चिकित्सा विज्ञान में ‘नोबेल पुरस्कार’ का अद्वितीय महत्व है !
आज नोबेल पुरस्कार मिलना मायने रखते हैं। पेशे से चिकित्सक डॉ.स्कन्द शुक्ल संवेदनशील कवि और उपन्यासकार भी हैं। लखनऊ में रहते हैं। इन दिनों वे शरीर से लेकर ब्रह्माण्ड तक की तमाम जटिलताओं के वैज्ञानिक कारणों को सरल हिंदी में समझाने का अभियान चला रहे हैं।
उन्होंने बारीकी से लिखा है कि वर्ष 2018 में चिकित्सा के नोबल पुरस्कार की घोषणा हो गयी, जो पुरस्कृत काम कैंसर के उपचार से सम्बन्धित है। कैंसरों के लड़ने वाले सिपाहियों को स्वयं कैंसर भरमा देते हैं। सो दो लोगों ने एक नया काम कर डाला, जिस भटकाव के कारण सिपाही अपनी ड्यूटी ढंग से नहीं निभा पाते थे , उस भटकाव की दवाओं से मरम्मत कर दी। नतीजन कैंसर को शरीर के सिपाही फिर से मारने लगे, जिसके लिए वे बने थे। इसी पर उन दोनो लोगों को पुरस्कार मिला है। इनके नाम हैं जेम्स पी एलिसन और तासुकू होंजो ।
ध्यातव्य है, हमारा शरीर एक देश है। उस देश में खरबों नागरिक हैं , जिन्हें कोशिकाएँ कहते हैं। हर कोशिका के पास अपनी नागरिक होने की पहचान है। ये पहचान कुछ ख़ास अणुओं के रूप में है , जो इन कोशिकाओं की सतह पर मौजूद रहते हैं। फिर कुछ कोशिकाएँ गुमराह हो जाती हैं। वे बेतहाशा दूसरों का हक़ मार कर बढ़ने लगती हैं। ये ही कैंसर की कोशिकाएँ हैं। नतीजन शरीर के सिपाही हरकत में आते हैं। इनका काम इन भटके हुए गुमराह नागरिकों को मारकर देश की सामान्य मुख्यधारा की जनता को बचाना है। हमारा प्रतिरक्षा-तन्त्र हमारी सेना और पुलिस दोनों है। सेना बनकर यह बाहरी दुश्मनों से लड़ता है, पुलिस बनकर यह भीतर पैदा हो गये दुश्मनों से। हर कोशिका-रूपी नागरिक का आण्विक पहचान-पत्र देखा जाता है। उसी से उसे ‘अपना’ समझा जाता है। कैंसर-कोशिकाओं की पहचानें सामान्य कोशिकाओं से भिन्न होती हैं। उनके पास पहचान-पत्र अलग होते हैं। उनकी संदिग्ध पहचानें पकड़ ली जाती हैं : फिर उन्हें समाप्त कर दिया जाता है, लेकिन कैंसर के ये शत्रु कहाँ सीधे-सादे? ये अपनी पहचानें बदल लेते हैं। छिपा लेते हैं। नये अणु उगा लेते हैं। ऐसे कि कोई इनकी असलियत न जान सके। इन्हें अपना ही समझे। और ये बढ़ते जाएँ। और एक दिन देश ही नष्ट हो जाए।
