चुनावी रंग (कविता)
अब ! आ गया है चुनावी रंग ,
सब पर छा गया है चुनावी रंग l नेताजी भी हो गए बेढ़ंग ,
मचा रहें हैं चारों तरफ हुड़दंग l
ऐसा सब पर छाया रंग ,
सीधे-सच्चे लोकतंत्र को ?
तरह-तरह के वादों व जुमलो में भटकाया रंग ।
जनता बेचारी गई मारी,
बढ़ती जा रही दिनों-दिन बेरोजगारी ।
युवा है परेशान किसानों में भी घमासान,
देश- प्रदेश हित के लिए नेताजी हैं इतने हैरान ?
पार्टी से टिकट न मिलने पर,
लगता है देश- हित में कर देंगे अपने प्राणों का बलिदान।
आखिर ! यही तो है उनका स्वाभिमान l
लेकिन इतने पर भी वो शोषित दलित व वंचितों को ,
दिला कर मानेंगे ही उनका उचित सम्मान ।इतने दिनों तक खाए रबड़ी-मलाई ,
इन्हें तो आज याद आई है लोगों की भलाई।
खैर चुनावी रंग का होता है ,
कुछ अनूठा अंदाज ।
जिसमें नेताजी जनहित के लिए ,
करना चाहते हैं कुछ नया खास।
जनता का भी है उन पर अटल विश्वास ,
फिर भी नेताजी करेंगे उन सबका सत्यानाश ।
हाय ! ये तौबा- तौबा कैसा है ,
लोकतंत्र का चुनावी रंग।
जिसमें नहाकर घुल-मिलकर ,
सभी भेड़िए हो जाते हैं एक संग ।
– अभिषेक मिश्रा
{इलाहाबाद विश्वविद्यालय ,प्रयागराज}