चिर विभूति की ओर
एक
दिवस
ना जाने
किस दृश्य को
भूला ना पाया होगा
‘वो’ न जाने कहाँ से आया होगा।
शिथिल शांत स्वरों के बीच,
निरभ्र अंबर को देखे जा रहा था
भाव कुछ ऐसे उदासीन सदृश
पर, किस दृश्य को निरेखे जा रहा था!
सच ही जीवन बहुत विकट क्लिष्ट
है
समझ गहन जिसकी परिभाषा है
क्षण बहारों में हो या पड़ी सुदूर अधरों में
हर आशा की अंततः अनेक अभिलाषा है।
ले शांत मुद्राएँ, गंभीर चिंतन में पड़ा
किस दिशा में स्थान खोज रहा, पर अड़ा
किस ओर जाएगा, किस समृद्धि की ओर
पर नहीं लौट पायेगा, छोड़ा जिस छोर
कुछ क्षण बाद
समझ आया
पूर्णता को ले, अज्ञानता को भगाया
एक दिशा में सतत् बढे जा रहा था;
चिर विभूति को पा, तम छोड़े जा रहा था ….!
© आलोक पान्डेय