चीखें अपने मौन की
एक सूने हस्पताल से मकान में
कुछ रूहे ढूंढ रही हैं अपनी ही लाश।
साधती हैं चीखें अपने मौन की
उड़ते पन्नों में हैं अलिखित काश।
कुछ दरिंदों के शिकार के वक्त
मारे वो हाथ-पैर कहाँ हैं?
टूटे पलंगो के नीचे भी नहीं छिपे,
खुद को कहते सवा सेर कहाँ हैं?
सहमी चादरें सफ़ेद से हो गईं लाल
नथों मे पहना दिया एक मुखी रुद्राक्ष।
… कुछ रूहे ढूंढ रही हैं अपनी ही लाश।
सिलवटें समेटे मैली खिड़कियाँ में कुछ अक्स हैं,
चोखटों की लकड़ियों में अकडे कुछ शख्स हैं।
सांस सिलेंडर की मानिंद खुलती-बंद होती है,
धड़कनें करतीं घड़ियों के साथ रक्स हैं।
रानियाँ शतरंज की बन गईं हैं पत्ता-ए-ताश।
… कुछ रूहे ढूंढ रही हैं अपनी ही लाश।
सिफर से निकल जाये गणित पूरी,
शून्य से मकां में बज जाये संगीत पूरी।
हर पूर्ण हो जाये अपूर्ण मगर
वक्त से पहले ना हो स्त्रीत्व पूरी।
दुआ ये ली है हीरे से भी ज़्यादा तराश।
… कुछ रूहे ढूंढ रही हैं अपनी ही लाश।