बीसवीं सदी के लगभग सभी महान् राजनीतिज्ञों, साहित्यकारों के संपर्क में आने का सौभाग्य मिला, जिनमें प्रमुख हैं- बनारसी दास चतुर्वेदी, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जयषंकर प्रसाद, बालकृष्ण शर्मा नवीन, माखनलाल चतुर्वेदी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, पं. माधवराव सप्रे, पं. रामदयाल तिवारी, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर, डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, भगवती चरण वर्मा, पं. रविशंकर शुक्ल आदि।
पाण्डेय जी का व्यक्तित्व बहुत ही आकर्षक एवं प्रभावषाली था। ष्वेत केष और धवल दाढ़ी से युक्त वे प्राचीन ऋषियों जैसे दिखाई देते थे। वे सभी से बडे़ पे्रमपूर्वक मिलते थे। नवोदित युवक कवि जब उनके पास आते तो वे उनकी रचनाओं और बातों को बड़े ध्यानपूर्वक सुनते व पढ़ते और उन्हें प्रोत्साहित करते थे। उनको छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी से अगाध प्रेम था। हरि ठाकुर को एक पत्र में उन्होंने लिखा था- ‘‘हम छत्तीसगढ़ी भाई जहाँ भी मिलें, आपस में छत्तीसगढ़ी में ही बात करें।’’ उनके द्वारा छत्तीसगढ़ी में अनुदित मेघदूत कालिदास के मूल काव्य से कम रोचक नहीं है।
पं. मुकुटधर पाण्डेय को पं. रविशंकर शुक्ल विश्व विद्यालय, रायपुर एवं गुरु घासीदास विश्वविद्यालय, बिलासपुर द्वारा डी.लिट. की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया था। 26 जनवरी सन् 1976 ई. को भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मश्री की उपाधि से विभूषित किया गया।
6 नवम्बर सन् 1989 ई. में रायपुर में लंबी बीमारी के बाद पाण्डेय जी का देहांत हो गया किंतु छायावाद के प्रवर्तक के रूप में वे हिंदी साहित्याकाश में दैदीप्यमान नक्षत्र के रुप में सदैव प्रकाशमान रहते हुए नव सृजनोन्मेषी मानसिकता की राह प्रशस्त करते रहेंगे।
राज्य निर्माण के उपरांत छत्तीसगढ़ शासन के स्कूल शिक्षा विभाग द्वारा उनकी स्मृति में राज्य स्तरीय पं. मुकुटधर पाण्डेय स्मृति शिक्षक सम्मान स्थापित किया गया है।
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17.
डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र
बलदेव प्रसाद मिश्र का जन्म 12 सितम्बर सन् 1898 ई. को राजनांदगाँव (छत्तीसगढ़) के एक संपन्न परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री नारायण प्रसाद मिश्र मालगुजार थे, साथ ही तत्कालीन राजनांदगाँव स्टेट में लोककर्म विभाग के ठेकेदार भी। उनकी माता श्रीमती जानकी देवी धर्मपरायण गृहिणी थीं। बलदेव प्रसाद मिश्र अपनी माँ से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने सन् 1914 ई. में स्थानीय स्टेट हाईस्कूल से मैट्रिक परीक्षा पास की। उच्च शिक्षा की प्राप्ति के लिए वे नागपुर चले गए। वहाँ उन्होंने एम. ए. तथा एल. एल. बी. की परीक्षा पास की।
सन् 1920 ई. में बलदेव प्रसाद राजनांदगाँव लौटे। असहयोग आंदोलन के समय उन्होंने प्यारेलाल सिंह के साथ मिलकर राजनांदगाँव में स्वदेशी राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की और विद्यार्थियों से सरकारी स्कूलों का त्यागकर इस विद्यालय में प्रवेश लेने हेतु आह्वान किया। मिश्र जी इस विद्यालय के अवैतनिक प्रधानपाठक थे। विद्यालय संचालन हेतु आवश्यक धन की व्यवस्था के लिए वे भागवत कथा का पाठ करते। उन दिनों लोग राष्ट्रीय विद्यालय को चंदा देने से कतराते थे। सरकार तथा स्टेट के भारी दबाव के कारण विद्यालय ज्यादा दिन तक नहीं चल सका।
सन् 1922 ई. में डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र रायपुर चले गए। वहाँ उन्होंने पं. रविशंकर शुक्ल के सहायक के रुप में वकालत प्रारंभ की। इसमें उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिली। सन् 1923 ई. में रायगढ़ नरेश चक्रधर सिंह के बुलावे पर वे वहाँ चले गए। वे लगातार सत्रह वर्षों तक क्रमश: नायब दीवान तथा दीवान जैसे महत्वपूर्ण पदों पर कार्य करते रहे। अपनी प्रशासनिक व्यवस्था में मिश्रजी ईमानदारी, निष्पक्षता, चारित्रिक दृढ़ता और अपूर्व कार्यक्षमता के लिए प्रसिद्ध रहे। उन्होंने जन कल्याण के लिए रायगढ़ में स्थाई महत्व के कई कार्य संपन्न कराए। इनमें अनाथालय, औद्योगिक प्रशिक्षण संस्था, संस्कृत पाठशाला, वाणिज्य महाविद्यालय तथा नेत्र चिकित्सालय प्रमुख हैं। उन्होंने राजा चक्रधर सिंह के नाम पर एक गौशाला का निर्माण कराया।
डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र की प्रेरणा से रायगढ़ में गणेषोत्सव नए तथा आकर्षक ढंग से मनाया जाने लगा। इसमें देशभर के संगीतकार, कलाकार एवं साहित्यकार भाग लेने लगे। रायगढ़ में कवि सम्मेलन की शुरुआत उन्होंने ही की। वे टाउन हाल में कवि सम्मेलन का आयोजन कराते जिसमें पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, भगवती चरण वर्मा, पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय, पं. मुकुटधर पाण्डेय जैसे दिग्गज कवि शामिल होते।
तत्कालीन रायगढ़ रियासत में बिताए सत्रह वर्ष डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र के जीवन का सर्वश्रेष्ठ समय रहा। यहीं पर उन्होंने ‘तुलसी दर्शन’ जैसे महाकाव्य और षोधप्रबंध का लेखन कार्य किया, जिस पर उन्हें सन् 1939 ई. में नागपुर विश्वविद्यालय ने डी.लिट्. की उपाधि प्रदान की थी। यहीं पर उन्होंने मृणालिनी परिणय, समाज सेवक, मैथिली परिणय, कोषल किषोर, मानस मंथन, जीवन संगीत, जीवविज्ञान और साहित्य लहरी जैसे उत्कृष्ट ग्रंथों की रचना की।
सन् 1940 ई. में डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र बीमार पड़ गए। इस कारण इन्होंने दीवान का पद छोड़ दिया। दीवान पद से मुक्त होकर उन्होंने एम. बी. आर्ट्स कॉलेज, बिलासपुर; दुर्गा महाविद्यालय, रायपुर; एवं कल्याण महाविद्यालय, भिलाई में अध्यापन कार्य किया। वे नागपुर विश्वविद्यालय में दस वर्षों तक हिंदी के अवैतनिक विभागाध्यक्ष तथा 5 मार्च सन् 1970 से 4 मार्च सन् 1971 ई. तक इंदिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ के उप कुलपति रहे।
डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र प्रयाग, लखनऊ, आगरा, दिल्ली, पंजाब, पटना, कलकत्ता, सागर, जबलपुर, नागपुर, वाराणसी, हैदराबाद तथा पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर से सम्बद्ध रहे तथा इन विश्व विद्यालयों के पी-एच.डी. व डी. लिट्. के शोध परीक्षक रहे। वे 100 से अधिक शोध ग्रंथों के निरीक्षक रहे।
डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र रायपुर, खरसिया तथा राजनांदगाँव की नगर पालिकाओं के अध्यक्ष व उपाध्यक्ष एवं खुज्जी के विधायक के रुप में जन कल्याण के अनेक कार्य करवाए। उनकी समाज सेवा में अभिरुचि देखकर पं. रविशंकर शुक्ल ने उन्हें ‘मध्यप्रदेश भारत सेवक समाज’ का संस्थापक बनाकर उसे संगठित करने का दायित्व सौंपा। बाद में पं. जवाहरलाल नेहरु ने उन्हें ‘भारत सेवक समाज’ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में ले लिया तब उनका कार्यक्षेत्र राष्ट्रीय स्तर का हो गया। डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र जहाँ-जहाँ भी रहे वहाँ उन्होंने शासन के सहयोग से अनेक कार्य करवाए। जैसे सड़क निर्माण, नहरें बनाना, कुएँ खुदवाना, स्कूल कॉलेज खोलना एवं भवन निर्माण कराना।
डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र ग्रामीण क्षेत्रों में रामायण का प्रवचन देकर राष्ट्रीय एकता तथा नैतिक जीवन की ओर लोगों को आकर्षित करते। मर्यादा पुरुषोŸाम भगवान श्रीरामचंद्र जी उनके जीवन के साथ-साथ साहित्य के भी आराधक थे। वे मानस प्रसंग के एक यषस्वी प्रवचनकार थे। उन्हें राष्ट्रपति भवन में भी प्रवचन के लिए भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसादजी ने आमंत्रित किया था।
डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र ‘मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के तीन बार (सागर, नागपुर तथा रायपुर) अध्यक्ष बने। वे अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के तुलसी जयंती समारोह के अध्यक्ष, गुजरात प्रदेषीय एवं मुंबई प्रदेशीय राष्ट्रभाषा सम्मेलन एवं पदवी दान महोत्सव के अध्यक्ष बने।
सन् 1946 में डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र की अमरकृति महाकाव्य ‘साकेत संत’ प्रकाशित हुई। उन्होंने अस्सी से अधिक ग्रंथों की रचना की। वे ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों में लिखते थे। गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं पर उनका समान अधिकार था।
प्रशासन, समाज-सेवा और शिक्षा आपके कर्मक्षेत्र रहे तथा साहित्य जीवन साधना रही है। 5 सितम्बर सन् 1975 को उनका देहांत हो गया।
छत्तीसगढ़ शासन के स्कूल शिक्षा विभाग द्वारा उनकी स्मृति में राज्य स्तरीय डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र स्मृति शिक्षक सम्मान स्थापित किया गया है।
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राजा चक्रधर सिंह
भारत की स्वतंत्रता से पूर्व वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य के के उत्तर-पूर्व में रायगढ़ नामक एक छोटी-सी रियासत थी। इसके संस्थापक मदनसिंह के आठवीं पीढ़ी में धर्मप्रवण, प्रजावत्सल, शास्त्रीय एवं लोक कलाओं के महान संरक्षक राजा भूपदेव सिंह हुए। इनके द्वितीय पुत्र के रूप में 19 अगस्त सन् 1905 ई. को चक्रधर सिंह का जन्म हुआ था। इनकी माता का नाम रानी रामकुंवर देवी था।
नन्हें महाराज के नाम से विख्यात चक्रधर सिंह के जन्म की खुशी में राजा भूपदेव सिंह ने दो ऐतिहासिक कार्य किए- पहला रायगढ़ शहर में मोती महल का निर्माण तथा दूसरा पुत्रोत्सव को राजकीय गणेषोत्सव के नाम से प्रारंभ किया, जो गणेष मेला के नाम से पूरे देश में विख्यात हुआ। इसमें हजारों की संख्या में देश के कोने-कोने से संगीतकार, नर्तक दल, साहित्यकार, पहलवान तथा मुर्गा, बटेर लड़ाने वाले लोग आकर अपनी उत्कृष्ट कला का प्रदर्शन करते थे। पारखी संगीतज्ञों एवं साहित्यकारों के सान्निध्य में शास्त्रीय संगीत एवं साहित्य के प्रति चक्रधर सिंह की अभिरुचि जागी।
चक्रधर सिंह की प्रारंभिक शिक्षा राजमहल में ही उनके बड़े भाई नटवर सिंह के साथ हुई। नौ वर्ष की उम्र में सन् 1914 ई. में उन्हें तबला नवाज ठा. लक्ष्मण सिंह की देखरेख में रायपुर के प्रतिष्ठित राजकुमार कॉलेज में दाखिला दिलाया गया। यहाँ उनको षारीरिक, मानसिक, धार्मिक, दार्शनिक तथा संगीत की शिक्षा दी जाती थी। इसके अलावा बॉक्सिंग, शूटिंग और घुड़सवारी भी पाठ्यक्रम में शामिल था। चक्रधर सिंह टेनिस, फूटबाल और हॉकी के अच्छे खिलाड़ी भी थे।
व्यवहारकुशल, मृदुभाषी, अनुशासन प्रिय, नियमित एवं कठिन परिश्रमी होने के कारण चक्रधर सिंह कॉलेज के सभी शिक्षकों तथा प्राचार्य के प्रिय छात्र हो गए। वे यहाँ 1923 तक शिक्षा ग्रहण करते रहे। कॉलेज के बाद उन्हें एक वर्ष के प्रशासनिक प्रशिक्षण के लिए छिंदवाड़ा भेजा गया। प्रशासनिक प्रशिक्षण के दौरान ही उनका विवाह छुरा के जमींदार की कन्या डिश्वरीमती देवी के साथ हुआ। भारतरत्न बिस्मिला खाँ ने उनकी शादी में अपने वालिद और साथियों के साथ षहनाई बजाई थी।
उनके बड़े भाई राजा नटवर सिंह की अचानक मृत्यु हो गई। 15 फरवरी सन् 1924 ई. को चक्रधर सिंह का राजतिलक किया गया। अपनी परोपकारी नीति एवं मृदुभाषिता से चक्रधर सिंह अल्प समय में ही अत्यंत लोकप्रिय हो गए। उन्होंने बेगार प्रथा बंद करवा दी। कृषि, शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया। रायगढ़ में बादल-महल, गेस्ट-हाउस, टाउन हाल, अस्पताल, नलघर, विद्युत व्यवस्था, पुस्तकालय आदि का निर्माण उन्हीं के शासन काल में हुआ।
राजा बनने के बाद चक्रधर सिंह राजकीय कार्यों के अतिरिक्त अपना अधिकांश समय संगीत, नृत्य, कला और साहित्य साधना में लगाने लगे। उनके शासन काल में गणेश मेला अपने चरम पर था। अब देश-विदेश के संगीतज्ञ, कलाविद्, साहित्यकारों का आना-जाना पहले से अधिक होने लगा। उनके दरबार में सदैव गुणीजनों का समुचित आदर-सत्कार किया जाता था।
कहा जाता है कि उस समय भारत का ऐसा कोई भी महान कलाकार या साहित्यकार नहीं था जो राजा चक्रधर सिंह जी के दरबार में आतिथ्य और सम्मान न पाया हो। इनमें पं. ओंकारनाथ, मनहर बर्वे, नारायण व्यास, पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर जैसे महान संगीतज्ञ तथा पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी, पं. माखन लाल चतुर्वेदी, भगवतीचरण वर्मा, पं. जानकी बल्लभ शास्त्री, डॉ. रामकुमार वर्मा, रामेश्वर शुक्ल अंचल, पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय एवं पद्मश्री मुकुटधर पाण्डेय जैसे महान साहित्यकार षामिल थे। डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र तो उनके दीवान थे, जबकि आनंद मोहन वाजपेयी उनके निजी सचिव तथा महावीर प्रसाद द्विवेदी उनके पथ प्रदर्षक थे। उन्होंने पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर को स्वयं एक हजार एक रुपये देकर सम्मानित किया था।
राजा चक्रधर सिंह ने पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी को ‘सरस्वती’ से अवकाश प्राप्त करने के पश्चात् जीवन पर्यन्त प्रतिमाह पचास रुपये की आर्थिक सहायता देकर अपनी उदारता एवं संस्कृतिप्रियता का उदाहरण प्रस्तुत किया था। साहित्य और कला के विकास में राजकोष से धन खर्च करने में उन्होंने कभी कोई संकोच नहीं किया।
राजा चक्रधर सिंह ने न केवल अपने संगीत तथा कलाप्रिय पिता की परंपरा को आगे बढ़ाकर संरक्षण दिया बल्कि स्वयं भी संगीत सभाओं और सम्मेलनों में भाग लेकर मंच पर कई महत्वपूर्ण प्रदर्शन किए। वे समर्पित कला साधक होने के साथ-साथ उच्चकोटि के विद्वान, संगीत शास्त्र के ज्ञाता, कुशल नर्तक, तबला तथा सितार वादक थे। उनके आमंत्रण पर जयपुर घराने के गुरु पं. जगन्नाथ तथा लखनऊ घराने के गुरु कालिका प्रसाद तथा उनके तीनों पुत्र अच्छन महाराज, लच्छू महाराज तथा षंभू महाराज रायगढ़ आए। संगीत और नृत्य के इन महान कलाकारों से रायगढ़ राज परिवार के लोगों के साथ ही संगीत तथा नृत्य में विशेष रुचि रखने वाले कई अन्य लोगों ने भी कत्थक नृत्य की शिक्षा प्राप्त की।
राजा चक्रधर सिंह ने कत्थक की कई नई बंदिशें तैयार की। नृत्य और संगीत की इन दुर्लभ बंदिशों का संग्रह संगीत ग्रंथ के रूप में सामने आया, जिनमें मूरज चरण पुष्पाकर, ताल तोयनिधि, राग रत्न मंजूषा और नर्तन स्र्वस्वं विशेष तौर पर याद किए जाते हैं। अपनी अनुभूति तथा संगीत की गहराइयों में डूबकर उन्होंने लखनऊ, बनारस और जयपुर कत्थक शैली की तर्ज पर एक विशिष्ट स्वरूप विकसित किया जिसे रायगढ़ घराने के नाम से जाना जाता है।
सन् 1938 ई. में इलाहाबाद में आयोजित अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में राजा चक्रधर सिंह को अध्यक्ष चुना गया था। यह उनकी सांगीतिक प्रतिभा का ही सम्मान था। सन् 1939 ई. में दिल्ली में तत्कालीन वायसराय तथा देश के समस्त राजा-महाराजाओं की उपस्थिति में आयोजित अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में कार्तिक-कल्याण के नृत्य प्रस्तुतिकरण में उन्होंने तबले पर संगत की थी जिससे वायसराय तथा दतिया नरेष ने प्रभावित होकर उन्हें संगीत सम्राट की उपाधि से सम्मानित किया।
राजा चक्रधर सिंह जी का हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, उड़िया, उर्दू तथा बांग्ला आदि कई भाषाओं पर अच्छा अधिकार था। वे स्वयं एक संगीतकार होने के साथ-साथ अच्छे लेखक भी थे। वे हिंदी काव्य में अपना उपनाम चक्रप्रिया तथा उर्दू में फरहत लिखा करते थे। उनकी साहित्यिक रचनाओं में अल्कापुरी तिलस्मी, मायाचक्र, रम्य रास, बैरागढ़िया राजकुमार, काव्य कानन, प्रेम के तीर, रत्नहार, मृगनयनी आदि प्रमुख हैं। जोषे फरहद और निगाहें फरहद उर्दू में लिखी उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।
राजा चक्रधर सिंह को पतंगबाजी का बड़ा शौक था। उन्होंने मोती महल के ऊपर एक विशाल कक्ष को पतंग एवं मंझा के लिए सुरक्षित रखा था। वे प्रतिवर्ष लखनऊ से पतंग उड़ाने वालों को आमंत्रित कर पतंग उड़ाने का दर्शनीय आयोजन कराते थे।
राजा चक्रधर सिंह की दिलचस्पी कुश्ती में भी थी। उस समय के कई मशहूर पहलवानों को उन्होंने अपने राज्य में संरक्षण दिया था, जिनमें पूरन सिंह निक्का, गादा चौबे, तोता, गूँगा, गुर्वथा, मुक्का, बंशीसिंह तथा ठाकुर सिंह प्रमुख थे। उनके दरबार में जानी मुखर्जी तथा एम.के. वर्मा जैसे नामी गिरामी पेंटर थे जो पोट्रेट के अलावा पुस्तकों के चित्रों का भी निर्माण करते थे।
7 अक्टूबर सन् 1947 को मात्र 42 वर्ष की अल्प आयु में ही राजा चक्रधर सिंह का निधन हो गया। संगीत के क्षेत्र में उनके विशिष्ट योगदान को ध्यान में रखते हुए मध्यप्रदेश शासन ने भोपाल में चक्रधर नृत्यकला केंद्र की स्थापना की। अपने लोकप्रिय महाराज की स्मृति में रायगढ़वासियों ने नगर के एक मोहल्ले का नाम चक्रधर नगर रखा है।
राजा चक्रधर सिंह के निर्वाण के पश्चात् गणेश मेला शासकीय संरक्षण के अभाव में बंद हो गया था जिसे सन् 1985 में चक्रधर नृत्यकला केंद्र द्वारा स्थानीय कलाकारों तथा जन सहयोग से एवं सन् 1986 में शासकीय संरक्षण एवं मान्यता प्रदान कर आरंभ किया गया।
1 नवम्बर सन् 2000 को नवीन राज्य निर्माण के उपरांत छत्तीसगढ़ शासन के द्वारा उनकी स्मृति में कला एवं संगीत के लिए राज्य स्तरीय चक्रधर सम्मान स्थापित किया गया है।
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19.
