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10 Aug 2021 · 1 min read

चेहरे

कितनी भीड़ कितने चेहरे और हर चेहरे में एक आदमी जो उस चेहरे से बिल्कुल भिन्न है ऐसा क्यों प्रतीत होता है कि चेहरा स्वयं से ही इतर है जो दिखता है क्या वो सत्य है या मात्र आवरण है जो समयानुरुप बदलता जाता है एक सोच है जो इंसान पर हावी हो चुकी है तभी चेहरे बदले बदले लगते हैं और शायद होते भी हैं पर इन सबसे परे एक चंचल शिशु का मनोविज्ञान नितांत भिन्न होता है वो जिस तरह दिखता है वैसा ही होता है कभी मां के बायें कांधे पर सुबकता है तो कभी अंक में समा जाता है चंचल अंगुलियों के पैने नाखुनों से कभी बाहों को नोचता है तो कभी एकटक देखता सिहर जाता है उसके चंचल मुख को देखने के लिए हर एक उत्सुक होता है कोई मुख से ध्वनियां निकालता है तो कोई हवा में हाथ लहराता है वास्तव में उसका मनोविज्ञान उसके चेहरे की सहजता को दर्शाता है उस चेहरे के पीछे कोई कटुता नहीं होती पर जैसे जैसे शिशु युवा होता है या फिर जीवन के अंत तक चेहरा बदलता रहता है और एक दिन चेहरों की भीड़ में लुप्त हो जाता है क्यों न सब एक बार फिर से शिशु हो जाएं और एक चेहरे संग जीयें …।

मनोज शर्मा

Language: Hindi
494 Views

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