चिंता
अब किताबों से दोस्ती, मुझे अच्छी नहीं लगती //
सोशल मीडिया मे मस्ती, मुझे अच्छी नहीं लगती //
एक अजीब-सा भय, मुझे सताने लगा हैँ //
मानो, चिंताओं का समा, मुझे खाने लगा हैँ //
परकटा, एक नादान-सा, परिंदा हो गया हु //
समय की नित नवीन परीक्षा से, शर्मिंदा हो गया हु //
अकेलापन सा वक़्त, मुझे यू झिंझोड़ रहा हैँ //
मानो अंदर ही अंदर, मुझे मरोड़ रहा हैँ //
अब जीने की आशा का, ह्रास हो रहा हैँ //
मानो मृत्यु की शैय्या का, शिलान्यास हो रहा हैँ //
जीवन मे मात्र दो कदम चलके, लड़खड़ा कर गिर गया हु //
हर उम्मीद को मरता देख, भय से कम्पित हो गया हु //
~: कविराज श्रेयस सारीवान