#छठा नोट
🙏 ~ { कहानी } ~
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★ #छठा नोट ★
(श्री देवेन्द्र सत्यार्थी जी की पुण्य स्मृतियों को समर्पित)
दिनभर का थका-मांदा सूरज सुरमयी बादलों की चादर ओढ़कर अभी लौटा ही था। एक-एक करके तारे यहाँ-वहाँ अपने नियत स्थान पर टिमटिमाने लगे थे। हेमंतसमीर धीमी-धीमी सहमी-सहमी बह रही थी। नंगे पेड़-पौधे ऋतुमैया की भावी निष्ठुरता की आशंका से त्रस्त चुपचाप खड़े थे। पंछी अपने घोंसलों में लौट चुके थे। गाँव की गलियों में कहीं-कहीं कोई बत्ती जल रही थी। ऐसे में चारपाई के कोने में बैठी वो बालिका पम्मी अपनी माँ को इधर से उधर और उधर से इधर आते-जाते देख रही थी। उसकी माँ घर के कामकाज करती हुई बीच-बीच में बुदबुदाती जा रही थी, “रामलीला देखने जाया करते थे गर्म शॉल लपेटकर। कमीज़ के ऊपर स्वेटर पहन लेते और सलवार के ऊपर एक सलवार और चढ़ा लेते। और आज देखो दीवाली निकले भी आठ दिन हो गए। सर्दी अब भी जैसे डर-डरकर आ रही है।”
“ऐसे कैसे हो गया, मायी री?” पम्मी ने माँ से पूछा।
“किसी के पल्ले अपना धर्म नहीं रहा बेटी। लोग बदल गए तो ऊपरवाला भी बदल गया।”
“लेकिन, अपना बापू तो नहीं बदला?”
“वो कैसे बदलेगा? वो क्या कोई नेता है किसी राजसी दलदल का?”
तभी बाहर दूर से पुकार हुई, “विद्यावती! ओ विद्यावती, देख तो कौन आया है?”
“आ गया बापू!” पम्मी का चेहरा खिल गया। उसने एक बार पास में सो रहे छोटे भाई की ओर देखा और फिर आँगन के द्वार की ओर उसकी टकटकी लग गयी।
दो घर पहले जो पिछली तरफ रास्ता मुड़ता है उसीसे गुरदास का नित्य का आना-जाना है। जब मोड़पर पहुंचता है तभी पुकारा करता है अपनी पत्नी विद्या को, “विद्यावती! ओ विद्यावती!”
“देख तो कौन आया है? मौसा चिंतामणि आया है देख।”
आँगन का द्वार उढ़का हुआ ही था। गुरदास और मौसा बचिंतसिंह भीतर आए तो विद्या ने मौसा जी के पाँव छुए। परिवार का सुख-समाचार लिया और रसोई की ओर चली ही थी कि गुरदास बोला, “बड़े समय के बाद आया है मौसा। चाय रहने दे, वो अंग्रेज़ी बोतल निकाल दे।”
“न भाई, जिनके यहाँ विवाह है उन्हें भी तो सेवा का अवसर मिलना चाहिए। और वैसे भी आज मंगलवार है।” बचिंतसिंह ने दोनों को रोक दिया।
गुरदास और बचिंतसिंह का घर-संसार से आरंभ करके धर्म-राजनीति की बातें करते बहुत समय बीत गया। तभी दो जनों के साथ गली में से निकलते चाचा दयालसिंह ने द्वार खुला देखा तो भीतर चला आया, “गुरदास बेटा, शिकवे-शिकायतें ज़िंदगी के साथ चलती रहती हैं। साथ में बैठकर हंसने-खेलने के अवसर नहीं गंवाने चाहिए।”
“अभी आ रहे हैं, चाचाजी।” गुरदास बोला।
“ठीक है, आ भाई बचिंतसिंह चलें।” वे सब लोग दयालसिंह के साथ चल दिए ।
गुरदास ने झटपट कपड़े बदले। देसी जूती उतारकर बूट पहनने ही लगा था कि मनोहरलाल आ गया।
“भाई गुरदास अब आएगा मज़ा। सुनार की ठुकठुक नहीं लुहार के हथौड़े की एक ही चोट ने सबके बल निकाल दिए।”
तभी अवतारसिंह भी आ धमका, “गुरदास भाई, न कोई ऐसा पहले आया न कोई आएगा। वो चोट मारी है कि विरोधी तो विरोधी अपनी पार्टी वाले भी हाथ लगा-लगाकर देखेंगे कि यह हो क्या गया?”
