छंद -देह
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कविता की दो पांत अधर ये,
दंत-पंक्ति ज्यों शब्द-सुधा से.
आँखों की उठ,गिर रही बरौनियाँ
अर्थ खोलती,अर्थ बताती.
स्निग्ध कपोल ज्यों भोजपत्र है
छूती सहम-सहम जब उनको
अंगुली लिखती है कविताएँ.
संदल वन सा शीतल-शीतल
भाव-ध्येय उद्देश्य छंद का.
अंतर्मन में निहित तुम्हारा हर संदल-वन,
देह तुम्हारा संदल जैसे है सुगंध का.
हर अंगों को छुआ कवि ने.
अंग-अंग में भरा गूढ़ है अर्थ कवि ने.
चरम अर्थ है निहित
तुम्हारे
रूप,रंग में ; नेह,देह में.
नटी तुम .
नटवर तुम्हीं रखी उलझाये
अपनी केश-राशि में.
अहा! लचकते छंद,ठुमकते छंद
मचलते छंद,फुदकते छंद
झमकते छंद.
तुम्हारे कटि और पद-युग्म
चपल,चंचल;नर्तन आघात.
और विह्वल,व्याकुल सौगात.
अहा! तराशा ताजमहल
प्रेमिल स्वप्नों का राजमहल
यह देह-यष्टि.
जीवंत प्रेम साकार सही.
हाँ,इस ललाट पर लाल बिंदी सा शीर्ष
ज्यों स्वच्छ सरोवर पर हो
खिलता हुआ कमल.
तुमसे मिल
शाश्वत होता प्रेम.
प्रेम की शाश्वतता,है नेह यही.
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