चुनावी त्यौहार
चुनावी त्यौहार जब देश में आ जाता है।
मौसम फिर से एक बार गर्म हो जाता है।
सियासी नशे में आ कर हर इन्सान यहाँ।
इन्सानियत का केंचुल खुद छोड़ जाता है।
बँट जाते हैं भाई-भाई तक एक परिवार में।
एक ही लहू कई रंगों में फिर बदल जाता है।
खींच लेते हैं हम धर्म-जाति को सियासत में।
मुद्दा फिर हिन्दू,दलित,मुसलमान हो जाता है।
भटक जाते हैं हम क्यूँ असल मुद्दों से फिर।
जब भाषणों में मंदिर-मस्जिद सुना जाता है?
सालों भर रहते हैं ग़ायब इलेक्शन जीत कर।
शहर शहर गाँव गाँव इंतेज़ार में रह जाता है।
नहीं आते हैं साहब हमारे हाल तक भी पूछने।
जुमलेबाज़ी करने फिर इलेक्शन आ जाता है।
मूर्ख जाने कैसे बन जाते हैं हम लोग अक्सर।
जब बिजली,पानी,सड़क ख़्वाब रह जाता हैं !
बाद इलेक्शन शर्मसार हो जाते हैं हम यहाँ।
जब संघर्ष रोटी का फिर से शुरू हो जाता है।