चुपके -चुपके पढ़ता है
वो प्यारा सा लड़का
थोड़ा रुकते -रुकते पढ़ता है
मुझे पता है किताबों को
वो चुपके -चुपके पढ़ता है
लोग उसका उपहास उड़ाते
जब कुछ भी बोला करता है
अपनी हकलाती जुबान में भी
वो मिश्री घोला करता है
वो जुबां से अनेकों शब्दों को
थोड़ा आहिस्ते से गढ़ता है
मुझे पता है किताबों को
वो चुपके -चुपके पढ़ता है
माँ उसकी जुबान को लेकर
चिंता में डूबी रहती है
जिससे भी वो मिलती है
बच्चे की खूबी कहती है
अपनी झूठी तारीफों को भी
शान से सिर पे मढ़ता है
मुझे पता है किताबों को
वो चुपके -चुपके पढ़ता है
माँ की चिंता देखकर वो
मन में अपने ठाना है
मैं साफ जुबां में बोलूंगा
ये दुनिया को दिखलाना है
बड़ा ही सोच समझकर अब
वो शब्दों की सीढ़ी चढ़ता है
मुझे पता है किताबों को
वो चुपके -चुपके पढ़ता है
जुबां में सुधार है रत्ती भर
पर हार मानना मंजूर नहीं
कठिन राह पर निकला है
पर मंजिल है दूर नहीं
सच मानो फर्राटा बोलेगा
ये कहती उसकी तत्परता है
मुझे पता है किताबों को
वो चुपके -चुपके पढ़ता है
-सिद्धार्थ गोरखपुरी