संत गहिरा गुरु
संत गहिरा गुरु एक महान समाज सुधारक, दार्शनिक एवं तपस्वी संत थे। उनका जन्म सन् 1905 ई. में गहिरा ग्राम में हुआ था। गहिरा छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के लैलूँगा विकासखंड में स्थित है। उनके पिताजी श्री बुड़की कँवर एक संपन्न किसान तथा गाँव के मुखिया थे। माताजी का नाम सुमित्रा देवी था। गहिरा गुरु का असली नाम रामेश्वर कँवर था।
अन्य बनवासी बच्चों की तरह ही रामेश्वर का बचपन बीता। वे हमउम्र बच्चों में सबसे तेज, चंचल एवं साहसी थे। आसपास के जंगल में पालतू पषुओं को चराना उनका मुुख्य कार्य तथा पेड़ों पर चढ़ना, पानी में तैरना, लुकाछीपी खेलना व ढोल पीटकर नृत्य करना मनोरंजन के साधन थे। वे गायों की सेवा मन लगाकर करते थे। रामेश्वर अपने पिता और बडे़ भाई के कार्यों में पूरा सहयोग करते थे। सबके प्रति उनके मन में अपार करुणा एवं दया थी। जानवरों का कष्ट देख उनकी आँखों में आँसू आ जाते। उन्होंने अपने भाईयों के साथ मिलकर एक विशाल गौशाला बनाई थी।
रामेश्वर के गाँव में कोई पाठशाला नहीं थी। यही कारण हैं कि वे विद्याध्ययन हेतु कभी पाठशाला नहीं गए। कभी कोई साधु-संन्यासी घूमते हुए गाँव में आकर लोगों को जो कुछ भी अच्छी बातें बताते वही इन वनवासियों के लिए ब्रह्मवाक्य था। ऐसे ही किसी साधु से रामेश्वर ने अक्षर ज्ञान प्राप्त किया। किशोरावस्था में पहुँचते तक रामेश्वर गंभीर और मौन रहने लगे।
रामेश्वर वनवासियों की दयनीय स्थिति से बहुत दुःखी थे। उन्होंने इन्हें स्वावलंबी बनाने का प्रयास किया। वे रात-रात भर जंगलों में भटकते। कभी-कभी समाधिस्थ हो जाते। समाधि टूटने पर वे साथी चरवाहों को प्रवचन सुनाते। वे रात भर जंगल में भटकने के बावजूद दिन निकलने से पहले घर आकर अपने काम में लग जाते थे।
कालांतर में रामेश्वर जी का विवाह क्रमश: पूर्णिमा देवी तथा गंगा देवी के साथ हुआ। भरापूरा परिवार रहने के बाद भी उनकी साधना में कोई असर नहीं पड़ा। उनका जीवन धीरे-धीरे अंतर्मुखी होता चला जा रहा था। रामेश्वर जी की स्वच्छता, अनुशासन, समाधि लगाना, तुलसी के पौधे में जल चढ़ाना देखकर लोग उनसे दूरी बनाए हुए थे।
रामेश्वर ने टीपाझरन नामक स्थान पर लगातार आठ दिन साधना की। अब वे पूर्ण भक्त बन गए। उन्होंने गहिरा में महाषिवरात्रि के दिन एक मंदिर का निर्माण कर उसमें शिवलिंग की प्रतिष्ठा की।
रामेश्वर जी अपने समाज के लोगों को पूजा-पाठ, साफ-सफाई एवं सात्विक जीवन व्यतीत करने का संदेश देते। वे मंदिर तथा अपने घर के बरामदे में प्रतिदिन संकीर्तन करते। इसे सुनने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे। वे स्वयं बाँसुरी बजाते तथा भाव-विभोर होकर नृत्य करते तो भक्तगण भी भक्ति-सागर में डूब जाते। इस तरह से उन्होंने लोगों को संगठित करना शुरु किया। अब उन्हें लोग गहिरा गुरुजी कहने लगे।
रामेश्वर गुरुजी की बातों को कुछ लोग अमल में लाने लगे परंतु ज्यादातर लोग स्वच्छता का महत्व समझ ही नहीं पाते। स्वच्छता अभियान में तेजी लाने के लिए गुरुजी ने अपने विश्वस्त 20 युवकों का दल बनाया जो घर-घर जाकर लोगों को स्वच्छता का महत्व समझाता। उनके रात्रिकालीन भजन कीर्तन में महिलाएँ भी षामिल होती थीं। वे उन्हें समझाते कि हम लोग भूत-प्रेत या दैवीय प्रकोप से बीमार नहीं पड़ते बल्कि हमारी बीमारी का प्रमुख कारण अस्वच्छता है।
रामेश्वर जी के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा आकर्षण था कि लोग उनसे सहज ही प्रभावित हो जाते। उन्होंने अपने साथियों के साथ पूरे गाँव की सफाई की ओर दो ही दिन में गाँव के सभी पेडों के चारों ओर चबूतरा बनाया। संत गहिरा गुरु के भक्तों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी। वे चाहते थे कि लोग एक व्यक्ति से न जुड़कर संगठन से जुडे़ं। इस हेतु उन्होंने 1943 में गहिरा में सनातन धर्म संत समाज की स्थापना की। उनके सभी भक्त इसके सदस्य बन गए। समाज के लोगों की अपनी एक अलग पहचान हो इसके लिए वे सभी गहिरा गुरुजी के आदेश पर ष्वेत वस्त्र धारण करते, सुबह-षाम परिवार के बडों केा ‘शरण’ (प्रणाम) करते, प्रत्येक गुरुवार को एक परिवार में सामूहिक रामचरित मानस का पाठ करते। प्रतिदिन एक मुठ्ठी चावल और चार आना समाज के लिए निकालते। साल में तीन दिन निःषुल्क श्रमदान करते।
गहिरा गुरु के हजारों स्वयंसेवी अनुयायियों ने घूम-घूमकर संत समाज के आदर्शों का जगह-जगह प्रचार प्रसार किया। परिणामस्वरुप रायगढ़, सरगुजा, बिलासपुर, जषपुर, झारखण्ड, उड़िसा एवं उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र के लाखों दलित एवं पिछडे़ वर्ग के लोग संस्था से जुड़ते गए। सामरबार, कैलाश गुफा, श्रीकोट, चम्पाक्षेत्र, अंबिकापुर, विश्रामपुर, सुपलगा, ककना, पत्थलगाँव, राजपुर, लैलूंगा, गहिरा में संस्था के आश्रमों की स्थापना की गई।
5 जनवरी सन् 1985 ई. में सनातन संत समाज संस्था का पंजीयन कराया गया। शासकीय अनुदान प्राप्त होने से उनके कल्याणकारी कार्यों के क्रियान्वयन में तेजी आ गई। वाराणसी संस्कृत विश्वविद्यालय से संस्था को महाविद्यालय संचालित करने की संबद्धता मिल गई। सामरवार में उच्चतर माध्यमिक विद्यालय एवं महाविद्यालय प्रारंभ किया गया। कालांतर में अनेक विद्यालय एवं छात्रावास भी खोले गए जहाँ सैकड़ों विद्यार्थी पढ़ाई करने लगे। यहाँ विद्यार्थी शिक्षा के साथ-साथ उत्तम संस्कार भी ग्रहण करते हैं।
संस्था को स्थापित करने में उन्हें कई प्रकार की कठिनाइयों का सामाना करना पड़ा। सन् 1947 ई. में भारत की स्वतंत्रता के समय जब नौआखली मे भीषण दंगे हुए तो गहिरा गुरु जी राष्ट्रपिता महात्मा गाँधीजी के साथ लोगों को शांति व्यवस्था बनाए रखने की अपील कर रहे थे।
आदिवासी समुदाय के कल्याण के लिए गुरुजी द्वारा किए गए उल्लेखनीय योगदान हेतु उन्हें सन् 1986-87 ई. के इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय समाज सेवा पुरस्कार के लिए चुना गया। तात्कालीन राष्ट्रपति महामहिम ज्ञानी जैलसिंह ने उन्हें यह पुरस्कार दिया। मध्यप्रदेश शासन ने भी गहिरा गुरुजी को आदिवासी समाज सेवा कार्य में विशिष्ट योगदान के लिए मरणोपरांत बिरसा मुण्डा पुरस्कार तथा शहीद वीर नारायण सिंह पुरस्कार से सम्मानित किया।
21 नवम्बर, 1996 को गुरुजी का देहावसान हो गया।
छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में गहिरा गुरु पर्यावरण पुरस्कार स्थापित किया है।
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20.
महाराजा रामानुज प्रताप सिंहदेव
रामानुज प्रताप सिंहदेव का जन्म 8 दिसंबर सन् 1901 ई. को छत्तीसगढ़ के उत्तर में स्थित कोरिया रियासत की राजधानी बैकुंठपुर में हुआ था। उनके पिता शिवमंगल अत्यंत न्यायप्रिय तथा कर्तव्यनिष्ठ राजा थे। राजा शिवमंगल सिंह हमेशा जन-कल्याण के बारे में सोचते थे। वे प्रतिदिन एक घंटा जनता की समस्याओं को सुनते और यथासंभव उनका समाधान करते थे। राजकुमार रामानुज पाँच साल के होते ही साथ राजसभा में बैठने लगे थे। वे राजसभा की कार्यवाही बड़े ध्यान से देखते-सुनते। उनके बालमन पर पिताजी के कल्याणकारी कार्यों का बहुत प्रभाव पड़ा।
पिताजी के देहावसान के बाद मात्र आठ वर्ष की अल्पायु में रामानुज राजगद्दी पर बैठे। उनके नाबालिग होने के कारण कोरिया को न्यायिक अभिरक्षा के अंतर्गत ले लिया गया। अब राज्य की शासन व्यवस्था रायपुर स्थित पोलिटिकल एजेंट द्वारा अपने अधीक्षक के माध्यम से होने लगी। रामानुज अपनी प्रारंभिक शिक्षा बैकुंठपुर में पूरी कर आगे की पढ़ाई के लिए सन् 1911 ई. में वे रायपुर के राजकुमार कॉलेज में भर्ती हो गए। सन् 1920 ई. में उन्होंने चीफ कालेजेज का डिप्लोमा प्राप्त किया। इसमें उन्होंने पूरे भारत में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इसी वर्ष छोटा नागपुर की राजकुमारी दुर्गादेवी के साथ उनका विवाह हुआ। विवाह के बाद वे इलाहाबाद के गवर्नमेंट कॉलेज में प्रवेश लिए। उन्होंने सन् 1922 ई. में इंटरमीडिएट पास कर इलाहाबाद विश्व विद्यालय में प्रवेश लिया तथा 1924 में बी.ए. की डिग्री प्राप्त की। वे अत्यंत आकर्षक व्यक्तित्व और सुडौल शरीर के धनी थे। वे प्रतिदिन भारतीय तथा पाश्चात्य दोनों प्रकार की कसरतें करते थे।
विद्यार्थी जीवन में रामानुज क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी थे। नागपुर में आयोजित चतुष्कोणीय क्रिकेट प्रतियोगिता में वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दू दल का प्रतिनिधित्व किए। इसमें वे आरंभिक बल्लेबाज के रूप में महान खिलाड़ी सी. के. नायडू के साथ पारी की शुरूआत करते थे। इलाहाबाद में पं. मदनमोहन मालवीय उनके स्थानीय अभिभावक थे। यहीं वे पं. मोतीलाल नेहरू, पं. जवाहरलाल नेहरू तथा डी.पी. मिश्रा के संपर्क में आए। इन महान विभूतियों के सानिध्य में ही उनको देशभक्ति की प्रेरणा मिली।
पढ़ाई पूरी करने के बाद पाँच जनवरी सन् 1925 ई. को मध्यप्रांत एवं बरार के तत्कालीन गवर्नर सर फ्रेंकस्लाई ने रामानुज प्रताप सिंहदेव को संपूर्ण प्रशासनिक अधिकार सांैप दिए। तत्पश्चात् बैकुंठपुर में उनका विधिवत् राजतिलक हुआ। राज्य की जिम्मेदारी संभालने के बाद रामानुज प्रताप ने अपने पिताजी द्वारा आरंभ की गई विकास की प्रक्रिया जो उनके निधन के बाद शिथिल हो गई थी, उसे आगे बढ़ाया।
रामानुज प्रताप सिंहदेव अपने राज्य को एक आदर्श राज्य के रूप में विकसित करना चाहते थे। उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि को सर्वाधिक महत्व दिया। उन्हें विश्वास था कि शिक्षा के माध्यम से ही जनता का विकास संभव है। उन्होंने गाँवों में प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालय खोले। महाराज स्वयं विद्यालयों का निरीक्षण करते। निरीक्षण के दौरान दीवान तथा शिक्षा विभाग के अधिकारी भी साथ में रहते थे।
रामानुज प्रताप सिंहदेव के प्रयासों से सन् 1946 ई. में कोरिया राज्य में प्रौढ़ शिक्षा के 64 केंद्र संचालित थे। उन्होंने प्रत्येक विद्यालय में एक-एक भृत्य की भर्ती की थी जो प्रतिदिन स्कूल के काम के साथ ही अनुपस्थित रहने वाले विद्यार्थियों को घर से बुलाकर लाते। सभी बच्चे विद्यालय जाएँ, इसका भरपूर प्रयास किया गया। शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी। बच्चों को स्कूल भेजने के लिए अभिभावकों को प्रेरित किया जाता था। निर्धन बच्चों को पाठ्यपुस्तकें तथा कापियाँ निःशुल्क दी जाती थी।
माता-पिता को बच्चों के भोजन की चिंता न रहे और बच्चे स्कूल नियमित रूप से आएँ, इसके लिए सभी बच्चों को स्कूल में चना-गुड़ खाने के लिए दी जाती। उन्होंने नियमित रूप से स्कूली विद्यार्थियों के स्वास्थ्य परीक्षण और डाक्टर के निर्देशानुसार दवाइयों के निःषुल्क वितरण की व्यवस्था की। उन्होंने ऐसे चिकित्सकों की नियुक्ति की जो बारी-बारी से स्कूलों में जाते, बच्चों का स्वास्थ्य परीक्षण व टीकाकरण करते और जरुरत पड़ने पर दवाई भी देते। बच्चों को स्वास्थ्य कार्ड दिया जाता था।
पूरे रियासत के स्कूलों का प्रतिवर्ष एक बार वार्षिक खेलकूद तथा सांस्कृतिक प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता था। स्कूलों में स्काउट गाइड सुविधा के साथ-साथ खेल के मैदान भी होते थे। बच्चों में पर्यावरण चेतना जाग्रत करने के उद्देश्य से हर विद्यालय का अपना एक छोटा-सा उद्यान भी होता था। यहाँ बच्चे वृक्षारोपण करते तथा उसकी देखभाल करते।
रामानुज प्रताप सिंहदेव ने बैकुंठपुर में एक हाईस्कूल खोला जो आज शासकीय बहु-उद्देशीय उच्चतर माध्यमिक कहा जाता है। सभी विद्यालयों में उन्होंने एक-एक लघु ग्रंथालय की स्थापना की। इसमें किताबों की अदला-बदली कर स्कूली विद्यार्थियों को पुस्तकें तथा पत्र-पत्रिकाएँ उपलब्ध कराई जाती थी। उन्होंने कई ऐसे छात्रावास खोले, जहाँ गरीब बच्चों को निःशुल्क, भोजन, वस्त्र एवं पुस्तकें उपलब्ध कराई जाती थी। राज्य के बाहर उच्च शिक्षा के लिए जाने वाले विद्यार्थियों को विशेष छात्रवृत्ति दी जाती थी। उन्होंने राज्य में कई तालाब तथा कुएँ खुदवाए। सिंचाई की व्यवस्था होने से कृषि उपज में भी बढ़ोत्तरी हुई।
रामानुज प्रताप सिंहदेव ने बैकुंठपुर, मनेंद्रगढ़, सोनहत तथा चिरमिरी में चिकित्सालय खोले। सन् 1945 ई. में आयुर्वेदिक दवाइयों के निर्माण हेतु एक दवा निर्माण केंद्र की स्थापना की। मलेरिया के उपचार हेतु शिक्षकों के माध्यम से कुनैन का वितरण किया जाता था। विभिन्न प्रकार के मौसमी तथा संक्रामक बीमारियों की रोकथाम के लिए कम्पाउंडर तथा डाक्टर गाँवों का नियमित अंतराल पर भ्रमण भी करते।
रामानुज प्रताप सिंहदेव ने सन् 1925 ई. में सहकारिता आंदोलन के समय किसानों को प्रोत्साहित किया और उन्हें यथा संभव सहायता की। उन्होंने अपने राज्य में छह राजकीय कृषि फार्म बनवाए। यहाँ से किसानों को धान, गेंहूँ, तिलहन एवं दलहन के उन्नत बीजों का विकास कर कृषकों को दिया जाता था। किसानों को न्यूनतम ब्याज पर कृषि उपकरण एवं पशु खरीदने के लिए ऋण उपलब्ध कराया जाता था।
रामानुज प्रताप सिंहदेव के प्रयासों से सन् 1928 ई. में क्षेत्र की पहली कोयला खदान का खरसिया एवं चिरमिरी में शुभारंभ किया गया। यहाँ कामगारों के हित एवं सुरक्षा के व्यापक प्रबंध किए गए। देश का पहला न्यूनतम वेतन कानून ‘कोरिया अवार्ड‘ उन्होंने ही बनवाया और अपने राज्य में लागू कराया। बाद में इसी के आधार पर भारत सरकार ने ‘वेज बोर्ड फार कोल माइंस वर्कर्स‘ की स्थापना की। उन्होंने परिवहन के विकास हेतु सड़क एवं रेलमार्ग के निर्माण व विस्तार में भी कार्य करवाया। उन्होंने स्वयं वायसराय से इस संबंध में भेंट की। उन्हीं के प्रयासों से सन् 1928 ई. में बिजूरी से चिरमिरी तक रेल्वे लाइन बिछाने का कार्य आरंभ हुआ। सन् 1930 ई. में मनेंद्रगढ़ तक रेलसेवा एवं सन् 1931 ई. में चिरमिरी रेलसेवा प्रारंभ हुआ।
सन् 1931 ई. में लंदन में आयोजित द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में महात्मा गांधीजी के नेतृत्व में सम्मिलित कांग्रेस दल में भारतीय शासकों का प्रतिनिधित्व रामानुज प्रताप सिंहदेव ने ही किया। प्रतिनिधि मंडल में वे सबसे कम उम्र के थे, किंतु सम्मेलन में उनके उद्बोधन की सभी लोगों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की।
रामानुज प्रताप सिंहदेव कुशल वक्ता होने के साथ-साथ एक अच्छे लेखक भी थे। उनके लेख समय-समय पर हिन्दी एवं अंग्रेजी के स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते थे। उन्होंने अपने महल में एक समृद्ध ग्रंथालय की स्थापना की थी। वे यहाँ बैठकर पढ़ते-लिखते।
वे सन् 1931 से सन् 1941 तक अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के उपाध्यक्ष थे। उनके न्यायप्रिय एवं विनम्र स्वभाव के कारण राज्य का कोई भी नागरिक उनके पास जाने में नहीं हिचकिचाता। वे अत्यंत दयालु, व्यवहार कुशल एवं संवदेनशील राजा थे। सन् 1942 ई. में उनके राज्य में अकाल पड़ा। तब उन्होंने बर्मादेश (वर्तमान म्यंमार) से चावल आयात कर गरीबों में वितरित करने की व्यवस्था की।
15 दिसंबर सन् 1947 ई. को उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल के समक्ष मध्यप्रांत एवं बरार में कोरिया के विलयन अनुबंध पत्र हस्ताक्षर किया। उन्होंने सन् 1948 ई. में मध्य प्रांत, बरार द्वारा नियुक्त प्रषासक को महल को छोड़कर सारे भवन और कोरिया स्टेट खजाने की 1.20 करोड़ रूपये की राशि जमा करा दी। प्रधानमंत्री उनको गवर्नर बनाना चाहते थे। उन्होंने गवर्नर बनना अस्वीकार कर दिया। बाद में वे कोलकाता फिर पुणे चले गए। अब उनका अधिकांश समय चित्रकारी एवं फोटोग्राफी में बीतने लगा।
6 अगस्त सन् 1954 ई. को मुंबई में उनका देहावसान हो गया।
छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में श्रम एवं उत्पादकता वृद्धि के क्षेत्र में अभिनव प्रयत्नों के लिए राज्य स्तरीय महाराज रामानुज प्रताप सिंहदेव सम्मान स्थापित किया है।
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21.