ज्ञात हो, देश के ये कैंसर-रूपी भटके हुए नागरिक अपने पास कुछ ऐसे कागज़ात रखते हैं, जिन्हें देखकर पुलिस गच्चा खा जाती है। ओहो ! तुम्हारे पास अमुक काग़ज़ है ! अरे फिर तो तुम अपने हो भाई ! तुम दुश्मन नहीं हो , दोस्त हो ! ये गुमराह करने वाले कागज़ात कई प्रकार के हैं। इनमें से दो नाम जान लीजिए : सीटीएलए 4 और पीडी 1। बस ये समझ लीजिए कि जिन कैंसर-रूपी नागरिकों के पास ये पहचान-पत्र पुलिस को मिले , पुलिस भटकी। वह जान ही न पायी कि ये धोखेबाज़ हैं। वह समझ ही न पायी कि वह ठग ली गयी है। सो उसने कैंसर के ख़िलाफ़ कार्यवाही नहीं की। नतीजन बीमारी बढ़ गयी। फिर दो वैज्ञानिकों ने इस ठगी को बन्द करने की सोची। वे जेम्स पी एलिसन और तासुको होंजो थे। उन्होंने इन ठग्गू पहचानपत्रों के खिलाफ़ कुछ ऐसे रैपर बनाये कि पुलिसवालों को ये भटका न सकें। नतीजन अब जब अराजक तत्त्वों की पुलिस वालों से मुलाक़ात हुई , तो पुलिस कन्फ्यूज़ नहीं हुई। उसने ईमानदारी से कैंसर कोशिकाओं को नष्ट कर डाला। उसने अपनी ड्यूटी सही से निभायी। जिन दो लोगों को यह पुरस्कार मिला है , उन्होंने दो अणुओं पर काम किया है। जेम्स पी.एलिसन और तासुको होंजो का शोध जिन दो अणुओं पर है , वे कैंसर-कोशिकाओं के वे प्रमाण-पत्र हैं , जिनसे वे हमारे शरीर की रक्षक लिम्फोसाइटों के जूझा करते हैं और उन्हें निष्क्रिय कर देते हैं। आप इसे ऐसे समझिए। कैंसर-कोशिकाएँ मानव-शरीर की ही वे कोशिकाएँ हैं , जिनका अपनी वृद्धि पर कोई नियन्त्रण नहीं है। ये सामान्य कोशिकाओं से आहार और स्थान के लिए प्रतियोगिता करती और उन्हें पिछाड़ देती हैं। अन्ततः यही वह कारण होता है , जिसके कारण मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। ऐसा नहीं है कि हमारा प्रतिरक्षा-तन्त्र इन कोशिकाओं से लड़ता नहीं या उन्हें नष्ट करने की कोशिश नहीं करता। लेकिन अगर पुलिसवाले किसी अपराधी को नष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं , तो अपराधी भी शातिर है और वह अपनी पहचान छिपाने की फ़िराक में है। सो कई कैंसर कोशिकाएँ इसी तरह से शरीर के इन रक्षक लिम्फोसाइटों को चकमा दिया करती हैं।
कैंसर-कोशिकाओं की सतह पर अन्य सामान्य कोशिकाओं की ही तरह अपने कुछ एंटीजन नामक प्रोटीन उपस्थित होते हैं , जिन्हें वे टी लिम्फोसाइटों ( लिम्फोसाइटों का एक प्रकार ) को प्रस्तुत करती हैं। इन प्रोटीनों को कैंसर कोशिकाएँ एमएचसी 1 नामक अणु में बाँधती हैं और टी सेल रिसेप्टर से जोड़ देती हैं , जो टी लिम्फोसाइट की सतह पर मौजूद है। इस तरह से एक एमएचसी 1 + एंटीजन + टी सेल रिसेप्टर का जोड़ बन जाता है। शरीर की हर कोशिका को अपनी पहचान टी लिम्फोसाइटों को देनी ही है, यह एक क़िस्म का नियम मान लीजिए। अब इस सम्पर्क के बाद कैंसर को कोशिकाओं पर कुछ अन्य अणु भी उग आते हैं। ये अणु सहप्रेरक ( को-स्टिम्युलेटरी ) हो सकते हैं और सहशमनक ( इन्हिबिटरी ) भी। सहप्रेरक अणु सीडी 80 और सीडी 86 