“अरे हुआ क्या?” गुरदास ने उतावली से पूछा।
“अभी-अभी टी.वी. पर आया मर्द का बच्चा और सब चोरों के महल मिट्टी की ढेरी में बदल गए।” अवतार जैसे मस्ती में झूम रहा था।
“अरे यह तो बताओ कि हुआ क्या?” गुरदास अब किंचित क्रोध में था।
“पाँच सौ और एक हज़ार के नोट आज से रद्दी कागज़ हो गए। सारा कालाधन राख में बदल गया”, अवतारसिंह जैसे खुशी से उछल रहा था।
मनोहरलाल ने बात को स्पष्ट किया, “तीस तारीख तक जो बैंक में जमा हो जाएंगे वही बचेंगे, शेष सारे लोहड़ी वाले दिन आग तापने के काम आएंगे।”
“इसे कहते हैं ईश्वरस्वरूप! अपने-बेगाने सब पेल दिए। सबके लिए एक ही तराजू और एक ही बाट, वाह भई वाह”, अवतारसिंह चहक रहा था।
तीन-चार जन और आ गए। सब दयालसिंह के यहाँ जा रहे थे। तभी गुरदास का स्वर गूँजा, “ओ मूर्खावतार! इसमें चहकने-फुदकने की क्या बात है? आज पाँच सौ एक हज़ार के नोट का मोल ही क्या है? रिक्शा-रेहड़ीवालों के पास भी दो-चार नोट मिल ही जाएंगे। अब होगा क्या? गरीब दिहाड़ीदार बैंक के सामने पंगत में खड़े होंगे और लाला लोग पिछले दरवाज़े से अपना काला धन सफेद करते रहेंगे। यदि नोट बंद करने ही थे तो पाँच हज़ार, दस हज़ार के बंद करता।”
“अरे, जो चलाए ही नहीं वो बंद कैसे करता?” अवतारसिंह ने जताया कि वो निरा मूर्ख नहीं है।
“अरे नहीं चलाए तो पहले चला लेता फिर बंद कर लेता।” गुरदास ने लोहार की चोट की।
गुरदास की बात सुनकर सब जने “चलो भई चलो, देर हो रही है”, कहते हुए खिसकने लगे।
घर के कामकाज में लगी विद्या ने उन लोगों की बातें सुनी तो नीचे वाला संदूक खोलकर बैठ गई। यह देखकर उसका दिल धक् से रह गया कि नीली कमीज़ तो वहाँ थी परंतु सलवार नहीं थी। यह जोड़ा उसने आज के लिए ही सिलवाया था। चिंता की लकीरें उसके चेहरे पर थीं, “नीली सलवार कहाँ गई?”
पम्मी बोली, “छुटकी मौसी ले गयी। उसकी सलवार में कीचड़ लग गया था।”
“मैं कहाँ थी तब?”
“आप प्रीतो की माँ के पास गयी थीं जब।”
तभी गुरदास भीतर आया। उसने माँ-बेटी की बात सुन ली थी बोला, “चल तू कोई दूसरा जोड़ा पहन ले।”
“वो बात नहीं है। मैंने उस सलवार के नेफे में हज़ार-हज़ार के छह नोट छुपाकर रखे हुए थे। वो पगली वहाँ गिद्दा नाचती हुई नोट गिरा देगी।” विद्या ने अपनी चिंता बतायी।
गुरदास के तो होश उड़ गये, “चल-चल, जल्दी चल। छुटकी से सलवार लेकर आएं।”
दोनों पति-पत्नी चाचा दयालसिंह के घर की ओर लपके। गुरदास तो बाहर शामियाने के पीछे खड़ा हो गया और विद्या छुटकी को बुला लाई। उसे देखते ही गुरदास बोला, “छुटकी सलवार उतार दे।”
छुटकी जैसे आकाश से गिरी। उसके मस्तिष्क में बिजली-सी कौंध गई। उसे याद आया। विद्या बहन का विवाह हुए थोड़ा ही समय हुआ था। वो बहन के यहाँ आई हुई थी कि उनका बाबाजी के डेरे जाने का कार्यक्रम बन गया। साथ में जीजा की बहन हरबंसकौर भी थी। बंसो यों तो उससे छह महीने छोटी थी लेकिन, डीलडौल में उससे ड्योढ़ी थी।
टैम्पो वाले ने नहर के मोड़ पर उतार दिया। कहने लगा कि “इतवार के दिन तो डेरे से वापसी की सवारी मिल जाती है, शेष दिनों में सवारी को यहीं उतारते हैं।”
वहाँ से लगभग तीन-चार किलोमीटर था डेरा। थोड़ा चलने पर ही बंसो थक गई। तब जीजा ने एक कंधे पर बंसो को और दूसरे पर उसे बैठा लिया था। जीजा के उठकर खड़ा होते ही उसने जयकारा लगाया था, “पवनपुत्र हनुमान की. . .!”