दाऊ मंदराजी
छत्तीसगढ़ी नाचा के जनक दाऊ मंदराजी का जन्म 1 अप्रैल सन् 1910 को राजनांदगाँव के समीपस्थ ग्राम रवेली में हुआ था। उनके पिता दाऊ रामाधीन एक संपन्न मालगुजार थे। उनकी चार-पाँच गाँवों की मालगुजारी थी। मालगुजारों को छत्तीसगढ़ में सम्मान के साथ ‘दाऊ’ कहा जाता है।
दाऊ मंदराजी का वास्तविक नाम दुलार सिंह साव था। इनके नाम के संबंध में कहा जाता है कि बचपन में एकदम गोल-मटोल तथा स्वस्थ सुंदर थे। एक बार वे अपने नानाजी के घर के आँगन में खेल रहे थे। वहीं तुलसी चैरा में किसी गोल-मटोल मद्रासी की मूर्ति रखी हुई थी। उसे देखकर बालक दुलार सिंह ने अपने नानाजी से पूछा कि ‘ये कौन हैं’ तो नानाजी ने अपने हँसमुख स्वभाव के कारण मजाक-मजाक में कह दिया कि ‘ये बिलकुल तेरी तरह है। अब से हम तुझे मद्रासी कहेंगे।’’ नानाजी का यह मद्रासी संबोधन आगे चलकर मंदराजी में बदल गया और लोग उनको मंदराजी कहने लगे।
दुलार सिंह ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा सन् 1922 ई. में पूरी की। उनके माता-पिता उन्हें खूब पढ़ाना-लिखाना चाहते थे किंतु गीत, संगीत और नाचा के प्रति विशेष लगाव होने के कारण वे अपना अधिकांश समय नाच-गाना में बिताने लगे। उनके गाँव रवेली में कुछ लोक कलाकार थे। उनसे ये चिकारा और तबला बजाना सीख लिए। वे आस-पास के गाँवों के सभी धार्मिक एवं सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेते थे। जहाँ कहीं भी ऐसा कोई कार्यक्रम होता वे अपने पिताजी के मना करने पर भी जाते और रात-रात भर नाचा आदि के कार्यक्रम देखते तथा उसमें भाग लेते।
इनके व्यवहार में बदलाव की उम्मीद से उनके पिताजी ने मंदराजी का विवाह भोथली-तिरगा गाँव की एक सुंदर कन्या राम्हिन बाई से करवा दिया पर इसका कोई प्रभाव उन पर नहीं पड़ा।
नाचा पहले राजा-रजवाड़ों के मनोरंजन का साधन था। इसीलिए इसका प्रचार-प्रसार कम था। दाऊ मंदराजी ने इसके प्रचार-प्रसार का जिम्मा उठाया। अपना तन-मन और धन लगा कर उन्होंने नाचा को जन-जन में लोकप्रिय बना दिया। उन दिनों गाँव-गाँव में खडे़ साज का बोलबाला था। मंदराजी ने नया प्रयोग किया और खडे़ साज को बैठकी साज में बदला। अब सभी कलाकार बैठकर बजाते थे। वे हारमोनियम के साथ-साथ चिकारा, तबला वादन एवं गायन में भी सिद्ध हस्त थे। दाऊ मंदराजी ने नाचा को तत्कालीन समय में व्याप्त कई प्रकार विकृति से बचाते हुए परिष्कृत करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने मदन निषाद, लालू, ठाकुर राम, बोड़रा, भुलवा दास, फिदाबाई मरकाम, जयंती, नारद, सुकालू और फागूदास जैसे सक्षम कलाकारों के साथ मिलकर रवेली नाचा पार्टी का गठन किया। वे इसके संचालक थे। यह समूचे छत्तीसगढ़ की सबसे लोकप्रिय तथा पहली संगठित नाचा पार्टी थी।
दाऊ मंदराजी ने नाचा में कई प्रयोग किए और उसे नई ऊँचाई तक पहुँचा दिए। सन् 1940 से 1952 ई. तक के समय को रवेली नाचा पार्टी का स्वर्णिम युग माना जाता है। उन्होंने अपने नाचा और गम्मत के माध्यम से बेमेल विवाह, ऊँच-नीच, अस्पृष्यता, बाल विवाह, दहेज, सांप्रदायिकता, अंधविश्वास एवं साहूकारों के शोषण जैसी सामाजिक बुराइयों का समाज के सामने उजागर करना चाहते थे। पोंगवा पंडित के माध्यम से उन्होंने समाज से अस्पृष्यता को दूर करने की कोषिष की। ईरानी के माध्यम से उन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता स्थापित की। मोर नाँव दमाद अऊ गाँव के नाँव ससुरार में उन्होंने बाल विवाह की बुराइयों को समाज के सामने रखा। इसी प्रकार मरारिन में उन्होंने देवर भाभी के रिश्ते को माता-पुत्र के समान बताया। उनकी नाचा पार्टी ने स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में लोगों में देशभक्ति की भावना जगाने का कार्य किया। यही कारण है कि अंग्रेज सरकार ने उस पर रोक लगा दी थी।
दाऊ मंदराजी की नाचा पार्टी के कार्यक्रम रायपुर, दुर्ग, राजनांदगाँव, जगदलपुर, अंबिकापुर, रायगढ़, बिलासपुर, संबलपुर, टाटा नगर के कई छोटे-बड़े शहर एवं गाँव में हुए तथा लोगों ने पसंद किया। नाचा के माध्यम से छत्तीसगढ़ अंचल की लोक संस्कृति को जीवंत रखने और उनके समुचित संरक्षण के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। दाऊ मंदराजी ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में गुमनामी तथा गरीबी में गुजारा किया। 24 सितम्बर सन् 1948 को दाऊ मंदराजी का निधन हो गया। वे अपने व्यक्तिगत लाभ या प्रशंसा की चाहत न रखते हुए जीवनभर नाचा को समृद्ध करने में लगे रहे।
छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में लोककला के क्षेत्र में दाऊ मंदराजी सम्मान स्थापित किया है।
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दाऊ रामचन्द्र देशमुख
छत्तीसगढ़ अंचल में सांस्कृतिक पुनर्जागरण के अग्रदूत तथा कला जगत के धूमकेतु की उपमा से विभूषित दाऊ रामचन्द्र देशमुख ने अपनी लोककला, लोकगीत के माध्यम से शोषण और अभावों से जूझती छत्तीसगढ़ी समाज को जागृत करने के लिए सार्थक पहल की। छत्तीसगढ़ अंचल के अभाव ग्रस्त जीवन एवं पीड़ा ने उन्हें इतना मर्माहत किया कि यही उनकी सभी प्रस्तुतियों का मूल स्वर बन गया।
रामचन्द्र देशमुख का जन्म 25 अक्टूबर सन् 1916 ई. को दुर्ग जिले के पिनकापार नामक गांव में हुआ। उनके पिता श्री गोंविंद प्रसाद एक सम्पन्न किसान थे। बालक रामचन्द्र को बचपन से ही नाचा और नाटक देखने का शौक था। वे स्वयं पारंपरिक नाटकों तथा रामलीला में भाग लेने लगे। प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय विद्यालयों में पूरी करने के बाद उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से कृषि विषय में स्नातक की उपाधि अर्जित की। नागपुर विश्वविद्यालय से ही उन्होंने वकालत की परीक्षा भी उत्तीर्ण की।
देश में उन दिनों स्वाधीनता आंदोलन अपनी चरम सीमा पर थी। महात्मा गांधी जी के संपर्क में आने के बाद कुछ समय के लिए वे वर्धा आश्रम चले गए। यहाँ उन्होंने मानव सेवा, सादगी और सत्याचरण का संकल्प लिया। इसी बीच प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी डॉ. खूबचंद बघेल जी की सुपुत्री राधाबाई का विवाह दाऊ रामचन्द्र देशमुख से सम्पन्न हुआ।
विवाहोपरांत रामचन्द्र देशमुख दुर्ग जिले के बघेरा ग्राम में उन्नत कृषि अनुसंधान के साथ-साथ स्थानीय जड़ी बूटियों से गठिया वात और लकवा जैसी बीमारी का इलाज करते हुए जीवन बिताने लगे। इसी समय उन्होंने छत्तीसगढ़ की ग्रामीण संस्कृति का निकटता से अध्ययन किया।
सन् 1950 ई. में दाऊ रामचन्द्र देशमुख ने अपने साथियों के सहयोग से ‘छत्तीसगढ़ देहाती कला विकास मंडल’ की स्थापना की जिसका मुख्य उद्देश्य ‘नसीहत का नसीहत और तमाशे का तमाशा’ था। उन्होंने तत्कालीन नाचा शैली का परिष्कार कर उसे सामाजिक दायित्व बोध से जोड़ने का प्रयास किया। उन्होंने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सारे छत्तीसगढ़ से लोक कलाकारों को चुन-चुन कर एक मंच पर एकत्र किया। इनमें मदन निषाद, लालूराम, ठाकुर राम, बाबूदास और भुलवा दास, माला बाई, फिदा बाई प्रमुख थे। इस संस्था ने सन् 1951 ई. में ‘नरक अउ सरग’ किया। इसी बीच अधिकांश कलाकार प्रसिद्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर के साथ दिल्ली चले गए। जहाँ अंतर्राष्ट्रीय मंच पर छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति को पहचान मिली।
सन् 1954 से 1969 ई. तक रामचन्द्र देशमुख ने अपना सारा समय जनसेवा और समाज सुधार के कार्यों में लगाया। मंच के माध्यम से जन-चेतना विकसित करने की योजना उनके मन मस्तिष्क को झकझोरती रही। छत्तीसगढ़ अंचल के सम्मान बोधक व संस्कृति के प्रतीक ‘चंदैनी गोंदा’ के लिए दाऊ जी को कुछ और नेतृत्व कुशलता के बल पर दिन-रात अथक परिश्रम कर सभी कलाकारों को एक मंच पर लाने में सफल हुए खुमान साव, भैयालाल हेड़ऊ लक्ष्मण मस्तूरिहा प्रेम साइमन जैसे अनेक कलाकार उनके मंच से कार्यक्रम का आयोजन हुआ। इसमें ‘चंदैनी गोंदा’ का प्रथम प्रदर्शन किया गया। इस कार्यक्रम के माध्यम से दाऊजी ने अपने पिछले पचास वर्षों की कला साधना, अंचल की सांस्कृतिक और सामाजिक धरोहर का सफल प्रदर्शन किया।
‘चंदैनी गोंदा’ का मंचन छत्तीसगढ़ अंचल के अलावा उत्तरप्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, दिल्ली व मध्यप्रदेश में सफलतापूर्वक किया गया। अखिल भारतीय लोककला महोत्सव यूनेस्को द्वारा आयोजित भोपाल सम्मेलन में इस कार्यक्रम की सराहना की गई। इस सफलता से प्रेरित होकर दाऊ रामचन्द्र देशमुख ने सन् 1984 ई. में पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के द्वारा रचित ‘कारी’ नाटक का मंचन किया जिसमें नारी उत्पीड़न व सामाजिक कुरीतियों पर जबरदस्त चोट की गई। उनकी अगली प्रस्तुती ‘देवार डेरा’ थी, जो तत्कालीन समाज में उपेक्षित देवार समाज की समस्याओं पर आधारित थी।
13 जनवरी सन् 1998 में रात्रि में हृदयगति रूक जाने से दाऊ रामचन्द्र देशमुख का देहावसान हो गया।
दाऊ रामचन्द्र देशमुख का सादा जीवन, मानवीय व्यवहार और छत्तीसगढ़ की संस्कृति के प्रति संवेदनशीलता लोग सदैव याद रखेंगे।
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23.
गजानन माधव मुक्तिबोध
महान कवि, कहानीकार और विचारक गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवम्बर सन् 1917 ई. को मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिले के ष्योपुर में हुआ था। उनके पिता श्री माधवराव मुक्तिबोध पुलिस विभाग में इंस्पेक्टर थे। परंपरानुसार अपने पिताजी का नाम जोड़कर विद्यालय में उनका नाम गजानन माधव मुक्तिबोध लिखाया गया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा श्योपुर में हुई।
पार्वती अपने दोनों बेटों को रात को अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाती थीं। गजानन के पिताजी की बार-बार बदली होती थी। इससे बच्चों की पढ़ाई भी प्रभावित हो रही थी। आन्ता बाई गजानन की बुआ थीं जो इंदौर के एम.टी. अस्पताल में हेड नर्स थीं। गजानन का विद्यार्थी जीवन उनके संरक्षण में व्यतीत हुआ।
उम्र के बढ़ने के साथ ही गजानन माधव मुक्तिबोध अंर्तमुखी होते चले गए। वे छोटी-छोटी कविताएँ लिखने लगे। उनकी कविताएँ जीवन के रहस्य को सुलझाना चाहती थीं। सन् 1935 ई. में माधव कॉलेज उज्जैन की पत्रिका में उनकी पहली कविता ‘हृदय की प्यास’ छपी। उन्होंने सन् 1938 ई. में होल्कर कॉलेज इंदौर से बी.ए. पास की थी।
आजीविका के लिए मुक्तिबोध जी ने सन् 1937 ई. में बड़नगर में अध्यापन करने लगे। बाद में वे मार्डन स्कूल उज्जैन, शारदा शिक्षा सदन शुजालपुर तथा हितकारिणी हाईस्कूल जबलपुर में भी अध्यापन किए। उन्होंने 1937 में पारिवारिक एवं सामाजिक मर्यादाओं की परवाह न करते हुए ‘शान्ता’ से स्वेच्छा से विवाह किया। कालांतर में उनके यहाँ चार पुत्र रमेश, दिवाकर, दिलीप, गिरीश और पुत्री उषा का जन्म हुआ। जबलपुर (मध्य प्रदेश) में ही मुक्तिबोध की क्रांतिकारी लेखक हरिशंकर परसाई और समालोचक प्रमोद वर्मा से भेंट हुई और उनसे आत्मीयता बढ़ी।
मुक्तिबोध का ज्यादातर समय साहित्य सृजन में बीतता था। वे स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपने लगे। सन् 1940 ई. में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय के संपादन में प्रथम ‘तार सप्तक‘ का प्रकाशन हुआ। गजानन माधव मुक्तिबोध तार सप्तक के पहले प्रथम कवि थे। इसमें उनकी लिखी हुई सत्रह कविताओं का प्रकाशन किया गया था। इससे मुक्तिबोध जी रातों-रात पूरे देश में विख्यात हो गए। उन पर माक्र्सवाद, समाजवाद, अस्तित्ववाद, राम मनोहर लोहिया, कीकेगार्ड, अरविंद घोष आदि विचारकों का गहरा प्रभाव रहा।
तार सप्तक में कविताएँ भेजते समय मुक्तिबोध जी ने लिखा था- ‘‘मानसिक द्वन्द्व मेरे व्यक्तित्व में बद्धमूल हैं।’’ यही कारण है कि डॉ. नामवर सिंह ने उनकी कविता को आत्मसंघर्ष की कविता कहा है। तार सप्तक में संकलित मुक्तिबोध की कविताओं में अधिकांश विषय की दृष्टि से प्रगतिवादी किंतु शिल्प की दृष्टि से छायावादी हैं।
अपने स्वाभिमानी और विद्रोही स्वभाव के कारण गजानन माधव मुक्तिबोध जी अधिक दिनों तक कहीं भी नहीं जम पाते। कालांतर में वे नागपुर आ गए। आकाशवाणी नागपुर के समाचार विभाग में संपादक बन गए। वे यहाँ लगभग छह वर्ष कार्य किए। उन्होंने सन् 1956 ई. में साप्ताहिक समाचार पत्र ‘नया खून’ का संपादन किया। नागपुर एम्प्रेस मिल गोली काण्ड के समय नया खून के रिर्पोटर की हैसियत से वे मौजूद रहे। इसका मार्मिक चित्रण ‘अंधेरे में’ कविता में है।
मुक्तिबोध एक समर्थ पत्रकार थे। वे अपने देश की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक दशा और अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर लगातार लिखते रहे। उनकी सामाजिक चेतना के कारण ही समाज का कोई भी अंग उनकी पैनी नजरों से बच नहीं सका है। इसलिए डॉ. रमेश कुन्तल मेघ ने उन्हें ‘लोक जीवन का जासूस’ कहा है।
सन् 1958 में मुक्तिबोध ने पाठ्यपुस्तकें लिखकर जीविकोपार्जन किया। सारथी, कर्मवीर में उन्होंने स्तंभ लेखन किया। सन् 1953 से 1957 की अवधि में उन्होंने कविता, कहानी, डायरी, राजनीतिक लेखन पूरी सृजनात्मक ऊर्जा, दबाव और आत्म विश्वास के साथ किया। कथा और आलोचनात्मक लेखन में भी उनकी रुचि थी।
मुक्तिबोध जी सन् 1958 में छत्तीसगढ़ अंचल के शहर राजनांदगाँव आ गए। यहाँ उनकी भेंट दिग्विजय महाविद्यालय के प्राचार्य एवं समाजसेवी श्री किशोरीलाल शुक्ल से हुई। शुक्ल जी ने उन्हें महाविद्यालय में हिन्दी का प्राध्यापक नियुक्त किया। राजनांदगाँव में मुक्तिबोध जी अक्सर षाम को अपने मित्रों के साथ बैठकर साहित्यिक चर्चा करते। वे समय निकालकर राजनांदगाँव में झोपड पट्टी में रहने वाले गरीब मजदूरों के बीच जाते। उनकी समस्याएँ सुनते और यथासंभव मदद करते। अब तक उनकी दो पुस्तकें ‘नयी कविता का आत्म संघर्ष और अन्य निबंध’ तथा ‘कामायनी: एक पुनर्विचार’ छप चुकी थी।
एक बार गजानन माधव मुक्तिबोध जी के बड़े बेटे दिवाकर बीमार पड़ गए। तब वे रात-रात भर जागकर उसकी देखभाल करते रहे। लगातार काम करते रहने से उनका भी स्वास्थ्य खराब रहने लगा। शरीर का बांया हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया। उनके साहित्यिक मित्र उन्हें दिल्ली ले गए और हरिवंश राय बच्चन से भेंट किए। बच्चन सहित कई प्रख्यात साहित्यकार तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री से भेंट किए। शास्त्री जी के निर्देशानुसार बेहतर उपचार के लिए मुक्तिबोध जी को दिल्ली के आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल सांइसेस में भर्ती किया गया। यहीं उपचार के दौरान ही 11 सितम्बर सन् 1964 ई. को उनका निधन हो गया।
मुक्तिबोध जी की मृत्यु के बाद उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित र्हुइं। इनमें प्रमुख हैं- भारत का इतिहास और संस्कृति (आलोचना), सतह से उठता आदमी (आलोचना), काठ का सपना (कहानी-संग्रह) चाँद का मुँह टेढ़ा है (कविता-संग्रह), भूरी-भूरी खाक धूल (कविता-संग्रह), नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध (आलोचना), नए साहित्य का सौन्दर्य-शास्त्र (आलोचना), समीक्षा की समस्याएँ (आलोचना), विपात्र (उपन्यास), सतह से उठता आदमी (उपन्यास)।
मणिकौल ने मुक्तिबोध के उपन्यास सतह से उठता आदमी पर आधारित एक फिल्म बनाया है। मुक्तिबोध के काव्य-संग्रह ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ को सन् 1964 ई. उनकी मृत्यु के उपरांत साहित्य अकादमी सम्मान मिला।
गजानन माधव मुक्तिबोध के जीवन का महत्वपूर्ण भाग छत्तीसगढ़ में ही बीता। मुक्तिबोध जी ने अपनी श्रेष्ठ रचनाएँ यहीं लिखीं। इसलिए वे छत्तीसगढ़ को अपनी कर्मभूमि मानते थे और हम छत्तीसगढ़ वासियों को भी इस बात पर गर्व है।
छत्तीसगढ़ शासन के स्कूल शिक्षा विभाग द्वारा उनकी स्मृति में राज्य स्तरीय गजानन माधव मुक्तिबोध स्मृति शिक्षक सम्मान स्थापित किया गया है।
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मिनीमाता
मिनीमाता छत्तीसगढ़ की पहली महिला सांसद तथा कर्मठ समाज सुधारक थीं। उनका जन्म सन् 1913 ई. में होलिका दहन के दिन असम राज्य के नुवागांव जिले के जमुनासुख नामक गाँव में हुआ था। उनका असली नाम मीनाक्षी था। उनके पिताजी का नाम महंत बुधारीदास तथा माँ का नाम देवमती बाई था। इनके नानाजी छत्तीसगढ़ के पंडरिया जमींदारी के सगोना गाँव के निवासी थे।
सन् 1901 से 1910 के मध्य जब छत्तीसगढ़ अंचल में भीषण अकाल पड़ा तो मीनाक्षी के नानाजी आजीविका की तलाश में सपरिवार असम चले गए और चाय के बागानों में काम करने लगे। मीनाक्षी ने असम में सातवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की। मीनाक्षी एक देशभक्त बालिका थी जो अल्पायु में ही गुलामी का मतलब और आजादी का महत्व जान चुकी थीं। वे अपने साथी बच्चों के साथ विदेशी वस्त्रों की होली जलाती तथा स्वदेशी का प्रचार-प्रसार करती थीं।
