चुपचाप भला क्यों बैठे
जफ़ा की ये रस्म चला क्यों बैठे
घरों को खुद ही जला क्यों बैठे
बड़ा ही शोरगुल है संसद में
हमीं चुपचाप भला क्यों बैठे
भरोसा हमने किया था जिन पर
वही अब काट गला क्यों बैठे
मजहबी रहनुमाओं बोलो तो
तम्बू में रामलला क्यों बैठे
पता था है वही दुश्मन फिर भी
हमें हर बार छला क्यों बैठे
दुआ है माँ की मिली जब ‘संजय’
हमारे सर पे बला क्यों बैठे