चौराहा सा मन
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चतुर्दिक चौराहा सा पसर गया है मन.
कहीं क्षोभ,क्लेश,क्रोध कहीं तिक्त उत्पीडन.
टूटे प्लास्टिक और चीगदी कागज,धातु के टुकड़े
बीनती
औरतें,बच्चे और विक्षिप्त? बुजुर्ग पुरुष
पड़ोली के हाट से जरा हटकर.
इसमें मेरे हिस्से का अनचीन्हा अंश
कुरेदता है मुझे मेरा क्षोभ बनकर.
नाले के उपर पत्थरीले बेंच पर
भाड़े/मजदूरी पर चढ़ जाने की उम्मीद लिए
बेतरतीब जमे बेचैन लोग.
इसमें क्या! है और कितना!
मेरे द्वारा उत्पादित बेचैनी उनके आँखों से
मेरी आँखों में उतर
मेरे हृदय को उद्वेलित करता क्लेश का योग.
अस्त-व्यस्त आबादी का झोंका
सुबह-सुबह अपने अहसास में अहं खोजता
चौराहे पर
इर्ष्या से उपजे तनाव में भागता दौड़ता है.
इन असहिष्णु भीड़ के तनाव से
मेरा क्रोध अग्नि सा क्यों धधकता है.
इस चौराहे पर जहाँ राहें मिलती हैं
चारदीवारी क्यों खड़ा है मिलने से रोकने
लोगों को साझा करने से अपने दु:ख.
मेरा योगदान जितना हो, है अप्रशंसनीय.
विभेद होना उनमें क्योंकि, सुरक्षित है मेरा होना.
अत: उत्पीडन के दंश देते हैं मुझे दु:ख.
यह चौराहा अवाक् सा देखता है सबको
मुझे,तुम्हें,उसे; सोचता हुआ-
हताश क्यों है इनकी आत्म-सत्ता!
ये खाली हाथ दौड़ने वालों की भीड़
कुरेदने वाला है क्यों अपने स्वप्न-स्वरूप
मधुर मधुमक्खी का छत्ता.
जद्दोजहद बहुत है सफर में
लौटना है इन्हें पर, लहुलुहान होकर
पराजित दिन जैसा दिन के अवसान पर.
उम्मीदों की अंत्येष्टि मदिरालय के फर्श पर
और आक्रोश पराजय का
गृह स्वामिनी या उसके बच्चों पर झुंझलाकर
शत्रुओं पर वज्राघात करता सा
करेगा रिक्त अपने क्रोध के उत्कर्ष पर.
यह चौराहा बन जाता है हाट
शब्दों के विनिमय में तिक्त
हर विनिमय में सस्तापन व ओछापन
लेन-देन हुज्जत और हठ की कठोरता से युक्त
मानवीय संवेदनाओं से रिक्त.
सबसे उपर रखा हुआ अर्थ
मेरे देह पर लदे वस्त्रों और
चेहेरे पर बेतरतीबी,बदहवासी से
मुझे तौलता है.
आँखों से आलस्य या चौकस
हिसाब कर
मेरी ओर उंडेलता है.
यह चौराहा बाजार का व्यक्तित्व ओढ़े
सरेआम बहुत सारे षड्यंत्र से घिरा है.
आदमी हमेशा यहाँ आदमी की नजरों से
इसलिए आंसू सा गिरा है.
इस चौराहे पर प्राय: पोस्टर चिपकते हैं
झंडे,बैनर लिए भीड़ जुटती है.
लुभावने वादों का अनमोल वचन सुनकर
इसके खोखलेपन से मन ही मन घुटती है.
भीड़ चौराहा है, इसलिए कि चौराहा
भीड़ के चरित्र का संवाहक है.
बहुत रफ्तार से सजता है दिन में
ब्याही परित्यक्ता सी पर, होती है.
खन्डहर सा खामोश हो जाता है रात में
सुहाग के चिन्ह मिटाती है खुद,
और खुद रोती है.
चौराहे पर कवि का काव्य खड़ा रोता है.
उसे पता है इस चौराहे पर क्या क्या होता है.
वहां जूते सिलकर रोजी कमाने वाला मोची
ठेले पर फल,सब्जी बेचनेवाला विक्रेता
घूम-घूम कर कुछ भी बेचने वाला फेरीदार
लिफ्ट के लिए खड़ा बेरोजगार
चाय,पकौड़ी और नाश्ता वाली झोपड़ी से
मटमैली झांकती ऑंखें.
शांत मन से कुछ असंभाव्य का
संभव हो जाने की शिद्दत से सोचता है. (प्रबलता)
शहर का हर चौराहा रास्ता देता है.
उसे भी दे.
इस चौराहे का मन्दिर पड़ा रहता है सूना.
अचमत्कारिक या चमत्कारिक ढंग की
कथा है नहीं यहाँ.
देवता देखता रहता है
दीप,धुप,अगर,गंध और भोग कोई लाये.
पत्थर के मेरे शरीर पर चढाये.
मैं तब उसे बताउं शायद कि
चमत्कार मेरे तन में नहीं
उसके कर्म में है-
किसीको पता है नहीं यहाँ.
चौराहा का जीवन अहा! कितना जीवंत है
दिन के उजाले में दिनभर.
भागता,दौड़ता करता चुहल.
और रात में मुर्दा.
अपने शव पर आंसू बहाता
पड़ा हुआ अचल.
अप्रिय से हैं भीड़ और भीड़ का शोर.
लोग परेशान हैं बहुत ही पर,
यह चौराहा स्वयं में है विभोर.
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