छठ पर्व
हो गए नवीन सारे जीर्ण जलाशय-सरित औ’ पोखर,
ज्यों परम पावन हुए सभी,समग्र अपने पाप धोकर।
सब हट गए शैवाल कुंभी जंजाल जल के बीच से,
मुसक पड़ा मुरझा हुआ कमल भी मुग्ध होकर कीच से।
जगने लगी नव-नव लहरियाँ पवन के मृदु थाप पाकर,
लौट आने लगी फिर वे पुलिनों से जाकर,टकराकर।
शोभ उठा पूरब दिशि में उषा का मेंहदी रचित हाथ।
रात्रि ने लो अंधकार का छोड़ा धीरे – धीरे साथ।
गलने लगा तम रात का फिर नव भोर की बेला हुई।
ज्योति की संजीवनी ने चिर तम में चेतनता छुई।
पंछी-कुल कल-कल सु-गान करतीं,नीड़ में जगने लगीं।
ज्यों होने लगा विहान उनकी प्रभातियाँ लगने लगीं।
सुमन निज मधु मकरंद संग्रह जब पवन को देने लगे।
तब तृण-तरु अरु वल्लरी खरककर करवटें लेने लगे।
झरती हुई नीहार की शीतल बून्दें बन मुक्तामणि।
संज्ञाहीन करके छेद जाती यथा बेधता है अणि।
गुह्य-गुफा-उदयाचल में एक दीप दीपित हो गया।
आहा! जगमगाकर खिल उठा सब घाट में जीवन नया।
निशीथ के पथिक वे श्रांत तारे,उडुगण आकाश में,
दिख पड़े सभी क्षीण-ज्योत,नव दीप के प्रबल प्रकाश में।
जल में खड़े नर-नारी सब जन अर्घ-जल देने लगे,
शीश पर आशीष-युत-कर अंशुमाली की लेने लगे।
गूँजने लगे सभी ओर मंत्रोचार वैदिक सूक्तियाँ,
अर्पण हुए आदित्य पर पकवान व्यंजनादि भुक्तियाँ।
नत नमन करबद्ध सारे जन होकर खड़े भक्ति भाव से,
देखते फल, व्यंजन, ठेकुआ बच्चे बड़े ही चाव से।
-सत्यम प्रकाश ‘ऋतुपर्ण’
(स्वरचित व मौलिक)