चीरहरण
सूरज की आँखें बंद थी
अँधेरा बढ़ रहा था आगे
मैं अकेली, बिल्कुल अकेली
पकड़े रही हिम्मत के धागे
दानवी बाँहे बढ़ रही थीं
मेरी तरफ
चाँद खामोश था तारे सहमे हुये
अँधेरा जीतने लगा
धागे टूटने लगे
मानवता सिसकने लगी
और मैं मसली जाती रही
चीखती रही
मर रही थी रुह भी
पर दानवों को चैन कहाँ
इतने पर
जला दिया तन भी
मेरे ही खून से
रंग गई मेरी ज़िन्दगी
काश ज़िंदा रहती
दिखाती जख्मी तन ही नहीं
लहूलुहान रुह भी
शब्दों को ढूंढती जो
बता सकते उसके दर्द
आँसुओं में भीगी
आँखों के डर
काश आ जाते माधव
रोक लेते चीर हरण
छेड़ देते युद्ध
और कर देते इन
दानवों की सेना का
पूरा खात्मा ….
14-12-2019
डॉ अर्चना गुप्ता