चेहरे
कितनी भीड़ कितने चेहरे और हर चेहरे में एक आदमी जो उस चेहरे से बिल्कुल भिन्न है ऐसा क्यों प्रतीत होता है कि चेहरा स्वयं से ही इतर है जो दिखता है क्या वो सत्य है या मात्र आवरण है जो समयानुरुप बदलता जाता है एक सोच है जो इंसान पर हावी हो चुकी है तभी चेहरे बदले बदले लगते हैं और शायद होते भी हैं पर इन सबसे परे एक चंचल शिशु का मनोविज्ञान नितांत भिन्न होता है वो जिस तरह दिखता है वैसा ही होता है कभी मां के बायें कांधे पर सुबकता है तो कभी अंक में समा जाता है चंचल अंगुलियों के पैने नाखुनों से कभी बाहों को नोचता है तो कभी एकटक देखता सिहर जाता है उसके चंचल मुख को देखने के लिए हर एक उत्सुक होता है कोई मुख से ध्वनियां निकालता है तो कोई हवा में हाथ लहराता है वास्तव में उसका मनोविज्ञान उसके चेहरे की सहजता को दर्शाता है उस चेहरे के पीछे कोई कटुता नहीं होती पर जैसे जैसे शिशु युवा होता है या फिर जीवन के अंत तक चेहरा बदलता रहता है और एक दिन चेहरों की भीड़ में लुप्त हो जाता है क्यों न सब एक बार फिर से शिशु हो जाएं और एक चेहरे संग जीयें …।
मनोज शर्मा