चुट्टे और चींटियाँ
चुट्टे और चींटियाँ
: दिलीप कुमार पाठक
गया में एक जगह मैं एक जैनी महिला के पास शत्रु-शमन हेतु हनुमान चालीसा का १०८ पाठ करने जाता था प्रतिदिन। वहाँ जो प्रसाद चढ़ता था, उसपर चुट्टे-चींटियों की बारात सजती थी। चींटियाँ तो अपने काम में सहकारी भावना के साथ लगी रहती थीं। चुट्टे आपस में भीड़ जाते थे। भीड़ते भी थे इस कदर, जिसमें कमजोर पक्ष का अंत निश्चित होता। जब एक पक्ष पस्त पड़ने लगता तो चिट्टियों की फ़ौज आ धमकती। मानो शान्ति सेना बनकर आयी हो। सबसे पहले वो जीत रहे चुट्टे को फांसतीं। चुट्टा प्रतिपक्षी को पस्त करने में अपना होश खो बैठता और चींटियाँ उसके टाँग में लटक जातीं। लगता ऐसा मानो कमजोर पक्ष के प्रति संवेदित हो वह अपने मिशन में लगी हैं। चींटियाँ जरूर कुछ न्याय करेंगी। मगर यह क्या ? दोनों पक्ष पस्त पड़ जाते हैं और फिर शुरू होता है चींटियों का उत्सव। कुछ टाँग उखाड़ रहे हैं कुछ मुंडी उखाड़ने में लगे हैं। फिर चुट्टों को टुकड़े-टुकड़े कर ढोने में लग जाते हैं। इतने में मेरे हनुमान चालीसा का १०८ वाँ अध्याय संपन्न हो जाता है।
” पवन तनय संकट हरण, मंगल मूरति रूप। राम-लखन सीता सहित, ह्रदय बसहु सुर भूप।।
सियावर रामचन्द्र की जय ! पवनसुत हनुमान की जय !!