“जय ! ! !” बंसो का स्वर उससे भी ऊंचा था।
जब डेरा सामने दिखने लगा तो जीजा ने बंसो को उतार दिया। विद्या बहन बोली, “इसको भी उतारो नीचे।” तब जीजा ने कहा था, “चल बच्ची है। मुख्यद्वार पर उतार दूंगा।” और आज. . .?
“बहन, जीजे को क्या हो गया?”
विद्या ने छुटकी की बांह खींचकर उसे अपने सीने से लगाया और हाथ कमर की तलाशी लेने लगे।
फिर वो गुरदास से बोली, “ठीक है, सब ठीक है। चलो घर चलते हैं।” उसने छुटकी का हाथ पकड़ लिया।
तभी चाचा दयालसिंह वहाँ आ गया, “गुरदास, माना कि छुटकी तेरी साली है बेटा। लेकिन, हमारी भी कुछ लगती है। तुम तो आए नहीं और अब इसको भी लेकर जा रहे हो?”
“चाचाजी, अभी ताला लगाकर आ रहे हैं।”
“ताला कैसा लगाना भई, भीतर का कुंडा लगाकर सीढ़ियां चढ़कर ऊपर से आ जाओ।”
“अभी आए चाचाजी।” कहकर छुटकी को लगभग खींचते हुए वे दोनों लौट पड़े।
घर पहुंचते ही गुरदास फिर बोला, “चल छुटकी, सलवार उतार दे।”
“सलवार मेरी बहन की है। मैं जानूं और वो जाने। हाँ जीजा, यदि तुमने पहननी है तो उतार देती हूँ।” छुटकी की आँखों में शरारत चमक रही थी।
“अरे वो बात नहीं है छुटकी। मैंने तेरे जीजा से छुपाकर इसके नेफे में कुछ नोट रखे थे। वो निकाल लें। फिर तू यही सलवार पहन लेना”, विद्या ने सच बता दिया।
छुटकी ने अपनी कमर पर हाथ फिराया। नोटों की छुअन से उसके शरीर में सुरसुरी-सी होने लगी, “कितने नोट हैं?” उसने अपनी बहन से पूछा।
“हज़ार-हज़ार के छह नोट!” विद्या के होंठों पर मुस्कान खेल रही थी।
छुटकी धीरे-धीरे उठकर खड़ी हुई। गुरदास का हाथ पकड़ा और झूमकर बोली, “मैं छह हज़ार की सलवार पहनकर गिद्दे में नाची जीजा!” उसके पाँव ही नहीं जैसे पूरा शरीर थिरकने लगा।
“नी मैंनूं, नी मैंनूं
दयोर दे व्याह विच नच लैणदे
नी मैंनूं . . . ”
(री मुझको, री मुझको
देवर के विवाह में नाच लेने दे
री मुझको . . .)
गुरदास और विद्या दोनों छुटकी को नाचता देखकर हंस रहे थे और वो नाचे जा रही थी। अचानक पम्मी बोली, “विवाह में नहीं जाना?”
छुटकी के पाँव थम गए। विद्या ने उसको दूसरी सलवार दी और वो वाली सलवार लाकर गुरदास के हाथ में थमाते हुए बोली, “मेरे पैसे हैं, नोट बदलवाकर मुझे ही देना।”
“हाँ-हाँ, भई तेरे ही पैसे हैं, तुझे ही दूंगा।” एक-एक करके उसमें से पाँच नोट निकले। पूरी सलवार छान ली छठा नोट नहीं मिला।
“तुझे अच्छी तरह याद है कि छह नोट थे?”
“हाँ-हाँ, छह ही थे।”
इतने में भीतर से छुटकी आ गई, “बहन तुझे भी क्या सूझी। सलवार के नेफे में नोट?”
गुरदास का धीरज चुकता जा रहा था। उसने बाहर पड़ा सोटा उठा लिया, “किसको दिया है तूने छठा नोट?”
“अरे रुको न, मुझे याद करने दो।” वो चिंता में डूबी सोच रही थी कि गुरदास का हाथ ऊपर को उठा। तभी उसके मुंह से बोल फूट पड़े, “याद आ गया, बापू जी का नाम राशन कार्ड में फिर से जुड़वाने के हज़ार रुपये लिए थे सुरजीते डिपू वाले ने।”
“वो तो पाँच सौ रुपये लेता है। बिंदर की घरवाली ने अपनी माँ का नाम जुड़वाया था। बाकी के पाँच सौ कहाँ हैं?”
“अरे, पाँच सौ में उसने सलवार उतरवायी थी”, विद्या फुसफुसाकर बोल रही थी, “मुझे भी कहा था उसने। मैंने तो साफ मना कर दिया।”
गुरदास के हाथ से सोटा गिर गया। आश्चर्य से मुंह खुल गया। आँखें फैल गईं। यूँ ही खड़े-खड़े न जाने कितने पल-घड़ियां, दिन-महीने, साल-सदियां और युग बीत गए उस पुरुष को। तब वो बायां हाथ कमर पर टिकाकर दाएं हाथ की बर्छी सी बनाकर उस स्त्री के पेट की ओर तानते हुए चीखा, “ओए. . .यह कुत्ती-कमीन पाँच सौ रुपये का मोल नहीं जानती. . .?”