हैं। कैंसर-कोशिका पर मौजूद इस अणु से जब लिम्फोसाइट जुड़ेगी , तो वह आक्रमण के लिए उत्तेजित होकर तैयार हो जाएगी। सहशमनक अणु सीटीएलए 4 और पीडी 1 हैं। इन अणुओं से लेकिन जब लिम्फोसाइट जुड़ती हैं , तो एक अलग घटना होती है। अब ये लिम्फोसाइट जो पहले कैंसर-कोशिकाओं को सम्भवतः मारने की तैयारी में थीं , निष्क्रिय हो जाती हैं। यानी एमएचसी 1 सेल रिसेप्टर के बाद हुए इस दूसरे सम्पर्क ने रक्षक लिम्फोसाइट के इरादे ऐसे बदले कि उसने दुश्मन को मारने से मना कर दिया। अब शरीर क्या करे बेचारा ! कैंसर ने तो शरीर के सैनिकों को चक़मा दे दिया, यथा- एमएचसी 1 + एंटीजन ( कैंसर कोशिका) जुड़ा लिम्फोसाइट के टी सेल रिसेप्टर से (पहला चरण), फिर अगर सीडी 80 या सीडी 86 (कैंसर कोशिका) जुड़ा लिम्फोसाइट से तो हुआ लिम्फोसाइट का उत्तेजन और वह हुआ आक्रमण के लिए तैयार और उनसे किया कैंसर-कोशिका को नष्ट। दूसरी सम्भावना भी है, जो कैंसर-कोशिका को मारने की सफलता देती है, परंतु अगर सीडी 80 और 86 की जगह लिम्फोसाइट जुड़ गया कैंसर-कोशिका की सीटीएलए 4 या पीडी 1 से तो वह निष्क्रिय हो गया। दूसरी सम्भावना जो कैंसर-कोशिका को मारने की असफलता देती है यानी कैंसर बच निकलता है। ज़ाहिर है कैंसर की कोशिकाएँ स्मार्ट हैं। वे अपनी देह पर ज़्यादा-से-ज़्यादा सीटीएलए 4 और पीडी 1 उगाएँगी , न कि सीडी 80/86, अर्थात उन्हें पहचान कराकर अपनी , मरना थोड़े ही है लिम्फोसाइटों के हाथों !
विदित है, एलिसन और होंजो की जोड़ी आती है मैदान में। वे ऐसी कुछ दवाएँ बनाते हैं , जो कैंसर-कोशिकाओं पर उग आये सीटीएलए 4 और पीडी 1 का लिम्फोसाइटों से सम्पर्क ही न होने दें। उनसे पहले ही जुड़ जाएँ। नतीजन लिम्फोसाइट गुमराह नहीं होंगी और कैंसर-कोशिकाओं को सामान्य रूप से मार सकेंगी। इसी काम के द्वारा विज्ञान कई कैंसरों से लड़ने में कामयाब होता रहा है और इसी तकनीकी को इम्यूनोथेरेपी कहा गया है।ऐसा नहीं है कि इम्यूनोथेरेपी नयी है। यह कई सालों से प्रचलन में है। इसके अन्तर्गत ढेर सारी दवाएँ उपलब्ध हैं। नोबेल पुरस्कार वैसे भी जिस काम पर मिलता है , उसे मनुष्य काफी समय से इस्तेमाल कर रहे होते हैं। केवल सैद्धान्तिक कामों पर नोबेल नहीं दिये जाते ; उनका व्यापक रूप में मानव-हितकारी होना बहुत ज़रूरी है।अगर आप इस लेख को पढ़कर नहीं समझ पाये , तो कोई आश्चर्य नहीं। अच्छे-अच्छे डॉक्टरों के ये बातें नहीं पता होती हैं। यहाँ तक कि हम-जैसे छात्र इन बातों को पहली बार जब पढ़ते थे , तो दिमाग टन्नाने लगता था।
सत्यश:, चिकित्सा विज्ञान की यह कहानी रामवाण से कम नहीं !