** चीड़ के प्रसून **
@@@- स्वछंद कविता ——-
गगन घन स्पर्शी
चीड़ के पेड़
दृगों में चित्रित,
कौतुहल से
देखे प्रथम बार
कर रहे थे वृष्टि
आनंदरस की
जिसे संपुट खोलकर
पय कर रहा था,
हृदय मेरा |
गिरि से घिरी
सड़क पर आगे
एक नहीं, दो नही
बिखरे थे अनगिनत
नभ पिंड माणिक्य
अद्भुत प्रसून
“वे चीड़ के प्रसून” |
गिरी वक्ष पर शोभित
रेशम सदृश लघु केश
नरम हरित घास के
जिनमे कुछ प्रसून
पखलिप्त एकाकार
मानो शरीफा हो
सुनहले तृणमूल की दुशाल ओढ़े
छिपते जरा उभरते
अठखेलियाँ करते
कह रहे मुझसे
‘हम यहाँ हैं’
चुन लिए मैंने कुछ
विचित्राकर्षण लुभावने प्रसून
“वे चीड़ के प्रसून” |
अकिंचन स्मरण देव
अवनी, गगन, सृष्टि अभेद
कण, जन, वस्तु लिए निज धर्म
विषम विषम , हैं सभी विशेष
प्रमुदित मन, बिखरा आनंद
गहरा शांत, अति रमणीक
यह ताड़क वन
अद्भुत ईश तेरा हर लेख
होते हैं काठ के भी प्रसून
“वे चीड़ के प्रसून” |
वे चीड़ के प्रसून………………………
– स्वरचित (मौलिक) @@@ लक्ष्मण बिजनौरी (लक्ष्मीकान्त)