चिट्ठी आई बेटे की
चिट्ठी आई बेटे की
तुम्हारे जाने के बाद
हर दिन खिड़की से बाहर तकाते
उम्मीदों की आश लगाये
मायूस होकर अब गुमशुम से
खिड़की से पर्दा नहीं हटाते
बहुत दिनों बाद
खिड़की से पर्दा हटाया
तुमने लिफ़ाफ़े में जो चिट्ठी भेजी थी,
वो खिड़की के बाहर पड़ी थी,,
बारिशों में गुलज़ार हो चुकी थी
रेखाओं से टहनिया फूट चुकी थीं,
और आधे धुले शब्दों से
फूल निकल आये थें.
उनपर बहुत सारी तितलियाँ बैठी थी,
जो तुम्हारी हंसी सी कमरे में होती थीं
बारिश से भीगे शब्दों के फूलों पे
चुलबुली तितलियाँ मंडराने लगी
गिड़गिड़ाते,मेरे आसपास,
यादों के शूल चुभाने,
भीगी हुई चिट्ठी से निकली थी
मैंने वो चिट्टी रख ली है
बिस्तर के तले;
फिर पर्दा ड़ाल देता हूँ
और कोशिश करता सोने की
पर अब तकिया मेरा भीगा है
सजन