विद्या ने इस राक्षस को पहली बार देखा था। आर्थिक विषमताओं के चलते गुरदास अधिक पढ़ चाहे नहीं पाया था तब भी गाँव में लोग उसकी सराहना उसके शालीन स्वभाव एवं बुद्धिमत्ता के कारण किया करते थे। परंतु आज. . .?
गाँव में बत्तियां अब भी जल रही थीं लेकिन, उनका प्रकाश जैसे कहीं खो गया था। पेड़-पौधे अपनी नियति भोग रहे थे। पंछी सुबह फिर से जगने के लिए सो गए थे। हेमंतसमीर अब भी धीमी थी परंतु, ठंडक बढ़ गई थी। सूरज रात की चौकसी चाँद को सौंपकर सोया नहीं था अपितु कहीं और उजाला करने चला गया था। वो लौटेगा, फिर लौटेगा।
उस घटना के बाद घर का वातावरण कसैला-सा हो गया। तीन वर्ष बीत चुके। पिछले वर्ष छुटकी के बेटा हुआ तो विद्या के कहने पर भी गुरदास नहीं गया। विद्या बच्चों को साथ लेकर गई और बधाई दे आई।
अब गुरदास विद्या की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों को गहनता से देखने लगा। गाँव के दूसरे छोर पर कोई बीमार पड़ता तो जाने कैसे विद्या को सूचना मिल जाती। किसी की गाय-भैंस दूध नहीं दे रही तब भी विद्या से परामर्श करने पहुंच जाते लोग। वो स्वयं तो बारहवीं कक्षा तक पढ़ी थी लेकिन बारहवीं तो क्या उससे बड़ी कक्षा वाले विद्यार्थी भी अपनी समस्या लेकर विद्या भाभी के पास आते।
एक दिन तो हद हो गई। चाची सुलक्खनी आई और उससे बोली, “बेटा, मुझे बहू से कोई सलाह करनी है तू अपने दोस्त-मित्रों के पास होकर आ जा।”
गुरदास ने लौटकर पूछा, “क्या कहती है चाची?”
विद्या ने एक पल के लिए कुछ सोचा और फिर बोली, “चाची ने मुझपर विश्वास किया है कि बात कहीं बाहर नहीं जाएगी और मुझे तुम पर विश्वास है कि इसे अपने तक ही रखोगे। चाची की बेटी रत्नो को एक लड़का पसंद है। चाची चिंतित है कि क्या करे?”
“अब तू क्या करेगी?”
“कल लड़के को बुलाऊंगी। देखूंगी कि वो रत्नो के योग्य है अथवा नहीं। मुझे नहीं जँचा तो रत्नो को समझाऊंगी। रत्नो मेरा कहा नहीं टाल सकती।” विद्या सहज थी।
उन्हीं दिनों गाँव में सरपंच का पद महिला के लिए आरक्षित हो गया। सुरजीते डिपू वाले की पत्नी आशा और सरपंच की बहू चुनाव मैदान में थीं। आशा की जमानत ज़ब्त हो गई । सुरजीता जाने कहाँ से खोज लाया कि सरपंच की बहू का दसवीं कक्षा का प्रमाणपत्र असली नहीं है। उसका चुनाव रद्द हो गया। गाँव के लोग गुरदास के पास आए कि विद्या सरपंच पद के लिए नामांकन भरे। गुरदास ने विद्या की ओर देखा। विद्या बोली, “आप जानते हैं कि जितनी मुझ में सामर्थ्य है मैं गाँव की सेवा किया ही करती हूँ। रही बात चुनाव लड़ने की तो उसके लिए न मेरे पास धन है और न समय।”
गाँव वाले आशा के पास गए। उससे बात की और विद्या निर्विरोध सरपंच चुनी गई।
दो महीने हो गए। आज लोहड़ी का त्योहार है। गुरदास के घर के बाहर लोहड़ी की पवित्र अग्नि बार-बार आकाश की ओर लपकती है। लोग आते जा रहे हैं। बधाईयों का तांता लगा हुआ है। तभी छुटकी अपने पति के साथ आई। उसका बेटा अपने पिता की गोद में था। छुटकी ने जीजा के पास आकर धीमे-से पूछा, “जीजा, छठा नोट मिला कि नहीं?”
गुरदास की आँखें गीली हो गईं। उसने छुटकी को अपनी बांहों में समेट लिया, “मिल गया मेरी बहना, सूद समेत मिल गया।”
लगता था कि जैसे सूरज रात में ही चमकने लगा है।
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२