छठ पूजा
धुप उत्सव है या उत्सव धुप सा
गीतों की गुनगुनाहट पर थिरक रही है
स्मृति
गाये जा रहे हैं वो गीत
जिसमें शामिल है प्रकृति
केले के पत्ते से लेकर
सुख – सौभाग्य – औलाद से बँधी साझी संस्कृति…☀️
भीड़ है ठहराव के बीच
चुप है परेशानियां
परबे (व्रत) भर न
कह कर तालमेल में फिर से फुंक गये हैं प्राण
कहीं सिमट; कहीं दबा; कहीं पीछे रह गया है अभिमान।
शुद्धता का चरम
पवित्रता की ताप
मुखमंडल पर लालिमा
आँगन में गेहुँ
मिट्टी के चुल्हे पर सोंधापन
रच रहा है
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परलय की विभीषिका को लाँघ एकबार फिर जीवन की ज्योत में प्राण
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कल सोशलमीडिया पर विचरण के दौरान कहते सुना साध्वी दीदी
माँ ऋतंभरा को
“मनहुसियत अच्छी नहीं होती; उत्सव अच्छा होता है; महोत्सव अच्छा होता हैः यही है सनातन
हम वो हैं
जिसमें सामार्थ्य है; पाषाण पर सिंदूर लगा उनमें संकटमोचन को उतारने की,
वजह
हम देवसत्ता को मानने वाले लोग हैं इसलिये ग्राम देवता गृह देवता (कुलदेव) होते हैं”
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शब्द इधरउधर हो सकते हैं पर सच्चाई तो यही है न
धुल फुल शुल शौर्य करुणा प्रेम से सुसज्जित
भरतवंश की संस्कृति
का एक ही ध्येय है
पल्लवन
अनन्त काल तक……..पल्लवन।
छठपूजा ☀️
©दामिनी नारायण सिंह