मीनाक्षी के जीवन में एक नया मोड़ उस समय आया जब सतनामी समाज के गुरु अगमदास जी का धर्म प्रचार के सिलसिले में असम आगमन हुआ। गुरु अगमदास का कोई पुत्र न था। इससे गुरु गद्दी के उत्तराधिकारी की चिंता पूरे समाज में व्याप्त थी। इस कारण उन्होंने मीनाक्षी को अपनी जीवनसंगिनी के रूप में चुना और सन् 1932 ई. में उनसे विधिवत विवाह किया। अब गुरुपत्नी मीनाक्षी मिनीमाता के रूप में समाज में प्रतिष्ठित हुईं।
विवाह के उपरांत मिनीमाता रायपुर, छत्तीसगढ़ आ गईं तथा यहीं पर उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की। उनका हिंदी, असमिया, अंग्रेजी, बांग्ला तथा छत्तीससगढ़़ी भाषा पर अच्छा अधिकार था। मिनीमाता ने गुरु परंपरा के अनुसार संपूर्ण छत्तीसगढ़़ में अपने पति गुरु अगमदास के साथ भ्रमण कर सामाजिक कार्यों का अनुभव प्राप्त किया।
गुरु अगमदास महान देशभक्त तथा समाज सुधारक थे। वे राष्ट्रीय आंदोलन में भी सक्रिय रूप से भाग ले रहे थे। वे स्वदेशी के समर्थक थे और खादी पहनते थे। मिनीमाता भी खादी पहनती थीं। गुरु अगमदास का की प्रेरणा और प्रोत्साहन से ही सतनामी समाज के सैकड़ों युवक राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े थे। रायपुर स्थित उनका घर सत्याग्रहियों के लिए मंदिर के समान बन गया था। पं. सुंदरलाल शर्मा, डॉ. राधाबाई, ठा. प्यारेलाल सिंह, पं. रविशंकर शुक्ल, डॉ. खूबचंद बघेल जैसे महान नेता उनके घर अकसर आते रहते थे।
देश की स्वतंत्रता के बाद गुरु अगमदास सांसद चुने गए। सन् 1951 ई. में उनका अचानक स्वर्गवास हो गया। पं. रविशंकर शुक्ल की प्रेरणा से मिनीमाता मध्यावधि चुनाव में रायपुर से सांसद चुनी गईं। तब उनका बेटा विजय कुमार बहुत छोटा था। अब उनकी जिम्मेदारी और भी बढ़ गई। परंतु उन्होंने बहुत ही कुशलता-पूर्वक अपने घरेलू और रामाजिक दायित्व का निर्वाहन किया। यही कारण है कि वे सन् 1952 ई. में रायपुर, सन् 1957 ई. में बलौदाबाजार एवं सन् 1967 ई. में जांजगीर-चाम्पा क्षेत्र से लगातार तीन बार लोकसभा के लिए चुनी गईं।
मिनीमाता जी अस्पृष्यता को समाज के लिए एक अभिषाप मानती थीं और देश के सर्वांगीण विकास के लिए इसे पूरी तरह से समाप्त कराना चाहती थीं। यही कारण है कि उन्होंने संसद में ऐतिहासिक ‘अस्पृष्यता निवारण विधेयक’ प्रस्तुत किया जो कि पारित भी हुआ।
मिनीमाता ने देश की संसद में महिलाओं की दषा सुधारने के लिए निरंतर आवाज बुलंद की। उन्होंने महिला उत्पीड़न, दहेज प्रथा, अन्याय, बेमेल विवाह तथा बालविवाह आदि का कड़ा विरोध किया। उन्होंने अपने निर्देषन में कई जगह विधवा पुनर्विवाह संपन्न कराए। बाल विवाह तथा बेमेल विवाह के विरूद्ध कड़ा निर्देष प्रसारित करवाया। उन्होंने रायपुर में सतनामी आश्रम की स्थापना की।
मिनीमाता ने स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में भी काम किया। वे अपनी सभाओं में ही नहीं सभी मिलने वाले लोगों से भी कहतीं कि अपनी बेटियों को जरूर शिक्षित करें। उन्होंने कई जरूरतमंद गरीब बच्चों को अपने घर में रखकर भी पढ़ाया, लिखाया और आत्मनिर्भर बनाया। रायपुर स्थित अमीनपारा हरिजन छात्रावास की वे संस्थापक संचालक सदस्या थीं।
मिनीमाता ने भिलाई इस्पात संयंत्र में क्षेत्र के स्थानीय निवासियों को रोजगार उपलब्ध कराने की दिशा में कई उल्लेखनीय कार्य किए हैं। उन्होंने छत्तीसगढ़़ मजदूर संघ का गठन किया था। उन्होंने बचपन से ही गरीबी को बहुत करीब से देखा और भोगा था। यही कारण है कि वे श्रमवीर मजदूरों की हिमायती थीं। मिनीमाता अछूतोद्धार तथा स्वच्छता अभियान में सदैव आगे रहती थीं।
मिनीमाता ने अखिल भारतीय हरिजन सेवक संघ तथा सतनामी महासमिति की भी स्थापना की थी। वे भारतीय दलित वर्ग संघ के महिला षाखा की उपाध्यक्ष भी थीं। मिनीमाता की निःस्वार्थ समाज सेवा की भावना को देखते हुए पं. जवाहर लाल नेहरू, डॉ. भीमराव अंबेडकर, बाबू जगजीवन राम, श्रीमती इंदिरा गांधी एवं पं. रविशंकर शुक्ल जैसे देश के शीर्ष नेता भी उनसे प्रभावित थे तथा सदैव उन्हें प्रोत्साहित करते थे। छत्तीसगढ़़़ अंचल में कृषि तथा सिंचाई के लिए हसदेव बाँध परियोजना के निर्माण में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिक निभाई थी।
ऐसा कहा जाता है कि जब मिनीमाता जी सांसद के रूप में दिल्ली में रहती थीं, तो उनका निवास स्थान एक आश्रम या धर्मशाला जैसा होता था। छत्तीसगढ़ अंचल से कोई भी व्यक्ति देश की राजधानी दिल्ली पहुँचता तो उसे कम से कम वहाँ ठहरने की चिंता नहीं होती थी। मिनीमाता के निवास स्थान पर हर जाति, वर्ग के लोग आते थे। वे बिना किसी भेदभाव के सबकी समस्याओं को दूर करने तत्पर रहती थीं।
11 अगस्त सन् 1972 ई. को भोपाल से दिल्ली जाते हुए पालम हवाई अड्डे के पास विमान दुर्घटना में उनका देहांत हो गया।
नवीन राज्य की स्थापना के बाद छत्तीसगढ़़़ शासन ने उनकी स्मृति में महिला उत्थान के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए राज्य स्तरीय मिनीमाता सम्मान स्थापित किया है।
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चंदूलाल चंद्राकर
चंदूलाल चंद्राकर एक यशस्वी पत्रकार, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और राजनेता थे। उन्होंने अपनी निर्भीक पत्रकारिता तथा निष्पक्ष राजनीति से न केवल अपनी पहचान बनायी बल्कि अपनी मातृभूमि छत्तीसगढ़ को भी यथोचित सम्मान दिलाया।
चंदूलाल चंद्राकर का जन्म 1 जनवरी सन् 1921 को राजनांदगाँव के अछोटी गाँव में हुआ था। चंदूलाल की प्राथमिक शिक्षा सिरसाकला में हुई। वे विद्यार्थी जीवन में पढ़ाई-लिखाई ही नहीं खेलकूद व सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी आगे रहते थे। उन्होंने मैट्रिक नागपुर से तथा बी.ए. की परीक्षा राबर्टसन कॉलेज, जबलपुर से पास की।
कॉलेज में अध्ययन करते समय ही वे राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े और सन् 1942 ई. में भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के कारण गिरफ्तार किए गए। परीक्षा के समय उन्हें रिहा कर दिया गया। पढ़ाई पूरी करने के बाद वे बनारस चले गए। वहाँ दैनिक ‘आज’ में कार्य करने लगे। सन् 1945 ई. में वे ‘आर्यावर्त’ के संवाददाता बने। कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन की प्रभावशाली कवरेज के लिए महात्मा गाँधी ने उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की। हिंदुस्तान टाइम्स’ के संपादक देवदास गाँधी ने अपने पिता महात्मा गाँधी के आदेश पर चंदूलाल चंद्राकर को अपने पत्र में काम करने के लिए आमंत्रित किया। चंद्राकर जी ने 1945 के बाद महात्मा गाँधी के प्रायः सभी बड़े कार्यक्रमों की रिर्पोटिंग की। वे गाँधीजी के अत्यंत प्रिय व्यक्तियों में से एक थे। वे सन् 1946 में ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के सहायक संपादक, बाद में सिटी रिर्पोटर फिर संपादक बने। उन्होंने सन् 1964 से 1980 तक इसके प्रमुख संपादक के रूप में कार्य किया। छत्तीसगढ़ से राष्ट्रीय समाचार पत्र के संपादक पद पर पहुँचने वाले वे पहले व्यक्ति थे। महात्मा गाँधी हत्याकांड मुकदमे के वे विशेष संवाददाता थे। युद्धस्थल से भी वे निर्भिकतापूर्वक समाचार भेजते थे। उन्होंने 10 ओलम्पिक तथा 9 एशियायी खेलों की रिर्पोटिंग की।
चंदूलाल चंद्राकर ने संविधान निर्मात्री सभा, ताशकंद में भारत-पाक शिखर वार्ता, पं. जवाहरलाल नेहरु, लालबहादुर शास्त्री, श्रीमती इंदिरा गाँधी तथा मोरारजी देसाई की विदेश यात्राओं, कांग्रेस के खुले अधिवेशन एवं महासमिति के बैठकों आदि की रिर्पेाटिंग, भारत तथा विश्व की आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिति संबंधी सैकड़ों लेख लिखकर पत्रकारिता जगत में प्रशंसनीय स्थान पाया। चंदूलाल चंद्राकर तीन बार पे्रस एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष बने। एक पत्रकार के रुप में उन्होंने लगभग सभी देशों की यात्रा की। उन्होंने सही जानकारी पाठकों तक पहुँचाने के लिए कई बार जोखिम भरी यात्राएँ कीं।
सन् 1970 में दुर्ग लोकसभा क्षेत्र से उपचुनाव जीतकर चंदूलाल चंद्राकर पहली बार सांसद बने। वे लोकसभा हेतु पाँच बार निर्वाचित हुए। नागरिक उड्डयन, पर्यटन, कृषि एवं ग्रामीण विकास जैसे महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री का दायित्व संभालते हुए उन्हांेने छत्तीसगढ़ और देश की सेवा की। वे अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के अध्यक्ष रहे।
सन् 1992 ई. में चंदूलाल चंद्राकर ने छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण सर्वदलीय मंच का गठन किया। इसके अध्यक्ष के रुप में उन्होंने राज्य निर्माण आंदोलन को नई शक्ति प्रदान की। सन् 1993 ई. में उन्होंने कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र में छत्तीसगढ़ राज्य के निर्माण को प्राथमिकता में षामिल कराने का उल्लेखनीय कार्य किया।
चंदूलाल चंद्राकर के पास दुनिया भर की दुर्लभ पुस्तकों तथा आडियो-विडियो फिल्मों का कीमती संग्रह था। अपनी निर्भीक लेखनी से ज्वलंत मुद्दे उठाने, बहस की गुंजाइश तैयार करने वाले पत्रकारों में उनको सम्मानजनक स्थान प्राप्त है।
चंदूलाल चंद्राकर 75 वर्ष की उम्र में भी लगातार 18 घंटे काम करते थे। वे अपने गृहग्राम के समीप स्थित कोलिहापुरी से एक स्तरीय समाचार पत्र निकालना चाहते थे। वे इसकी तैयारी शुरु ही किए थे कि 2 फरवरी 1995 को उनका देहावसान हो गया। निर्भीक पत्रकारिता से छत्तीसगढ़ का नाम देश में रोशन करने वाले इस महान व्यक्तित्व से नई पीढ़ी प्रेरणा ग्रहण करे और मूल्य आधारित-पत्रकारिता को प्रोत्साहन मिले, इसके लिए छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में पत्रकारिता के क्षे़त्र में चंदूलाल चंद्राकर स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार स्थापित किया है। -00-
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हबीब तनवीर
प्रख्यात रंगकर्मी हबीब तनवीर का आधुनिक भारतीय नाटक के विकास में अभूतपूर्व योगदान रहा है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि लोककथाओं और लोकसंगीत का जो इस्तेमाल हबीब तनवीर ने किया, वैसा पहले किसी ने नहीं किया था। वे एक ऐसे अद्वितीय रंगकर्मी थे जो दर्शकों की चेतना को झकझोर कर रख देते थे।
हबीब तनवीर का जन्म 1 सितम्बर सन् 1923 ई. को रायपुर में हुआ था। उनका मूल नाम हबीब अहमद खाँ था। उनके पिताजी का नाम हाफ़िज़ मोहम्मद हयात ख़ाँ था। हबीब तनवीर को बचपन से ही कविता लिखने का शौक चढ़ा। उन्होंने पहले तनवीर के छद्मनाम से लिखना शुरू किया जो बाद में उनका नाम बन गया। उन्होंने लॉरी म्युनिसिपल हाई स्कूल से मैट्रिक व सन् 1944 ई. में मॉरीस कॉलेज, नागपुर से स्नातक किया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एम.ए. की परीक्षा पास की।
सन् 1945 ई. में हबीब तनवीर मुम्बई चले गए। वहाँ उन्होंने हिन्दी फिल्मों के लिए कई गाने लिखे और राही, दिया जले सारी रात, आकाश, लोकमान्य तिलक, फुटपाथ, नाज़, बीते दिन, ये वो मंजिल तो नहीं और प्रहार जैसी फिल्मों में अभिनय भी किया।
कालांतर में वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ गए और इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन के अंग बन गए। हबीब तनवीर सन् 1946 ई. से 1950 ई. तक फ़िल्मी साप्ताहिक पत्रिका द बाक्स आफिस के सह-संपादक रहे। इसी दौरान उन्हें फ़िल्मों में संवाद और रेडियो नाटक लेखन का अवसर भी मिलने लगा। यही वह दौर था जब उन्होंने हिंदुस्तानी लोक गीत, लोक संगीत व लोक कला की ताकत को गहराई से महसूस किया।
हबीब तनवीर भारत के मशहूर पटकथा लेखकों, नाट्य निर्देशकों, कवियों और अभिनेताओं में से एक थे। जब ब्रिटिश शासन के विरूद्ध कार्य कर रहे इप्टा से जुड़े कई लोग जेल चले गए तब हबीब तनवीर को संगठन की जिम्मेदारी संभालनी पड़ी। इप्टा के लिए उन्होंने कई नुक्कड़ नाटक लिखे और निर्देशन का कार्य भी किया।
सन् 1954 ई. में हबीब तनवीर दिल्ली आ गए और हिन्दुस्तानी थियेटर से जुड़ गए। उन्होंने बाल थियेटर के लिए भी काम किया। कई नाटकों की रचना की। दिल्ली में ही उनकी मुलाकात अभिनेता-निर्देशक मोनिका मिश्रा से हुई, जिनसे उन्होंने शादी कर ली।
हबीब तनवीर को पत्नी मोनिका का बहुत सहयोग मिला। यदि उनके जीवन में मोनिका जी नहीं आई होतीं तो शायद उनके जीवन का रंग कुछ और ही होता। हबीब तनवीर रंगमंच के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जानते थे। वे अकसर कहा करते थे- ‘‘मेरे लिए तो ओढ़ना-बिछौना ही थियेटर है। यदि मेरी शादी किसी और से हुई होती, जो थियेटर को स्वीकार नहीं कर पाती तो मेरे लिए थियेटर करना मुष्किल हो जाता।’’ दोनों के बीच निभ पायी उसका सबसे बड़ा कारण थियेटर में मोनिका जी की गहरी दिलचस्पी थी। मोनिका जी ने उनको न केवल थियेटर करने की इजाजत दी, वरन् नाटक की स्क्रिप्ट तैयार करने से लेकर उसके स्टेज पर प्रदर्शित होने तक हर काम में उनके साथ लगी रहती। यही कारण है कि हबीब तनवीर एक पिता, पति, मित्र, नाटककार, रंगकर्मी आदि सभी रूपों में अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने में सफल रहे।
हबीब तनवीर ने इंग्लैण्ड से नाटक का प्रशिक्षण प्राप्त किया फिर उसके बाद निर्देशन और नाटक पढ़ाने के कोर्स भी किए। सन् 1959 ई. में दिल्ली में उन्होंने ‘नया थियेटर’ कंपनी स्थापित की जिसमें उन्होंने अनेक प्रसिद्ध उर्दू और अंग्रेजी के नाटक किए। अंग्रेजी नाटकों के बाद हबीब ने हिन्दी, उर्दू और छत्तीसगढ़ी बोली के नाटकों की ओर रूख किया। सन् 1972 से 1978 ई. तक हबीब तनवीर राज्यसभा के सदस्य रहे।
हबीब तनवीर एक सफल पत्रकार, समीक्षक, गीतकार, संगीतकार कुशल वक्ता होने के साथ-साथ एक सफल नाटककार भी रहे थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में जिस भी क्षेत्र को छुआ, उसे एक नयापन देकर उसमें कुछ ‘अतिरिक्त’ करने का सदैव प्रयास किया। उनके चर्चित नाटकों में आगरा बाजार, मिट्टी की गाड़ी, रूस्तम सोहराब, लाला सोहरत राय, मेरे बाद, मोर नाँव दमाद गाँव के नाँव ससुरार, चरणदास चोर, बहादुर कलरिन, सोनसागर, हिरमा की अमर कहानी, एक और द्रोणाचार्य, दुश्मन, जिन लाहौर नहीं देख्या आदि प्रमुख हैं। उन्होंने अनेक प्रसिद्ध नाटक लिखे, उनका निर्देशन किया और स्वयं अभिनय भी किया।
हबीब तनवीर एक गंभीर व्यक्तित्व के और सुलझे हुए व्यक्ति थे। उनके नाट्य समूह में अधिकांश पात्र ग्राम्य जीवन से संबंधित थे। वे अपने जीवन में लम्बे समय तक ग्रामीण कलाकारों के साथ काम करते रहे। अलग-अलग जिलों में स्थानीय नाट्य समूहों के साथ मिलकर कार्यशालाओं का आयोजन करना उनका मुख्य उद्देश्य था।
आधुनिक भारतीय रंगशैली की खोजभरी इस लंबी, सार्थक और समर्पित रंगयात्रा के महत योगदान की व्यापक प्रतिष्ठा के फलस्वरूप तनवीर जी को समय-समय पर विविध राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों एवं सम्मानों से अलंकृत किया गया। उनको संगीत नाटक एकेडमी अवार्ड, शिखर सम्मान, जवाहरलाल नेहरू फैलोशिप, इंदिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ एवं रवीन्द्र भारती कलकत्ता द्वारा डी.लिट्. की उपाधि, महाराष्ट्र राज्य उर्दू अकादमी पुरस्कार, दिल्ली साहित्य कला परिषद पुरस्कार, कालीदास सम्मान और म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन का भवभूति अलंकरण, पùश्री, पद्मविभूषण और छत्तीसगढ़ शासन के दाऊ मंदराजी सम्मान से सम्मानित किया गया।
हबीब तनवीर, नाटक और लोक नाटक के मध्य एक सेतु बनकर आए। उन्होंने लोकनाटक की शक्ति को अच्छी तरह पहचाना और आधुनिक नाटक के साथ उसे समन्वित किया। उन्होंने अपने नाटकों में छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य नाचा के पारंपरिक संगीत, वाद्य, नृत्य, गायन, अभिनय और मंच का अत्यंत कलात्मक एवं कल्पनाषील प्रयोग किया। इस प्रकार छत्तीसगढ़ी लोकनाटक के तत्वों के संयोजन से आधुनिक नाटक और रंगमंच की उन्होंने नई परिभाषा गढ़ी और विश्व नाट्य-जगत में भारतीय रंगदृष्टि की विशिष्ट पहचान स्थापित की।
हबीब तनवीर ने स्कॉटलैंड, इंग्लैड, वेल्स, आयरलैंड, हॉलैंड, जर्मनी, यूगोस्लाविया, फ्रांस और रूस इत्यादि देशों में अपने श्रेष्ठ नाट्य-प्रदर्शनों से केवल अपने और अपने नाट्य दल के लिए ही नहीं, बल्कि अपने देश के लिए भी सम्मान और गौरव अर्जित किया है।
हबीब तनवीर का देहावसान 8 जून सन् 2009 को मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में हुआ।
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27.
