छंद ‘दोहा’ व उसका रचनाक्रम : इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव ‘अम्बर’
दोहे के माध्यम से दोहे की परिभाषा :-
(छंद दोहा : अर्धसम मात्रिक छंद, चार चरण, विषम चरण तेरह मात्रा, सम चरण ग्यारह मात्रा, अंत पताका अर्थात गुरु लघु से, विषम के आदि में जगण वर्जित, प्रकार तेईस)
तेरह ग्यारह क्रम रहे, मात्राओं का रूप|
चार चरण का अर्धसम, शोभा दिव्य अनूप||
विषम आदि वर्जित जगण, सबसे इसकी प्रीति|
गुरु-लघु अंतहिं सम चरण, दोहे की यह रीति||
विषम चरण के अंत में, चार गणों को त्याग|
यगण मगण वर्जित तगण, भंग जगण से राग||
–अम्बरीष श्रीवास्तव
दोहा चार चरणों से युक्त एक अर्धसम मात्रिक छंद है जिसके पहले व तीसरे चरण में १३, १३ मात्राएँ तथा दूसरे व चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं, दोहे के सम चरणों का अंत ‘पताका’ अर्थात गुरु लघु से होता है तथा इसके विषम चरणों के प्रारंभ में स्वतंत्र जगण अर्थात १२१ का प्रयोग वर्जित है तथा दोहे के विषम चरणों के अंत में यगण(यमाता १२२) मगण (मातारा २२२) तगण (ताराज २२१) व जगण (जभान १२१) का प्रयोग त्याज्य जबकि वहाँ पर सगण (सलगा ११२) , रगण (राजभा २१२) अथवा नगण(नसल १११) आने से दोहे में उत्तम गेयता बनी रहती है
जबकि इसके सम चरणों के अंत में जगण अथवा तगण आना चाहिए अर्थात अंत में पताका (गुरु लघु) अनिवार्य है|
निश्छल निर्मल मन रहे, विनयशील विद्वान्!
सरस्वती स्वर साधना, दे अंतस सद्ज्ञान!!
छंद सहज धुन में रचें, जाँचें मात्रा भार!
है आवश्यक गेयता, यही बने आधार !!
दोहे का आन्तरिक रचनाक्रम
तीन तीन दो तीन दो, चार चार धन तीन! (विषम कलात्मक प्रारंभ अर्थात प्रारंभ में त्रिकल)
चार चार धन तीन दो, तीन तीन दो तीन!! (सम कलात्मक प्रारंभ अर्थात प्रारंभ में द्विकल या चौकल)
(संकेत : दो=द्विकल, तीन=त्रिकल, चार= चौकल)
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(अ) तीन तीन दो तीन दो : (चौथे त्रिकल समूह में लघु-गुरु अर्थात १२ वर्जित)
(१) ‘राम राम गा(व भा)ई’ (चौथे त्रिकल समूह में लघु-गुरु अर्थात १२ होने से गेयता बाधित)
(२) ‘राम राम गा(वहु स)दा’ (चौथे त्रिकल समूह में लघु-गुरु अर्थात १२ न होने के कारण सहज गेय)
(ब) चार चार धन तीन दो : (त्रिकल समूह में लघु-गुरु अर्थात १२ वर्जित)
(१) ‘सीता सीता पती को’ (त्रिकल समूह में लघु-गुरु अर्थात १२ होने से गेयता बाधित)
(२) ‘सीता सीता नाथ को’ (त्रिकल समूह में लघु-गुरु अर्थात १२ न होने के कारण सहज गेय)
(उपरोक्त दोनों उदाहरण ‘अ’ तथा ‘ब’ छंद प्रभाकर से लिए गए हैं |)
निम्नलिखित को भी देखें…
दम्भ न करिए कभी भी (चरणान्त में यगण से लयभंग) / दंभ नहीं करिए कभी (चरणान्त में रगण से उत्तम गेयता)
हार मानिए हठी से (चरणान्त में यगण से लयभंग)/ मान हठी से हार लें (चरणान्त में रगण से उत्तम गेयता)
दोहे की रचना करते समय पहले इसे गाकर ही रचना चाहिए तत्पश्चात इसकी मात्राएँ जांचनी चाहिए ! इसमें गेयता का होना अनिवार्य है ! दोहे के तेईस प्रकार होते हैं | जिनका वर्णन बाद में किया जाएगा |
–इं० अम्बरीष श्रीवास्तव ‘अम्बर’