बिसाहू दास महंत
बिसाहू दास महंत का जन्म 1 अप्रैल सन् 1924 को सारागाँव (वर्तमान जांजगीर-चांपा जिला) के एक प्रतिष्ठित कृषक परिवार में हुआ था। उनके पिता कुंजराम महंत एक अनुशासन प्रिय एवं परिश्रमी कृषक थे। इसका प्रभाव उनके सुपुत्र बिसाहूदास पर भी पड़ा। बालक बिसाहू अपने स्कूली जीवन में अत्यंत मेधावी छात्र रहे। इस कारण उन्हें छात्रवृत्ति भी मिली। वे विद्यार्थी जीवन में हॉकी, फूटबॉल, व्हालीबॉल तथा टेनिस के अच्छे खिलाड़ी होने के साथ-साथ पढ़ाई-लिखाई में भी बहुत तेज थे।
कालांतर में बिसाहू दास महंत का विवाह जानकी बाई से हुआ। विवाह के बाद भी उनकी पढ़ाई-लिखाई जारी रही। उन्होंने सन् 1942 ई. में हाईस्कूल की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की। उस समय तक भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी। बिसाहू दास महंत महात्मा गांधीजी के विचारों से प्रभावित होकर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे। इस कारण उन्हें स्कूल से मिलने वाली छात्रवृत्ति बंद हो गई।
बिसाहू दास महंत का सम्पूर्ण जीवन संघर्ष की एक मिषाल है। वे विषम परिस्थितियों में भी धैर्य नहीं खोए और निंरतर आगे बढ़ते रहे। आर्थिक समस्याएँ उन्हें आगे बढ़ने से नहीं रोक सकीं। उन्होंने विद्यार्थियों को ट्यूषन पढ़ाते हुए स्वयं मारिश कॉलेज, नागपुर से उच्च शिक्षा प्राप्त की।
मारिश कॉलेज, नागपुर से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् बिसाहू दास महंत नगर पंचायत चांपा के विद्यालय में प्रधानाध्यापक नियुक्त हुए। जनसेवा की भावना और नेतृत्व शील व्यक्तित्व के कारण कालांतर मंा वे सक्रिय राजनीति से जुड़ गए। वे छत्तीसगढ़ अंचल के बाराद्वार, नवागढ़ एवं चांपा क्षेत्र से चुनकर विधानसभा के सदस्य बने। उनका सम्पूर्ण जीवन अहंकारशून्य रहा। यही उनकी लोकप्रियता का प्रमुख कारण था।
बिसाहू दास महंत सन् 1952 से 1977 ई. तक छह बार विधानसभा चुनाव में लगातार विजयी होते रहे। उस समय वे मध्यप्रदेश की राजनीति के प्रमुख तथा निर्विवाद छबि के राजनेताओं माने जाते थे। महंत जी अपने राजनीतिक जीवनकाल में लोक निर्माण मंत्री, जेल, श्रम, आदिम जाति कल्याण, वाणिज्य, उद्योग एवं नैसर्गिक संसाधन मंत्री के रूप में गुरुत्तर दायित्वों का निर्वहन किए।
बिसाहू दास महंत सच्चे अर्थों में एक जननेता थे। वे हरिजन, आदिवासी एवं पिछड़े वर्गों के हितचिंतक तथा छत्तीसगढ़ अंचल की अस्मिता के उन्नायक थे। वे छत्तीसगढ़ अंचल के सर्वांगीण विकास के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और सिंचाई को अति आवश्यक मानते थे। एक केबिनेट मंत्री और मध्यप्रदेश कांग्रेसाध्यक्ष के गुरुतर दायित्व का निर्वाह करते हुए भी महंत जी ने स्वयं को कभी आम जनता से अलग होने नहीं दिया और अपने विश्वास के घरातल को सदैव बनाए रखा। उन्होंने आडम्बर और शोर शराबा से सदैव दूरी बनाए रखा।
बिसाहू दास महंत एक कृषक परिवार से थे। वे किसानों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने के लिए सिंचाई के साधन एवं स्रोत का विकास आवश्यक समझते थे। हसदो बाँगो बांध के स्वप्नद्रष्टा बिसाहूदास ही थे। इस बांध के बन जाने से आज जांजगीर-चांपा जिले की गणना भारत के सर्वाधिक सिंचित जिलों में हो रही है। वर्तमान में जांजगीर-चांपा जिले की 80 प्रतिषत कृषि भूमि सिंचित है। यह सब हसदो बाँगो बाँध की ही देन है जो बिसाहूदास महंत की प्रेरणा एवं परिकल्पना का ही परिणाम है। इस बाँध के कारण ही आज कोरबा एशिया महाद्वीप का एक प्रमुख औद्योगिक केंद्र बन सका है।
बिसाहू दास महंत की दूरदर्शिता और प्रयासों का ही परिणाम है कि आज उनका जांजगीर-चांपा क्षेत्र दुनियाभर में कोसा, काँसा और कंचन नगरी के नाम से विख्यात है।
बिसाहू दास महंत चिंतन-मनन करने वाले अध्ययनशील व्यक्ति थे। उनका सपना था कि प्रत्येक गाँव में एक पुस्तकालय बने। स्कूलों का पुस्तकालय सुविधा संपन्न हो। उनकी जन्मभूमि सारागाँव में उन्हीं के प्रयास से गठित ‘नव ज्योति साहित्य समिति’ द्वारा एक पुस्तकालय की स्थापना की गई थी। बिसाहू दास महंत राजनीति को जाति एवं क्षेत्रीयता की भावना से सदैव दूर रखे। वे राजनीति को जनसेवा का एक माध्यम मानते थे। उनके विचारों में गांधी और कबीरियत भाव को सहज रूप में देखा जा सकता है।
बिसाहू दास महंत धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। कबीरपंथी होते हुए भी वे हनुमान जी की पूजा-पाठ नियमित रूप से करते थे। इससे उनका सम-भावी व्यक्तित्व प्रकट होता है। धार्मिक सहिष्णुता के कारण ही महंत जी विशिष्ट व्यक्तित्व के रूप में देखे जाते हैं। मृदुभाषी एवं विनोदप्रियता उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा था। इसी कारण सभी उनका सम्मान करते हैं।
बिसाहू दास महंत केवल राजनीति ही नहीं बल्कि कला और साहित्य के भी पारखी थे। उनके जीवन में अभिव्यक्ति की जो मिठास थी, उसका कारण छत्तीसगढ़ की कला, संस्कृति एवं साहित्य से उनका गहरा जुड़ाव ही था। महंत जी ने कुटीर उद्योगों को सदैव प्रोत्साहित किया। हथकरघा से निर्मित कोसा वस्त्र को अंतर्राष्ट्रीय बाजार तक ले जाने में महंत जी की केन्द्रीय भूमिका रही। वे हथकरघा उद्योग से जुड़े बुनकरों के हितचिंतक थे।
बिसाहू दास महंत किसी पद विशेष के लिए नहीं बने थे, बहुत से पद महंत जी के कारण सुषोभित हुए। अपनी ओजस्वी शैली के कारण उन्हें संसदीय जगत का पुरोधा माना जाता है। वे सच्चे अर्थों में छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ीया भावों की अभिव्यक्ति थे। वे अत्यंत सहज, सरल, विनम्र किंतु स्वाभिमानी व्यक्ति थे। स्वाभिमान की रक्षा के लिए एक बार वे मंत्री पद से भी इस्तीफा देने में नहीं चूके। उन्होंने मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाषचंद्र्र्र्र सेठी के रूखे व्यवहार से रूष्ट होकर केबिनेट मंत्री का पद छोड़ दिया था। सन् सन् 1977 ई. के विधानसभा चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को जब भारी पराजय का मुख देखना पड़ा तब भी बिसाहू दास महंत मूल्य आधारित राजनीति की भूमिका में सक्रिय रहे।
23 जुलाई सन् 1978 ई. को बिसाहू दास महंत का देहावसान हो गया। उनका समग्र व्यक्तित्व हम सबके लिए आज भी प्रेरणादायी है।
कृतज्ञ छत्तीसगढ़ शासन द्वारा उनकी स्मृति में राज्य स्तरीय ‘स्व. बिसाहूदास महंत सर्वश्रेष्ठ बुनकर सम्मान’ की स्थापना की है। इसके अंतर्गत प्रतिवर्ष राज्य के दो सर्वश्रेष्ठ बुनकरों को दो लाख रूपए की राशि सम्मान स्वरूप प्रदाय की जाती है।
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28.
पं. श्यामाचरण शुक्ल
अविभाजित मध्यप्रदेश में तीन बार मुख्यमंत्री रहे पं. श्यामाचरण शुक्ल क्षेत्र में हरितक्रांति के महानायक थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन राज्य के सूखे खेतों के लिए पानी और बदहाल किसानों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। उनका जन्म 27 फरवरी सन् 1925 ई. को रायपुर के बूढ़ापारा में हुआ था। उनके पिता पं. रविशंकर शुक्ल महान स्वतंत्रता सेनानी थे, जो कालांतर में मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने।
रायपुर में ही श्यामाचरण शुक्ल का बचपन स्वतंत्रता संग्राम के दौरान देशप्रेम की उदात्त भावना से ओतप्रोत वातावरण में बीता। देशभक्त पिता के मार्गदर्षन में शिक्षा, माता भवानी देवी के सान्निध्य में आध्यात्मिक तथा अग्रज अंबिकाचरण शुक्ल की देखरेख, खेलकूद, कुष्ती, कसरत, योगासन एवं प्राणायाम ने उनके सर्वांगीण विकास में सहायता की। रायपुर में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद पं. श्यामाचरण शुक्ल ने उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तथा बी.एस-सी. तथा बी.टेक. की उपाधि प्रथम श्रेणी से प्राप्त की। बाद में उन्होंने नागपुर विश्व विद्यालय से विधि की उपाधि प्राप्त की।
श्यामाचरण शुक्ल विद्यार्थी जीवन से ही छात्रसंघ की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने लगे थे। वे स्वाधीनता आंदोलन से काफी प्रभावित हुए तथा सन् 1942 ई. के भारत छोड़ो आंदोलन के समय मात्र सत्रह वर्ष की आयु में ही कूद पडे़। उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और अपने कई साथियों को स्वाधीनता की लड़ाई में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर टेलीफोन के तार काटे, डाकघरों को जलाया एवं आम जनता का मनोबल बनाए रखने के लिए समाचार पत्र बाँटने का कार्य किया। श्यामाचरण शुक्ल ने बडे़ जोश और उत्साह के साथ कभी खुलकर तो कभी भूमिगत रहकर आंदोलन को चलाने में सक्रिय भूमिका निभाई।
श्यामाचरण शुक्ल ने संकल्प लिया था कि जब तक भारत स्वतंत्र नहीं होगा वे विवाह नहीं करेंगे। भारत की स्वतंत्रता के बाद ही सन् 1948 में उनका विवाह इंदौर के राजवैद्य ख्यालीराम द्विवेदी की सुपुत्री प्रेमलता के साथ हुआ। प्रेमलता के आकर्षक व्यक्तित्व की वजह से उनकी जेठानी श्रीमती शकुंतला ईश्वरीचरण शुक्ला ने उन्हें पद्मिनी संबोधन दे दिया जो स्थायी रूप से उनका नाम बन गया। श्रीमती पद्मिनी शुक्ला ने बच्चों की देखभाल, शिक्षा-दीक्षा तथा परिवार की सारी जिम्मेदारियाँ अपने ऊपर लेकर पं. श्यामाचरण शुक्ल को अपना पूरा समय सार्वजनिक जीवन में लगाने की सुविधा दी।
स्वाधीनता के बाद श्यामाचरण शुक्ल कांग्रेस के संगठन के कार्यों में सक्रिय योगदान देने लगे। अपने पिताश्री रविशंकर शुक्ल के निधन उपरांत पार्टी ने उन्हें विधानसभा में भेजने का निर्णय लिया। वे राजिम बिंद्रानवागढ़ क्षेत्र से विधायक चुने गए। वे राजिम से सात बार विधानसभा के लिए चुने गए। वे सन् 1948 से 1957 ई. तक रायपुर जिला कांग्रेस के सहमंत्री तथा सन् 1955 ई. से दशकों तक अखिल भारतीय कांग्रेस के सदस्य रहे। सन् 1999 ई. में वे महासमुंद लोकसभा क्षेत्र से संसद के लिए चुने गए।
सन् 1967 ई. में पं. श्यामाचरण शुक्ल पहली बार पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र जी के मंत्रिमंडल में शामिल किए गए। उन्हें सिंचाई मंत्री बनाया गया। उन्होंने कृषि और कृषकों के हित चिंतन की शुरुआत की। पं. श्यामाचरण शुक्ल जी का मानना था कि देश और प्रदेश की खुशहाली का आधार कृषि है। देश की अधिसंख्यक आबादी कृषि और कुटीर उद्योगों पर निर्भर करती है। वे मानते थे कि सिंचाई साधनों का विकास कर, खेतों को बहु फसली कर, उन्नत ढंग से खेती कर तथा कृषि आधारित कुटीर उद्योगों को संरक्षण देकर ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था को समृद्ध बनाया जा सकता है। बहती नदियों के पानी को किस तरह किसान के खेतों में पहुँचाया जाए यह उनकी प्रमुख चिंता थी। काफी सोच-विचार और अध्ययन-मनन के बाद उन्होंने पूरे प्रदेश की सिंचाई के लिए एक मास्टर प्लान तैयार किया जिसे लागू करने के पहले ही कुछ असंतुष्ट विधायकों ने मिलकर कांग्रेस की सरकार को गिरा दिया एवं संविद सरकार का गठन हुआ।
26 मार्च सन् 1969 ई. को पं. श्यामाचरण शुक्ल ने पहली बार मध्यप्रदेश के आठवें मुख्यमंत्री के रूप में प्रदेश की बागडोर संभाली। वे उस जमाने के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री थे। वे सन् 1975 तथा 1989 ई. में भी मुख्यमंत्री बने। प्रदेश के मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने अपने सिंचाई प्लान पर अमल करना शुरू कर दिया। उनके मुख्यमंत्रीत्व काल में अविभाजित मध्यप्रदेश राज्य में कृषि के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य हुए। उन्होंने चुंगीकर समाप्त कर दिया। बेरोजगारों के लिए बेरोजगारी भत्ता देने की शुरुवात भी की। आपात काल के दौरान जिन लोगों को मीसा के अंतर्गत बंदी बनाया गया था उनके कार्यकाल में खुले दिल से पैरोल दी गई।
पं. श्यामाचरण शुक्ल ने अविभाजित मध्यप्रदेश के हर क्षेत्र को सिंचाई, विद्युत या जल प्रदाय की योजनाओं के लिए चुना व कार्य करवाए। उन्होंने राज्य के प्रायः सभी जिलों में मध्यम व छोटी सिंचाई योजनाओं का कार्य किया। उन्होंने ऐसे क्षेत्र में जहाँ पहले बरसात में ही एक फसल लेना मुष्किल था वहाँ सिंचाई की ऐसी व्यवस्था करवाई कि अब वहाँ आसानी से दो-तीन फसल ली जा रही है। यही कारण है कि पं. श्यामाचरण शुक्ल को ‘पानी वाले महाराजा’ कहा जाता है। उन्होंने सतपुडा, अमरकंटक, कोरबा और विरसिंहपुर जैसी ताप विद्युत इकाइयाँ स्थापित की और उनके कार्यकाल में ही उनसे विद्युत उत्पादन शुरू हुआ।
पं. श्यामाचरण शुक्ल का ध्यान उद्योगों की ओर भी था। वे खनिज संपदा का पूरा दोहन शासन के द्वारा करना चाहते थे। वे मानते थे कि राज्य की प्राकृतिक संपदा का सही उपयोग औद्योगीकरण के माध्यम से ही हो सकता है। उनकी पहल पर मध्यप्रदेश में नगर एवं ग्रामनिवेश संचालनालय स्थापित हुआ। नगर तथा ग्रामनिवेश अधिनियम बना, गृह निर्माण मंडल अधिनियम बना। सलीके के कपडे, स्वाध्याय, स्वादिष्ट भोजन, हिंदुस्तानी व शास्त्रीय संगीत एवं साफ सुथरी फिल्में उन्हें बहुत पसंद थी। उनके आकर्षक व्यक्तित्व के कारण पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र उन्हें ‘प्रिंस आफ छत्तीसगढ़’ कहा करते थे।
साहित्य में उनकी विशेष रूचि थी। वे प्रतिदिन कुछ समय पढ़ने के लिए अवश्य निकालते थे। उनका अपना एक स्वयं का ग्रंथालय भी था। उन्होंने ‘महाकौशल’ दैनिक पत्र का सम्पादन भी किया।
14 फरवरी सन् 2007 को शुक्ल जी का देहांत हो गया।
राष्ट्रप्रेम, सामाजिक सरोकार और कांग्रेस की रीति-नीति उनके रोम-रोम में बसी हुई थी। चुनावी राजनीति उन्हें विरासत में जरूर मिली लेकिन राजनीति में ऊँचाइयों को उन्होंने अपने दमखम, अपनी खूबियों और अपने आदर्शों के साथ छुआ। वे वैज्ञानिक सोच रखने वाले प्रगतिशील विचारों के राजनेता थे जो सर्वहारा के प्रति प्रतिबद्ध रहते हुए एक नई सामाजिक, आर्थिक संरचना के लिए काम किए।
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प्रो. जयनारायण पाण्डेय
जयनारायण पाण्डेय प्रखर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, क्रांतिकारी पत्रकार, कवि, लेखक, शिक्षाशास्त्री एवं समाजवादी विचारक थे। उनका जन्म 30 दिसम्बर सन् 1925 ई. को ग्राम रामापुर, जिला इलाहाबाद, उŸारप्रदेश में हुआ था। उनके पिता श्री विश्वनाथ पाण्डेय रायपुर के नयापारा स्कूल में अध्यापक थे। जयनारायण ने यहीं से चैथी कक्षा तक तथा पाँचवी से दसवीं तक की पढ़ाई गवर्नमेण्ट हाईस्कूल से की। यह अब प्रो. जयनारायण पाण्डेय शासकीय बहु उद्देशीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के नाम से जाना जाता है। कुशाग्र बुद्वि, कठिन परिश्रम तथा संस्कृताचार्य पिता के मार्गदर्शन में वे विद्यार्थी जीवन में सदैव प्रावीण्य सूची में अपना नाम दर्ज कराते।
जयनारायण पाण्डेय को सन् 1936-37 ई. में गवर्नमेण्ट हाईस्कूल के आलराऊण्डर छात्र का खिताब मिला। उन्होंने मात्र सोलह वर्ष की आयु में ही स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेना शुरु कर दिया था। उन्होंने अपने विद्यालय की प्राचीर पर फहरा रहे ब्रिटिश झण्डे को हटाकर भारतीय तिरंगा झण्डा फहरा दिया तथा रायपुर सेंट्रल जेल की दीवार को डायनामाइट से भेदने की कोशिश की। परिणामस्वरूप वे ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए तथा उन्हें छह-छह माह की कारावास की सजा सुनाई गई। मात्र सत्रह वर्ष की किशोरवय तथा मेधावी छात्र होने की वजह से ये छह-छह माह की अलग-अलग सजा एक साथ लागू की गई थी। वे 6 जून सन् 1943 से 16 नवम्बर, 1943 तक जेल में रहे।
विद्यार्थी जीवन में क्रांतिकारी भावना का प्रदर्शन करने तथा स्वतंत्रता संग्राम में भागीदार बनने वाले मेधावी छात्र जयनारायण पाण्डेय को मैट्रिक की परीक्षा में प्रावीण्य सूची में स्थान मिला था। इसके बावजूद उनके स्थानांतरण प्रमाण-पत्र के ‘चरित्र’ कालम में He took a leading part in undeasirable Political activities अर्थात् ‘वह अवांछित राजनीतिक गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया करता था’ दर्ज था।
मैट्रिक की परीक्षा में गणित और विज्ञान विषय में विशेष योग्यता हासिल करने के बाद भी इस रिमार्क तथा कमजोर आर्थिक स्थिति की वजह से जयनारायण पाण्डेय गणित संकाय में उच्च शिक्षा प्राप्त करने तात्कालीन राजधानी नागपुर नहीं जा सके। मेधावी विद्यार्थी होने से वे छत्तीसगढ़ कॉलेज, रायपुर में बी.ए. आनर्स में दाखिला पा गए। उन्होंने शास्त्री, साहित्य रत्न, बी.ए. आनर्स की उपाधि प्रथम श्रेणी में हासिल की।
क्रांतिकारी मानसिकता लिए देशभक्ति और राष्ट्रसेवा का जज्बा संजोए विद्यार्थी जयनारायण पाण्डेय ने अध्ययन के साथ अपनी पढ़ाई-लिखाई का खर्च स्वयं वहन करते हुए कभी अरुंधती शाला आरंग में तो कभी छत्तीसगढ़ कॉलेज, रायपुर में अध्यापन किया कभी षालेय शिक्षा की पाठ्यपुस्तकों का लेखन कार्य तो कभी सोशलिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता (कालांतर में प्रांतीय मंत्री) बनकर कार्य किया।
जयनारायण पाण्डेय जी ने एम.ए. तथा एल.एल.बी की पढ़ाई नागपुर के माॅरिस कॉलेज से की। इस समय वे नियमित छात्र होने के अलावा नागपुर से प्रकाशित सोषलिस्ट पार्टी के मुखपत्र जनमत के प्रमुख संपादक का दायित्व भी निभाते रहे। जनमत आजादी के बाद जयनारायण पाण्डेय की लेखनी से शोषण, अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टचार एवं सरकारी विसंगतियों को उजागर करने वाला अखबार माना जाता था। इसके व्यवस्थापक ष्यामनारायण काष्मीरी थे। आजादी के बाद छत्तीसगढ़ अंचल के रियासतों के विलीनीकरण के समय हुए आंदोलनो में भी उन्होंने सक्रिय रूप से भाग लिया।
सन् 1949 ई. में जयनारायण पाण्डेय का विवाह सुप्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री पं. रामनरेश मिश्र की सुपुत्री श्याम कुमारी से पारंपरिक ढकोसलों को दरकिनार करते हुए वैदिक रीति से संपन्न हुआ। जयनारायण पाण्डेय दहेज के नाम पर मात्र एक रुपए ही स्वीकार किए थे।
सन् 1951 ई. में वे रायपुर के दुर्गा कॉलेज के संस्थापक प्राचार्य बनेे। सन् 1955 ई. में शासकीय सेवा में आने के पश्चात् प्रो. जयनारायण पाण्डेय राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक के पद पर क्रमश: महाकौशल महाविद्यालय जबलपुर, संस्कृत महाविद्यालय रायपुर, जगदलपुर, नीमच तथा अंबिकापुर में पदस्थ रहे।
प्रो. जयनारायण पाण्डेय कुशल शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता तथा राजनीति विज्ञान के सुप्रसिद्ध लेखक होने के साथ ही हिन्दी के अच्छे कवि, आलोचक तथा निबंधकार थे। उनका जितना अधिकार हिंदी व संस्कृत पर था, उतना ही अधिकार उर्दू और अंग्रेजी भाषा पर भी था।
प्रो. जयनारायण पाण्डेय ने विद्यार्थी जीवन से ही कविताएँ लिखनी शुरु कर दी थीं। मई सन् 1956 ई. में उनकी लिखी हुई आदिवासी जीवन की एक मार्मिक प्रणय गाथा वसुधा में सिंगार बहार छपी थी। उनकी अमरकृति ‘प्रमुख राजनीतिक विचारकों की चिंतनधारा’ उत्तरप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हुई। इसे सागर विश्वविद्यालय द्वारा बी.ए. के राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम के रुप में मान्य किया गया था।
प्रो. जयनारायण पाण्डेय ने अमेरिकी राजदूत ऐलन के रायपुर आगमन पर उनके भाषण का सभास्थल पर ही हिंदी में अनुवाद किया। रायपुर आगमन पर भारत के राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री के अभिनंदन पत्रों का लेखन प्रो. जयनारायण पाण्डेय ने ही किया था। सन् 1952 ई. में उन्होंने ‘अबूझमाड़ियों के सामाजिक संबंध एवं उनकी समस्याएँ’ विषय पर षोधकार्य आरंभ किया था, जो कि पूरा नहीं हो सका।
प्रो. जयनारायण पाण्डेय ने संभागीय स्तर पर सन् 1959 तथा 1961 ई. में कालिदास महोत्सव के आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। रायपुर में विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए भी उन्होंने अथक प्रयास किए थे।
मात्र 39 वर्ष की अवस्था में 20 जनवरी सन् 1965 ई. को बनारस में प्रो. जयनारायण पाण्डेय का देहांत हो गया।
प्रो. जयनारायण पाण्डेय का व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावषाली था। वे अपने सम्पर्क में आने वाले लोगों को सदैव अच्छे कार्य करने के लिए प्रेरित करते थे। यही कारण है कि जब उनका देहांत हुआ तब उनकी धर्मपत्नी श्यामकुमारी जी, जिसे विवाह के बाद प्रो. जयनारायण पाण्डेय ने पढ़ने-लिखने के लिए पे्ररित किया था, ने अपने चारों बच्चों को स्वयं अध्यापन कार्य करते हुए उच्च शिक्षा दिलाई और आज वे सभी उच्च पदों पर अपनी सेवाएँ दे रहे हैं।
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नगर माता बिन्नीबाई सोनकर
आज के भौतिकवादी युग में जहाँ लोग लोभ, ईष्र्या, द्वेष एवं भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे हुए हैं। उन्हें दूसरों के बारे में सोचने तक के लिए समय नहीं है, वहीं बिन्नीबाई सोनकर जैसी दिलेर महिला हंै जो स्वयं अनपढ़ होकर भी समाज सेवा का ऐसा साहसिक कार्य कर हमारे समक्ष एक आदर्ष प्रस्तुत किए हैं जो बड़े-बड़े उद्योगपति भी नहीं कर सकते। एक अरबों का मालिक उद्योगपति यदि कुछ लाख रुपए समाज सेवा में लगाए तो वह उतना बड़ा आदर्ष नहीं बनता जितना कि एक सब्जी बेचने वाली महिला अनपढ़, दिनभर कड़ी धूप, बरसात या कड़कड़ाती ठंड में हाथों में तराजू और सिर पर सब्जी की टोकरी उठाए संघर्षपूर्ण जीवन के बीच अपने जीवनभर की कमाई राज्य के सबसे बड़े अस्पताल को धर्मशाला बनाने के लिए दान कर देती है।
नगरमाता के नाम से विख्यात बिन्नीबाई सोनकर का जन्म वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी रायपुर के सोनकरपारा, पुरानी बस्ती मे एक साधारण किसान परिवार में सन् 1927 ई. में हुआ था। इनके पिताजी का नाम घुटरु सोनकर तथा माताजी का नाम रामबाई था। माता-पिता की इकलौती संतान होने से उनका पालन-पोषण बहुत लाड़-प्यार से हुआ।
बिन्नीबाई के घर के आस-पास कोई विद्यालय नहीं होने तथा तत्कालीन समाज में स्त्री शिक्षा के प्रति जागरूकता का अभाव होने से उनकी पढ़ाई-लिखाई के विषय में किसी ने भी कोई विचार नहीं किया बल्कि उन्हें घरेलू कामकाज तथा खेती-किसानी के काम जैसे निंदाई- गुड़़ाई, बाग से सब्जी तोड़ना, उसे सब्जी बाजार में ले जाकर बेचना आदि काम सिखाया गया। पढ़ने-लिखने की उम्र में वह घर के कामकाज पूरा करने के बाद रामकुण्ड (वर्तमान समता काॅलोनी, जो उनके घर से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।) अपने माँ-पिताजी के लिए खाना पहुँचाने जाती थी।
बिन्नीबाई सोनकर की षादी भाठागाँव के आँधू सोनकर से हुई। विवाह के दो साल बाद उन्होंने एक बेटी को जन्म दिया जिसका नाम उन्होंने फागन रखा। कालांतर में आँधू सोनकर कुसंगति में पड़ गए। जुआ, शराब और समझाइस देने पर पत्नी से मारपीट करना उनके लिए आम बात हो गई। परिवार की इज्जत और बेटी के भविष्य की खातिर बिन्नीबाई ये सब चुपचाप सहती रहीं। इस बीच उनकी बेटी फागन भी विवाह योग्य हो गई तो बिन्नीबाई ने अपने माता-पिता के सहयोग से रामकुण्ड निवासी बसंत सोनकर से उसका विवाह कर दिया।
बेटी की विदाई के बाद बिन्नीबाई सोनकर का गृहस्थ जीवन कष्टप्रद हो गया। पति की प्रताड़नाओं से तंग आकर उन्होंने उनका घर छोड़ दिया। बाद में सोनकर समाज के माध्यम से उनमें तलाक हो गया। अब वे अपने माता-पिता के साथ रहने लगीं और उनके खेतीबाड़ी के कारोबार में सहयोग देने लगी। वे प्रतिदिन रामकुण्ड स्थित सब्जी बाड़ी जातीं, स्वयं कुएँ से पानी निकालकर सिंचाई करती। सब्जी तोड़कर सिर पर टोकरी रखकर जवाहर सब्जी बाजार पिताजी के पसरा (सब्जी दुकान) में जाती और रात के आठ-नौ बजे तक सब्जी बेचकर घर लौटतीं।
बिन्नीबाई सोनकर अपने वृद्ध माता-पिता की खूब सेवा करती थीं। कालांतर में क्रमश: उसके वृद्ध माता-पिता का भी निधन हो गया। अब बिन्नीबाई पूरी तरह से अकेली पड़ र्गइं क्योंकि विवाह के बाद उनकी बेटी फागन भी अपने परिवार में ही रम गई थी। उसने अपने माता-पिता से कोई संबंध नहीं रखा।
माता-पिता की मत्यु के बाद बिन्नीबाई का जीवन यंत्रवत हो गया। सुबह से षाम तक सिर्फ काम। उन्होंने अपने जीवन में बहुत से उतार-चढ़ाव देखे। उनके मन में ये भाव जागा- ‘‘आखिर ये सब किसलिए ? किसके लिए कर रही हूँ मैं इतना काम ? मेरे बाद तो सभी रिष्तेदार पैसों के लिए आपस में लड़ाई-झगड़ा ही करेंगे। इससे तो अच्छा है कि कुछ ऐसा कर जाऊँ जिससे कि गरीबों की मदद हो और उनके लिए सहारा बन सकूँ।’’ उन्होंने अपने जीवन को सार्वजनिक बनाकर अपना सब कुछ, जमा पूँजी जनकल्याण के कार्यों में लगा देने का निश्चय किया।
सर्वप्रथम बिन्नीबाई ने रायपुर के लोहार चौक, पुरानी बस्ती में एक षिव मंदिर का निर्माण करवाया। पढ़ाई न कर पाने का दर्द वह जानती थीं। इसलिए सन् 1987-88 ई. में उन्होंने कुषालपुर रिंगरोड की अपनी जमीन को बेचकर मिले पैसे से रामकुण्ड में जमीन खरीदकर एक प्रायमरी स्कूल खुलवाया। यह स्कूल आजकल बिन्नीबाई प्राथमिक स्कूल के नाम से जाना जाता है।
सन् 1993 ई. में रायपुर के पं. जवाहर लाल नेहरु मेमोरियल मेडिकल कॉलेज में अपने इलाज के दौरान बिन्नीबाई सोनकर ने देखा कि दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों से आए मरीजों के परिजन वहाँ बड़ी कठिनाई में रह रहे हैं। उनका खाना-पीना, रहना सब काम खुले आसमान के नीचे बहुत कठिनाई से हो रहा है। उनका हृदय दुःख से भर उठा। उन्होंने अस्पताल परिसर में ही एक विशाल धर्मशाला बनाने का निश्चय किया।
बिन्नीबाई सोनकर के एक परिजन डॉ. अषोक सोनकर, जो उस समय पं. जवाहर लाल नेहरु मेमोरियल मेडिकल कॉलेज, रायपुर में अध्ययनरत थे, के सद्प्रयासों से उन्हें वहाँ पर एक धर्मशाला खोलने की अनुमति अस्पताल प्रशासन से मिल गई। इसके बाद सन् 1993 ई. में बिन्नीबाई ने रायपुर के तात्कालीन कमिष्नर श्री जे. एल. बोस को अपनी जमा पूँजी दस लाख रुपए सौंप दिए।
जुलाई सन् 1994 ई. में तत्कालीन मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री श्री अषोक राव ने भूमिपूजन किया और सन् 1997 ई. में बिन्नीबाई सोनकर धर्मशाला भवन का उद्घाटन अविभाजित मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह जी के कर कमलों से संपन्न हुआ।
श्री दिग्विजय सिंह जी ने बिन्नीबाई सोनकर के इस अनूठे दान की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की और उनके जीवन यापन के लिए एक हजार रुपए प्रतिमाह पेंशन देने की घोषणा की, जिसे बिन्नीबाई ने यह कहकर ठुकरा दी कि ‘‘मँय नून चटनी में बासी खाके जीवन चला लेहूँ लेकिन कोनो किसिम के सरकारी सहायता नई झोंकव।’’
स्न् 1998 ई. में रायपुर नगम निगम द्वारा प्रतीक चिह्न एवं ‘नगरमाता’ की उपाधि देकर उनका सम्मान किया गया। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा समाजसेवा के लिए उन्हें प्रतिष्ठित ‘मिनीमाता’ सम्मान से नवाजा गया।
20 अगस्त सन् 2004 ई. को उनका देहांत हुआ लेकिन करुणा और त्याग का जो पाठ उन्होंने हमें सिखाया है वह हमेेषा याद किया जाएगा।
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31.
महाराजा प्रवीरचंद भंजदेव
बस्तर के काकतीय (चालुक्य) राजवंश के अंतिम शासक और महान आत्म बलिदानी विभूतियों में महाराज प्रवीरचंद भंजदेव जी का नाम ज्योतिर्पुंज के समान दैदीप्यमान है। उनका जन्म 25 जून सन् 1929 ई. को दार्जिलिंग में हुआ था। उनके पिताजी का नाम प्रफुल्लचंद भंजदेव तथा माताजी का नाम प्रफुल्ल कुमारी देवी था। यह महज संयोग ही था कि उनके माता-पिता के नाम के प्रथम शब्द एक ही था। बस्तर का राज सिंहासन प्रफुल्ल कुमारी देवी को विरासत में प्राप्त हुआ था।
राजकुमार प्रवीरचंद भंजदेव का पालऩ-पोषण तथा शिक्षा पाश्चात्य प्रभाव में हुआ परंतु अंतःकरण भारतीयता से ओतप्रोत था। सन् 1936 ई. में उनकी माताजी के आकस्मिक निधन पश्चात् उन्हें मात्र सात वर्ष की आयु में राजगद्दी पर बैठाया गया।
प्रवीरचंद भंजदेव की शिक्षा-दीक्षा पहले लंदन तथा फिर राजकुमार कॉलेज, रायपुर, डेली कॉलेज, इंदौर तथा मिलिट्री एकेडमी, देहरादून में संपन्न हुई। विद्यार्थी जीवन से ही वे दबंग स्वभाव के थे। वे किसी से भी नहीं डरते थे। पढ़ाई में उनकी गहरी रूचि थी। इतिहास एवं भूगोल उनके प्रिय विषय थे। वे सांस्कृतिक कार्यक्रम तथा खेलकूद प्रतियोगिताओं में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे।
जुलाई सन् 1947 ई. में वयस्क होने पर प्रवीरचंद भंजदेव को अंगे्रेजों ने शासन के पूर्ण अधिकार सौप दिए। इसी बीच 15 अगस्त सन् 1947 ई. को भारत को आजादी मिली। छत्तीसगढ़ के अन्य देशी रियासतों के राजाओं की भाँति महाराज प्रवीरचंद भंजदेव ने भी अपने राज्य को भारत संघ में विलय करा दिया।
सरदार वल्लभभाई पटेल के समक्ष विलीनीकरण प्रपत्र पर हस्ताक्षर करने वाले राजाओं में सबसे पहले महाराज प्रवीरचंद भंजदेव ही थे। ऐसा करके उन्होंने उदारवादी राष्ट्रीय एवं नैतिक दृष्टिकोण का परिचय दिया।
प्रवीरचंद भंजदेव के लिए अन्य राजाओं की भाँति प्रीव्हीपर्स की व्यवस्था की गई। वे शासन से प्राप्त प्रीव्हीपर्स की राशि को मुक्तहस्त से जन-कल्याण के कार्यों में खर्च करते थे। वे अपने पूर्वजों से प्राप्त सम्पत्ति को भी अपनी मर्जी से जी-भरकर लुटाए तथा सदैव देश की राजनीति में चर्चित रहे। अखबारों की सुर्खियों में उनका नाम अकसर आता। उनके पक्ष-विपक्ष में ढेर सारा कहा व लिखा गया। रियासत के भारत में विलीनीकरण के बाद प्रवीरचंद भंजदेव राजनीति में सक्रिय रहते हुए बस्तर के विधायक चुने गए। उनके क्षेत्र में उन्हीं के समर्थक ही विधायक बनते रहे।
कालांतर में वैचारिक मतभेद होने पर प्रवीरचंद भंजदेव ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। शासन से उनका मतभेद इतना उग्र हो गया कि प्रवीरचंद भंजदेव ने बस्तर में स्वतंत्र राज्य की स्थापना की दलील पेश की। इससे सरकार द्वारा उनके प्रीव्हीपर्स को बंद कर दिया गया तथा उन्हें भूतपूर्व महाराजा की पदवी से भी अलग कर दिया। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। प्रतिक्रियास्वरूप उनकी भक्त प्रजा विशेषकर आदिवासी लोगों ने आंदोलन कर दिया। पुलिस फायरिंग में कई लोग मारे गए। प्रवीरचंद भंजदेव न्यायालय में मुकदमा लड़कर छूटे। उनका शासन से टकराव चलता रहा। अंततः 25 मार्च सन् 1966 को राजमहल गोलीकांड में उन्होंने प्राण-न्यौछावर किए।
आदिवासियों के हितों का संरक्षण एवं उन्हें संगठित करने के साथ-साथ उनकी संस्कृति और अधिकारों की रक्षा के लिए प्रवीरचंद भंजदेव अंतिम साँस तक सदैव तत्पर रहे। वे उदारतापूर्वक सबकी सहायता करते थे। उनके कार्य और चिंतन में बस्तर के सीधे-सादे और सरल हृदय के आदिवासियों का उत्थान सर्वोपरि था।
प्रवीरचंद भंजदेव अश्वारोहण, टेनिस तथा क्रिकेट के एक अच्छे खिलाड़ी थे। वे अपने क्षेत्र में आयोजित होने वाले विभिन्न खेल प्रतियोगिताओं के लिए उदारतापूर्वक सहयोग करते थे। खेल के मैदान में वे अपने को कभी राजा नहीं समझते थे। वे सबको समान रूप से खिलाड़ी समझते थे। विभिन्न प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाली टीमों का वे जगदलपुर नगर की सीमा में जाकर स्वागत करते तथा उनके रहने तथा खाने-पीने की व्यवस्था का स्वयं निरीक्षण करते थे।
सन् 1965 ई. में जब बस्तर क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ा तो महाराज प्रवीरचंद भंजदेव ने प्रशासन से किसानों की सहायता करने हेतु पत्र लिखा। आवश्यकता के अनुरुप समय पर शासकीय सहायता नहीं मिलने से उन्होंने जनहित में राजमहल में ही साप्ताहिक बाजार लगाने का निर्णय लिया। यहाँ दूर-दराज के क्षेत्र से ग्रामीण आते और सस्ते भाव में साग-भाजी और दैनिक उपयोग की वस्तुएँ खरीदते और बेचते थे। जन समस्याओं के निराकरण हेतु शासन का ध्यान आकर्षित करने के लिए प्रवीरचंद भंजदेव के नेतृत्व में दस हजार महिलाओं ने कलेक्टर का घेराव किया था।
प्रवीरचंद भंजदेव साहित्य इतिहास तथा दर्शनशास्त्र के गंभीर अध्येता तथा हल्बी, हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत भाषा के ज्ञाता थे। उनकी मेजबानी में ही सन् 1950 ई. में जगदलपुर में मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के चौदहवें वार्षिक अधिवेशन का आयोजन किया गया। अधिवेशन के स्वागताध्यक्ष स्वयं महाराजा प्रवीरचंद भंजदेव थे। सम्मेलन के मुख्य अतिथि पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र और अध्यक्ष पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी थे। यह अधिवेशन राजमहल परिसर में ही हुआ।
स्वाध्याय प्रवीरचंद भंजदेव की दिनचर्या का अंग था। वे प्रतिदिन तीन-चार घंटे अवश्य पढ़ते। उनका अपना एक निजी ग्रंथालय था। उन्होंने हिंदी तथा अंग्रेजी में अनेक पुस्तकों की रचना की। इनमें प्रमुख हैं- लोहंडीगुड़ा, तरंगिणी, योग के आधार और I PRAVIR THE ADIVASI GOD.
प्रवीरचंद भंजदेव सत्ता के प्रति कभी आकर्षित नहीं हुए। उन्होंने एक सच्चे लोकनायक की भाँति सदैव आदिवासी लोगों तथा महिलाओं को लोकतांत्रिक व्यवस्था में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने आजीवन सामाजिक अन्याय एवं जीवन मूल्यों के दमन के विरूद्ध संघर्ष किया।
नवीन राज्य की स्थापना के बाद छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में तीरंदाजी के क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए राज्य स्तरीय महाराज प्रवीरचंद भंजदेव सम्मान स्थापित किया है।
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32.
स्वामी आत्मानंद
रायपुर में विवेकानंद आश्रम की स्थापना कर विवेक ज्योति के आलोक से पूरे अंचल में आध्यात्म की चेतना जाग्रत करने वाले स्वामी आत्मानंद का जन्म 6 अक्टूबर सन् 1929 ई. को रायपुर जिले के मांढर स्टेशन के नजदीक स्थित ग्राम बरबन्दा में हुआ था। इनके पिताजी का नाम धनीराम वर्मा तथा माताजी का नाम भाग्यवती देवी था। उनके बचपन का नाम रामेश्वर था किंतु विद्यालय में उनका नाम जन्मकुंडली के आधार पर तुलेन्द्र रखा गया।
तुलेन्द्र की प्राथमिक शिक्षा मांढर स्कूल में संपन्न हुई। वहीं उनके पिताजी शिक्षक थे। वे अध्यापन के साथ ही स्वदेशी आंदोलन की गतिविधियों में भी भाग लेते रहते थे। उनके सतत् संपर्क में रहने से उनके जीवन की विशेषताएँ जैसे-स्वाध्याय, सदाचार, धर्माचरण तथा देशप्रेम की भावना का प्रभाव तुलेन्द्र पर भी पड़ा। तुलेन्द्र एक मेधावी बालक था। उन्होंने प्रायमरी स्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की।
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी द्वारा स्थापित बुनियादी प्रशिक्षण विद्यालय वर्धा में धनीराम वर्मा की नियुक्ति हो जाने पर वे सन् 1938 ई. में सपरिवार वर्धा चले गए। वे प्रायः प्रत्येक रविवार को महात्मा गाँधीजी से मिलने बालक तुलेन्द्र को लेकर सेवाग्राम जाते। तुलेन्द्र गाँधीजी के साथ अकसर टहलने जाते। गाँधीजी के सान्निध्य में बिताए दो वर्ष तुलेन्द्र और उनके परिवार के लिए प्रेरणादायक रहे।
सन् 1940 ई. में धनीराम वर्मा की पद स्थापना रायपुर में हो जाने पर तुलेन्द्र ने संेटपाल स्कूल में प्रवेश लिया तथा मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने नागपुर के हिसलाप कॉलेज में प्रवेश लिया। वे वहाँ रामकृष्ण आश्रम के विद्यार्थी भवन में रहते हुए पढ़ाई करने लगे। उन्होंने श्रीरामकृष्ण एवं विवेकानंद साहित्य का गहन अध्ययन किया। यहीं उनके आध्यात्मिक साधना की शुरूआत हुई।
तुलेन्द्र ने सन् 1947 ई. में रामकृष्ण मठ और मिशन के अध्यक्ष स्वामी बिरजानंद जी से मंत्र दीक्षा ली। जब वे संन्यास ग्रहण करना चाहते थे तब स्वामी बिरजानंद ने उन्हें आदेश दिया- ‘‘पहले अपने बौद्धिक और मानसिक प्रतिभा को दुनिया के समक्ष सिद्ध करने के लिए अपनी विश्वविद्यालयीन शिक्षा पूरी करो।’’ तुलेन्द्र ने गुरु के आदेश को शिरोधार्य कर सन् 1949 ई. में बी.एससी. तथा 1951 ई. में एम.एससी. गणित की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उन्होंने आई.ए.एस. की परीक्षा में भी सफलता प्राप्त कर अपनी विशिष्ट योग्यता सिद्ध कर दी।
गृहस्थी मायाजाल से मुक्त होकर अपनी पूरी शक्ति से रामकृष्ण एवं स्वामी विवेकानंद जी के आदर्षों को क्रियारुप देने के लिए तुलेन्द नागपुर स्थित रामकृष्ण आश्रम चले गए। आश्रम के संचालक स्वामी भास्करानंद जी से वे बहुत प्रभावित थे। उन्होंने तुलेन्द्र को आश्रम के प्रकाशन विभाग का दायित्व सौंपा। तुलेन्द्र ने यहाँ आठ वर्षों तक प्रकाशन विभाग का दायित्व निर्वहन करते हुए विभिन्न शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। इसी बीच उन्होंने सन् 1957 ई. में रामकृष्ण आश्रम के महा अध्यक्ष स्वामी शंकरानंद जी से ब्रह्मचर्य व्रत की दीक्षा ली। तब उनका नाम ब्रह्मचारी तेज चैतन्य रखा गया। सन् 1959 ई. में वे तपस्या के लिए हिमालय तथा बाद में अमरकंटक चले आए। वहाँ नर्मदा नदी के उद्गम स्थल पर उन्होंने संन्यास ग्रहण किया और अपना संन्यासी नाम आत्मानंद रख लिया।
आत्मानंद रायपुर में रामकृष्ण आश्रम की स्थापना करना चाहते थे परंतु इसके लिए धन की आवश्यकता थी। इसके लिए वे रायपुर नगर पालिका भवन में प्रत्येक रविवार को गीता पर प्रवचन देने लगे। वे लोगों के सामने आश्रम की स्थापना का विचार भी रखते तथा इस हेतु धन की आवश्यकता बताते। आस-पास के सैकडों युवक उनकी ओर आकृष्ट हुए। आश्रम की स्थापना के लिए धन का संग्रह भी होने लगा।
सन् 1961 ई. को राज्य सरकार द्वारा रायपुर में आश्रम निर्माण हेतु 93,098 वर्गफुट का भू-खण्ड आबंटित किया गया। साल भर में ही एक कुटी, तीन कमरे और विशाल कक्ष का निर्माण हो गया। 13 अप्रैल सन् 1962 को रामनवमी के दिन आश्रम का उद्घाटन हुआ।
सन् 1964 में आश्रम परिसर में विवेकानंद ग्रंथालय एवं विवेकानंद औषधालय का भी निर्माण किया गया। जनवरी सन् 1963 ई. को स्वामी आत्मानंद जी ने आश्रम से ‘विवेक ज्योति’ नामक पत्रिका का प्रकाशन भी प्रारंभ कर दिया था जो कि आज क्षेत्र की सर्वाधिक लोकप्रिय मासिक पत्रिकाओं में से एक है। सन् 1976 ई. में उन्होंने आश्रम परिसर में ही एक भव्य रामकृष्ण मंदिर की स्थापना कराई।
स्वामी आत्मानंद रामकृष्ण परमहंस तथा विवेकानंद की भाँति पीड़ित मानवता की सेवा को ही ईष्वर की उपासना मानते थे। सन् 1974 ई. में क्षेत्र में पड़े भीषण अकाल के समय उन्होंने मंदिर निर्माण हेतु एकत्रित लगभग साढे़ छह लाख रुपए अकाल पीड़ितों की सहायता में खर्च कर दिए।
स्वामी आत्मानंद बस्तर के अबूझमाड़ क्षेत्र के वनवासियों की अशिक्षा, गरीबी व दुदर्षा को देखकर अत्यंत व्यथित हो गए। उन्होंने इनके उत्थान का संकल्प लिया और नारायणपुर को केंद्र मानकर सेवा-कार्य प्रारंभ किया। उन्होंने रामकृष्ण मिशन, विवेकानंद आश्रम तथा मध्यप्रदेश सरकार के सहयोग से इस क्षेत्र में कई अस्पताल, विद्यालय, छात्रावास, आवासीय विद्यालय एवं उचित मूल्य की दुकानें खुलवाईं। क्षेत्र में स्त्री शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने नारायणपुर में VIVEKANANDA INSTITUTE FOR SOCIAL WELFARE AND SERVICE (VISHWAS) नामक एक बहु आयामी संस्था की स्थापना की। UNICEF आर्थिक अनुदान से इस संस्था द्वारा निर्मित सर्व सुविधायुक्त कन्या छात्रावास में आज वनवासी छात्राएँ शिक्षा के साथ-साथ संस्कार भी प्राप्त कर रही हैं।
आत्मानंद ने विवेक ज्योति पत्रिका के संपादन के अलावा अनेक ग्रंथों की रचना भी की है। उन्होंने बांग्ला भाषा की कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का हिन्दी में अनुवाद किया। इनमें प्रमुख हैं- भारत में शक्ति पूजा, मन और उसका निग्रह, माँ षारदा। उन्होंने पं. रामकिंकर उपाध्याय के प्रवचनों को लिपिबद्ध करवा कर उनका संपादन किया। आकाषवाणी से उनकी अनेक वार्ताएँ आत्मोन्नति के नाम से प्रसारित हईं। समाज सेवा के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने के कारण उन्हें समय-समय पर रामकृष्ण मिशन, महावीर फाउण्डेशन, पोर्ते पुरस्कार, अम्बेडकर पुरस्कार एवं अन्य कई सम्मान दिए गए।
भोपाल से रायपुर आते समय राजनांदगाँव के पास कोहका में उनकी जीप 27 अगस्त सन् 1989 को दुर्घटनाग्रस्त हो गई। स्वामी आत्मानंद ने ‘ऊँ ऊँ ऊँ’ का उच्चारण करते हुए इहलोक का परित्याग कर दिया। रायपुर की जनता ने अपने इस लोकप्रिय दार्शनिक समाज सेवक आनंदमूर्ति की याद में स्मृति मंदिर की स्थापना की है।
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शहीद विनोद चौबे
विनोद चौबे का जन्म 22 अप्रैल सन् 1960 ई. को बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में हुआ। उनके पिताजी का नाम श्री द्वारिका प्रसाद चौबे और माताजी का नात श्रीमती कमलादेवी था। विनोद चौबे ने एम.एस-सी. (रसायन शास्त्र) तक की शिक्षा बिलासपुर में ही प्राप्त की।
विनोद चौबे बचपन से ही अनुशासन प्रिय, संयमित और प्रखर बुद्धि वाले थे। देश की सेवा के लिए पुलिस अधिकारी बनना उनका लक्ष्य था। उनका सन् 1983 ई. में राज्य पुलिस सेवा में पुलिस उप अधीक्षक के पद पर चयन हुआ। रायपुर में परीवीक्षा अवधि के बाद विभिन्न स्थानों पर पदस्थ रहे तथा लगातार अपनी कार्यकुशलता और क्षमता के बल पर विभिन्न पदों पर पदोन्नति प्राप्त की और सन् 1998 ई. में भारतीय पुलिस सेवा में वरिष्ठता प्राप्त की। इसके बाद वे पुलिस अधीक्षक अम्बिकापुर, कांकेर और राजनाँदगाँव में पदस्थ हुए।
अनुशासन ने उनके आंतरिक एवं बाह्य जीवन को किसी षांत नदी की तरह एक तट से दूसरे तट तक बांधकर रखा था। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण सन् 1984 ई. में सिक्ख विरोधी दंगों में जब पूरा देश अस्थिर था तब उन्होंने बलौदा बाजार में अनुविभागीय अधिकारी के रूप में दृढ़ता के साथ शांति एवं कानून व्यवस्था को नियंत्रित कर साम्प्रदायिक सद्भाव कायम करना, मध्यप्रदेश के सबसे संवेदनशील अनुविभाग आप्टा में विभिन्न संप्रदाय के लोगों में साम्प्रदायिक सद्भाव कायम करना, कंजरों के आतंक से पूरे अनुविभाग को मुक्त कराना, उज्जैन में दाऊद इब्राहिम के शूटर ‘शेरूवाला’ के आतंकी दास्तान को खत्म करने के आपरेशन ब्लेक थोर्न (काला कोटा) में सुनियोजित खुफिया तंत्र खड़ाकर एक भीषण मुठभेड़ में इस दुर्दान्त आतंकी को खत्म करना आदि था।
नक्सलवाद को खत्म करने के लिए विनोद चौबे का मानना था कि कुछ नक्सलियों को मारने या पकड़ने से ही इस समस्या का अंत नहीं होगा। इनकी जड़ों को खोजकर उसे समाप्त करना होगा, जिसके लिए सूचना तंत्र को मजबूत करना पड़ेगा। खासकर अपने अंतिम कार्यकाल के दौरान राजनांदगांव में उन्होंने नक्सलियों के षहरी नेटवर्क को तोड़ने में सफलता प्राप्त की। नक्सलियों के विरूद्ध किए गए कार्यों एवं नक्सलवाद को जड़ से मिटाने के आपके दृढ़ संकल्प के कारण नक्सलियों ने उनको हिट लिस्ट में षामिल कर लिया। इसी के कारण कांकेर में बारूदी सुरंग से जानलेवा हमला भी किया गया, लेकिन उनके बौद्धिक चातुर्य के कारण कोई अप्रिय घटना नहीं हुई। अपनी विफलताओं से बौखलाए नक्सलियों ने कई कायराना हरकतों को अंजाम देने की कोषिषें कीं।
अपने पूरे कार्यकाल में में विनोद चौबे को उनकी सफलताओं के लिए कई बार पुरस्कृत एवं सम्मानित किया गया। 15 अगस्त सन् 2002 ई. में उनको सराहनीय सेवाओं के लिए तात्कालीन राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जी द्वारा राष्ट्रपति पदक से सम्मानित किया गया। उनके कार्यकाल के इस सफलतम दौर में आखिर वह पड़ाव भी आया, जिसने समूचे देश-प्रदेश को स्तब्ध व मायूस कर दिया।
12 जुलाई 2009 को सुबह 7 बजे विनोद चौबे को संदेश मिला कि नक्सलियों ने जिला राजनांदगांव के पुलिस थाना मानपुर की बाहरी पोस्ट मदनवाड़ा पर आक्रमण कर दिया तथा तथा दो पुलिस वालों को मार गिराया है। वे तुरंत घटना स्थल पर पहुँचे जहाँ भयंकर लड़ाई चल रही थी। पुलिस के सुरंगरोधी वाहनों पर गोलियों व बमों से आक्रमण किया गया। सही समय पर उनके आ जाने की वजह से लड़ाई में फंसे पुलिसकर्मी बच गए एवं परिवहन यात्री बस भी सुरक्षित बच गया।
लगभग 300 नक्सली गोलीबारी करते हुए जंगल से बाहर आकर पेड़ों पर चढ़ गए और पुलिस दल पर हथगोले फेंकने लगे। नक्सलियों की संख्या अधिक होने एवं पहाड़ी के ऊपर होने के बावजूद उनके नेतृत्व में पुलिस दल डटा रहा। इस संघर्ष में विनोद चौबे का दृढ़ निश्चय और अदम्य साहस एक नायक की तरह रहा। गोलीबारी में वे गंभीर रूप से घायल हो गए और अंततः कर्तव्य की वेदी पर अपना सर्वोच्च बलिदान देकर अमर शहीद हो गए।
स्व. विनोद चौबे के अदम्य साहस और बलिदान के लिए राष्ट्रपति महामहिम प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के करकमलों से मरणोपरांत कीर्ति चक्र से नवाजा गया, जो राज्य में दिया गया यह प्रथम पुरस्कार है। छत्तीसगढ़ शासन के खेल एवं युवा कल्याण विभाग द्वारा उनकी स्मृति में सीनियर खिलाड़ियों के लिए राज्य स्तरीय ‘शहीद राजीव पांडेय पुरस्कार’ की स्थापना की गई है।
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शहीद राजीव पांडेय
स्वतंत्रता के बाद देश के लिए प्राणोत्सर्ग करने वालों में शहीद राजीव पांडेय का नाम अत्यंत ही श्रद्धापूर्वक लिया जाता है। उनका जन्म 11 अप्रैल सन् 1963 ई. को परतेवा नामक गाँव में हुआ था। यह रायपुर जिले के राजिम विकासखंड मुख्यालय से तेरह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। उनके पिताजी का नाम आर.पी. पांडेय था। अपने पिताजी से वे बहुत प्रभावित थे और उन्हें अपना आदर्श मानते थे।
राजीव पांडेय की प्राथमिक शिक्षा सेंट एलासेस स्कूल, जबलपुर तथा माध्यमिक शिक्षा सेंट्रल स्कूल, भोपाल में संपन्न हुई। उन्होंने उच्चतर माध्यमिक की पढ़़ाई केन्द्रीय विद्यालय, किर्की से करने के बाद शासकीय नागार्जुन विज्ञान स्नातकोत्तर महाविद्यालय, रायपुर से बी.एस-सी. की परीक्षा उत्तीर्ण की। विद्यार्थी जीवन में वे बैंडमिंटन और क्रिकेट के एक अच्छे खिलाड़ी थे।
राजीव पांडेय के पिताजी का जहाँ-जहाँ स्थानांतरण होता परिवार भी साथ ही जाता। फलस्वरूप उनकी पढ़ाई कई जगहों में हुई। बी.एस.सी. करने के कुछ दिन बाद ही राजीव पांडेय का चयन भारतीय सेना में हो गया। उन्होंने भारतीय रक्षा संस्थान देहरादून में डेढ़ वर्ष का विशेष प्रशिक्षण प्राप्त किया। जून 1985 ई. में सफलतापूर्वक प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद वे सेकेण्ड लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्त हुए। उनकी पहली पोस्ंिटग जम्मू एण्ड कष्मीर लाइट इन्फेंटरी में हुई।
सन् 1985 ई. में कमीशन प्राप्त करने के मात्र छह माह बाद ही राजीव पांडेय ने 26 जनवरी सन् 1986 ई. को गणतंत्र दिवस परेड में जम्मू एवं कष्मीर लाइट इंफेंटरी रेजीमेंट की टुकडी़ का नेतृत्व किया। शानदार परेड के लिए उन्हें तात्कालीन लेफ्टिनेंट जनरल वी.एस. नंदा ने ट्राफी प्रदान कर सम्मानित किया।
नवम्बर सन् 1986 ई. में जब वे एक बार पेट्रोलिंग पर निकले थे तो उन्हें सूचना मिली कि कुछ लोग बर्फ में दब गए हैं। वे तत्काल साथियों के साथ उस दुर्गम क्षेत्र में पहुँचे और बर्फ में दबे हुए 22 बेहोश लोगों को निकालकर 15-15 किलोमीटर कंधे पर लादकर सुरक्षित स्थान तक पहुँचाया। इस कार्य के लिए उनका नाम एवार्ड के लिए भेजा गया था।
राजीव पांडेय अपने साथी सैनिकों की अपेक्षा अधिक सतर्क, सक्रिय एवं सजग थे। यही कारण है कि जब पाकिस्तानी सेना ने भारत के सियाचीन ग्लेशियर के मोर्चे पर बलात कब्जा कर लिया था। सेना प्रमुख ने उन्हें ग्रुप लीडर बनाकर वहाँ भेजा। उनके साथ जी.सी.ओ. तथा अन्य सात सदस्य शामिल थे। ये सभी दक्ष पर्वतारोही थे।
सियाचीन ग्लेशियर का तापमान ऋण तीस डिग्री सेल्सियस था। इतने कम तापमान पर ठीक से साँस लेना भी बहुत मुश्किल है। सियाचीन मोर्चा बहुत ही महत्वपूर्ण था। सियाचीन क्षेत्र के अन्य सभी भारतीय चैकियों की रसद, शस्त्रास्त्र आदि पहुँचाने वाले हेलिकाप्टरों को इसी चौकी से ही गुजरना पड़ता था और पाकिस्तानी प्रहारों का शिकार होना पड़ता था। राजीव पांडेय के पहले भी वहाँ अन्य चार बटालियनों के सैन्य अधिकारियों को यह जिम्मेदारी सौंपी गई थी किंतु वे सभी इसे फतह करने में नाकाम रहे थे।
राजीव पांडेय के नेतृत्व में उनकी टीम ने बहुत ही सतर्कता पूर्वक अपने मिशन की शुरूआत की। उन्होंने विश्व की महत्वपूर्ण इक्कीस हजार फीट की इस ऊँची चोटी पर चढ़ने के लिए तीन किलोमीटर खुले रास्ते की अपेक्षा 1200 फीट के एक अन्य चढ़ाई वाले रास्ते से अभियान की शुरूआत की। पच्चीस मीटर के कठिन और अज्ञात रास्ते की खोज करने वे आगे बढ़े।
सामान्यतया वहाँ पहुँचने के लिए उन्हें 16-17 घंटे लगे। राजीव पांडेय चौकी के नजदीक पहुँचे ही थे कि राजीव के पीछे स्थित कवर फायरिंग के लिए तैनात अधिकारी ने रेडियो सेट पर बताया कि चार-पाँच पाकिस्तानी सैनिक ऊपर चढ़ रहे हैं और वह उन्हें गोली मारकर गिरा रहा है। उसने पाकिस्तानी सैनिकों पर फायरिंग कर दी। उस फायरिंग की आवाज सुनकर चौकी के अंदर के पाकिस्तानी सैनिक सतर्क हो गए। उन्होंने बाहर आकर राजीव और उनके सैनिकों पर अंधाधुंध फायरिंग करनी शुरू कर दी।
29 मई सन् 1987 ई. को हुए इस फायरिंग में राजीव पांडेय की छाती में गोली लगी। वे वहीं शहीद हो गए। कुछ देर बाद उनके अन्य छह साथी भी शहीद हो गए। दो अन्य साथी जख्मी हालत में वापस आए। बाद में ब्रिगेड कमांडर के नेतृत्व में 24, 25 एवं 26 जून को तीन दिन लगातार पचास जवानों के प्रयासों से उस चौकी पर हमला कर भारत ने कब्जा किया।
24 जून सन् 1987 ई. को पहली बार उन्होंने वहाँ पर जाने का रास्ता खोजा पर इस कार्य में उन्हें सफलता नहीं मिली। अगले दिन 25 जून को उन्हें राजीव पांडेय के द्वारा पहले से ढूंढ़ा गया रास्ता मिल गया, जिसमें उन्होंने मोटी-मोटी कीलें गाड़कर रस्सी बाँधी थी। इसके सहारे वे सभी ऊपर तो पहुंच गए, किंतु रात के अंधेरे में अत्यंत ठंड से उनके हथियार ठीक से काम नहीं कर पाए और गोले नहीं फूटे। इस कारण उन्हें न चाहते हुए भी वापस लौटना पड़ा। अगले दिन 26 जून को उन्होंने पूरी तैयारी से उस चौकी पर पुनः हमला किया और भारतीय तिरंगा झण्डा फहरा दिया। इस मुठभेड़ में 20 पाकिस्तानी तथा चार भारतीय सैनिक मारे गए।
इस महत्वपूर्ण चौकी पर भारतीय कब्जे का मुख्य श्रेय राजीव पांडेय को दिया गया क्योंकि उन्हीं के बनाए रास्ते से उस चौकी तक सफलतापूर्वक पहुंचा जा सका।
2 अप्रैल सन् 1988 ई. को शहीद राजीव पांडेय को मरणोपरांत ‘वीरचक्र’ प्रदान किया गया। उनका त्याग एवं बलिदान सदियों तक देश के युवाओं को बल और प्रेरणा देता रहेगा।
छत्तीसगढ़ शासन के खेल एवं युवा कल्याण विभाग द्वारा उनकी स्मृति में सीनियर खिलाड़ियों के लिए राज्य स्तरीय ‘शहीद राजीव पांडेय पुरस्कार’ की स्थापना की गई है। इस पुरस्कार के अंतर्गत वर्तमान में तीन लाख रुपए का नगद पुरस्कार दिया जाता है।
शहीद राजीव पांडेय की स्मृति में छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के संजय नगर में स्कूल का नाम ‘शहीद राजीव पाण्डेय स्कूल’ रखा गया है।
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35.
शहीद पंकज विक्रम
अपनी वीरता और साहसपूर्ण कारनामों से छत्तीसगढ़ का नाम ऊँचा करने वालों में शहीद लेफ्टिनेंट पंकज विक्रम का नाम सर्वोपरि है। उनका जन्म 16 जून सन् 1963 ई. को मिलिट्री हास्पीटल कानपुर में हुआ था। उनके पिताजी का नाम जीतेन्द्र विक्रम तथा माताजी का नाम राहिल विक्रम था।
पंकज विक्रम की स्कूली शिक्षा होलीक्रास स्कूल, पेंशनबाड़ा, रायपुर में हुई। वे पढ़ाई-लिखाई ही नहीं खेलकूद में भी सदैव आगे रहते थे। वे अपने स्कूल के व्हालीबाल टीम के कप्तान थे। उन्होंने रायपुर जिले की टेनिस टीम के कप्तान के रूप में भी टीम का प्रतिनिधित्व किया।
पंकज विक्रम विनम्र स्वभाव के एक प्रतिभाषाली विद्यार्थी थे। उन्होंने गणित संकाय के विषयों में विशिष्ट योग्यता के साथ प्रथम श्रेणी में हायर सेकेण्ड्री की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की। उन्होंने रायपुर के शासकीय इंजीनियरिंग महाविद्यालय में सन् 1979 में बी.ई. के सिविल निकाय में प्रवेश लिया। वे न केवल खेलकूद बल्कि सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। उन्होंने सन् 1985 में बी.ई. की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। उनका समग्र छात्र-जीवन एक आदर्ष मेधावी छात्र का जीवन रहा।
पंकज विक्रम की बचपन से ही इच्छा थी कि वे आर्मी ज्वाइन करें। वे अकसर अपने मित्रों और परिजनों से भी सेना में भर्ती होने की चर्चा किया करते थे। जहाँ चाह है वहाँ राह है। सन् 1985 ई. में ही पंकज विक्रम का चयन भारतीय थल सेना में कमीशन प्राप्त अफसर के रूप में हो गया। जनवरी सन् 1985 से दिसम्बर सन् 1986 तक दो वर्ष तक आई.एम.ए. देहरादून में कठिन प्रशिक्षण के बाद उन्हें कमीशन एवं लेफ्टिनेंट की उपाधि मिली। उन्होंने जनवरी सन् 1987 से जुलाई सन् 1987 तक छह माह का यंग आफिसर्स का प्रशिक्षण मिलिट्री कॉलेज पुणे से प्राप्त किया। यंग आफिसर्स का प्रशिक्षण सफलतापूर्वक पूर्ण करने के उपरांत उनकी पहली नियुक्ति इंजीनियर्स रेजीमेण्ट सिंकदराबाद मुख्यालय में की हुई।
जुलाई सन् 1987 ई. में भारत व श्रीलंका के मध्य एक ऐतिहासिक समझौता हुआ। इसके अनुसार श्रीलंका में शांति स्थापित करने भारत से शांति सैनिक भेजे गए। पंकज विक्रम भी अपनी युनिट के साथ शांति सैनिक के रूप में श्रीलंका गए। श्रीलंका में उस समय भयंकर अशांति एवं गृहयुद्ध जैसा माहौल था। अत्याधुनिक हथियारों से लैस आतंकवादी संगठन तमिल टाइगर्स के हमलों से प्रतिदिन श्रीलंका के सैकड़ों निर्दोष नागरिक मारे जा रहे थे।
श्रीलंका का जाफना क्षेत्र उस समय सर्वाधिक प्रभावित था। जगह- जगह बारूदी सुरंग बिछाए गए थे। पंकज विक्रम की टुकड़ी का मुख्य काम श्रीलंका के जाफना क्षेत्र में आतंकवादियों द्वारा बिछाई गई बारूदी सुरंगों को निष्प्रभावी करना था। यह बहुत ही जोखिम भरा काम था। स्पेशल इंजीनियरिंग टास्क फोर्स के इंचार्ज पंकज विक्रम ही थे। कुछ ही दिनों में उन्होंने सत्ताइस जगह अत्याधुनिक विस्फोटक प्रणाली को निष्क्रिय किया।
12 अगस्त सन् 1987 को उनकी सैनिक टुकड़ी षिवन पिल्लई मार्ग पर विस्फोटकों को निष्क्रिय करने में लगी थी। विस्फोटकों को निष्क्रिय करते समय एक भीषण विस्फोट हुआ, जिसमें पंकज विक्रम सहित चार सैनिक गंभीर रूप से घायल हो गए। उन्हें जाफना के अस्पताल में भर्ती कराया गया। दो दिन बाद 14 अगस्त सन् 1987 को उनका देहांत हो गया।
पंकज विक्रम के अद्भुत पराक्रम के लिए भारत सरकार ने उन्हें मरणोपरांत सेना पदक से सम्मानित किया जिसे उनके माता-पिता ने ग्रहण किया।
शहीद रायपुर नगर पालिक निगम के एक वार्ड का नाम ‘शहीद पंकज विक्रम वार्ड’ रखा गया है तथा चौक पर उनकी प्रतिमा स्थापित की गई है। रायपुर विकास प्राधिक्करण के द्वारा भी राजेन्द्र नगर क्षेत्र में ‘शहीद पंकज विक्रम परिसर’ की स्थापना की गई है।
शहीद पंकज विक्रम की स्मृति में छत्तीसगढ़ शासन के द्वारा एक राज्य स्तरीय खेल सम्मान स्थापित किया गया है।
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36.
शहीद कौशल यादव
कारगिल की लड़ाई में पाकिस्तानी सेना के छक्के छुड़ाते हुए प्राणोत्सर्ग करने वालों में छत्तीसगढ़ के लाडले सपूत लांस नायक कौशल यादव का नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित हो चुका है।
कौशल यादव का जन्म 4 अक्टूबर सन् 1969 को भिलाई में हुआ था। उनके पिताजी का नाम रामनाथ यादव तथा माताजी का नाम धनवन्ता देवी है। घर में कौशल को सभी प्यार से ‘लाल’ कहकर पुकारते थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय बी.पी.एस. स्कूल सेक्टर 7 एवं 8 और रिसाली में संपन्न हुई। कौशल यादव पढ़ाई-लिखाई में ठीक-ठाक थे परन्तु खेलकूद में उनकी विशेष रुचि थी। उनके माता-पिता उन्हें जब भी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान देने कहते, वे कहा करते थे- ‘‘सेना में जाऊँगा तो खूब खेलूंगा।’’ स्कूली जीवन में वे फुटबॉल, बाक्सिंग और एथलेटिक्स के अच्छे खिलाड़ी थे।
जब कौशल यादव भिलाई के कल्याण महाविद्यालय में बी. एस-सी. के प्रथम वर्ष की पढ़ाई कर रहे थे तभी उनका चयन भारतीय सेना में हो गया। उनकी तो खुशी का ठिकाना ही न रहा। बचपन से ही फौज में जाने की उनकी इच्छा को देखते हुए परिजनों ने उन्हें कभी रोकने की कोशिश नहीं की। वे सन् 1989 से सेना के नाइन पैरा युनिट बी. ग्रुप स्पेशल सिक्यूरिटी आर्मी में पदस्थ रहे। अपनी सेवा की पूरी अवधि में वे उधमपुर, कश्मीर में ही पदस्थ रहे। 26 जनवरी सन् 1998 को कष्मीर के विशेष अभियान में उनकी उत्कृष्ट सेवाओं के लिए उन्हें पुरस्कृत किया गया था।
फरवरी सन् 1997 ई. में निशा यादव से कौशल यादव का विवाह परंपरागत रीति-रिवाज से हर्षोल्लास के साथ संपन्न हुआ इसी दौरान उन्हें भिलाई इस्पात संयत्र से एल.टी.ए. के पद के लिए आमंत्रण मिला परन्तु देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा दिल में संजोए रखने वाले कौशल यादव ने सैनिक सेवा को ही प्राथमिकता दी।
कौशल यादव का परिवार संयुक्त परिवार है। वे जब भी छुट्टियों में घर आते उनका ज्यादातर समय उनके जुड़वाँ भतीजों के साथ खेलने और घूमने में बीतता था। उन्हें बच्चों से बहुत स्नेह था। बच्चे भी उन्हें बहुत प्यार करते थे। वे अपना जन्म दिन चाचाजी के आने पर ही मनाते थे। भले ही वह डेढ़-दो माह बाद ही क्यों न आएँ। कौशल यादव बच्चों के साथ एकदम बच्चे हो जाते। ड्यूटी के दिनों में परिजनों को उनके द्वारा भेजे गए पत्रों में ज्यादातर बातें बच्चों के लिए ही होती थीं। कौशल यादव स्वभाव से अत्यंत उदार, दयालु तथा हँसमुख स्वभाव के थे। जैसे ही उन्हें पता चलता कि कोई मित्र, परिजन बीमार हैं और उसे खून की आवश्यकता है वे तुरंत वहाँ पहुँच जाते और अपना खून दे देते।
जुलाई सन् 1999 ई. के कारगिल की लड़ाई में 3 बे्रवो 4 नायक टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे लांस नायक कौशल यादव व उनके साथियों को जुलु टाॅप को पाकिस्तान के कब्जे से मुक्त कराने की जिम्मेदारी सौंपी गई। वे पूरे जोश, उत्साह और दृढ़ संकल्प के साथ इस सपाट चढ़ाई वाले दुर्गम पहाड़ी पर प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद निरंतर चढ़ते गए। 25 जुलाई सन् 1999 ई. को शत्रु सेना द्वारा ऊपर से लगातार गोलीबारी के बावजूद पाँच पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारने वाले लांस नायक कौशल यादव ने बुरी तरह से घायल होने के बावजूद जुलु टाप को पाकिस्तानी कब्जे से मुक्त कराया और वहाँ तिरंगा झण्डा फहराया। कुछ समय बाद गोलियों का जहर पूरे शरीर में फैल गया और वे कारगिल क्षेत्र में भारतीय सीमा की रक्षा करते हुए शहीद हो गए।
30 जुलाई सन् 1999 ई. को लांसनायक कौशल यादव का पार्थिव शरीर भिलाई (छत्तीसगढ़) लाया गया जहाँ पूरे सैनिक सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया। देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले कौशल यादव को उनके अद्भुत शौर्य और पराक्रम के लिए भारत सरकार ने मरणोपरांत ‘वीर चक्र’ से सम्मानित किया। उनकी षहादत लोगों को हमेशा प्रेरणा देती रहेगी।
छत्तीसगढ़ शासन के खेल एवं युवा कल्याण विभाग द्वारा उनकी स्मृति में जुनियर खिलाड़ियों के लिए राज्य स्तरीय शहीद कौशल यादव पुरस्कार की स्थापना की गई है।
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46. शहीद छात्र, डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र एवं डॉ. बसुबंधु दीवान
47. प्रो. जयनारायण पांडेय के सुपुत्र डॉ. सुभाष पांडेय से प्रत्यक्ष चर्चा।
48. गहिरा गुरू के तत्कालीन निजी सचिव संत काशीनाथ चतुर्वेदी से प्रत्यक्ष चर्चा।
49. नगरमाता बिन्नीबाई के भतीजे रामबिशाल सोनकर से प्रत्यक्ष चर्चा।
50. पं. श्यामाचरण शुक्ल की धर्मपत्नी पद्मिनी शुक्ल जी से प्रत्यक्ष चर्चा।
51. विनोद कुमार चौबे की धर्मपत्नी श्रीमती रंजना चौबे जी से प्रत्यक्ष चर्चा।
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लेखक परिचय
नाम: डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
पिता: श्री लोकनाथ शर्मा
शिक्षा: एम.ए. (हिन्दी साहित्य, राजनीति विज्ञान, शिक्षाशास्त्र), बी.एड., एम.लिब.आई.एस-सी., पी-एच. डी., यू.जी.सी. एन.ई.टी., सी.जी. टी.ई.टी.
प्रसारण/प्रकाशन:- आकाशवाणी केन्द्र, रायगढ़ (छ.ग.) में युववाणी तथा किसानवाणी कम्पीयर के रूप में चार से अधिक नियमित कार्यक्रम प्रसारित, दर्जनों भेंटवार्ता तथा जीवंत फोन-इन-कार्यक्रम का संचालन। तीन सौ से अधिक बाल कविता, बाल कहानी, लघुकथा, हायकु तथा चुटकुले देश के स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं तथा संकलनों में प्रकाशित। अठारह शोधपत्र राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तकें:-
1. सर्वोदय छत्तीसगढ़
2. हमारे महापुरुष
3. प्रो. जयनारायण पाण्डेय
4. गजानन माधव मुक्तिबोध
5. वीर हनुमान सिंह
6. शहीद पंकज विक्रम
7. शहीद अरविंद दीक्षित
8. पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय
9. दाऊ महासिंग चंद्राकर
10. गोपालराय मल्ल
11. महाराज रामानुज प्रताप सिंहदेव।
संपादन:- छत्तीसगढ़ शासन के स्कूल शिक्षा विभाग की मासिक न्यूज लेटर ‘नौनिहाल’ का संपादन। मासिक पत्रिका बालबोध का सह-संपादक। त्रैमासिक शोध ग्लोबल रिसर्च कैनवास का संपादक मण्डल सदस्य।
पुरस्कार एवं सम्मान:- छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, हरियाणा, उत्तरप्रदेश एवं नईदिल्ली की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा अनेक बार सम्मानित।
सम्प्रति:- छ.ग. पाठ्यपुस्तक निगम, रायपुर (स्कूल शिक्षा विभाग, छ.ग. शासन) में विद्योचित/ग्रंथालयाध्यक्ष के पद पर कार्यरत।
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