चिंगारी
हर मजलूम के घर तक,पहुँचा दो चिंगारी को |
फेंक उखाड़ो सत्ता की, गद्दी से अत्याचारी को ||
बस ! दीवारों पै लिखे स्लोगन,पोस्टरों में छापा है|
वरना बेटी की इज्जत को, डंडों से भी नापा है ||
हर दिन ऐक ‘डेल्टा’ मरती,इज्जत कितनों की जाती |
जेऐनयू से बीऐचयू तक, फटे वस्त्र देह शर्माती ||
प्यार करे तो लव जिहाद की, संगीनों से कटती है |
शांम ढले ‘हिरनी’ कोई फिर से कुत्तों में बँटती है ||
ऐक पशु से बद्तर माना, है जिसने यहाँ नारी को |
फेंक उखाडों सत्ता की, गद्दी से अत्याचारी को ||
ऐक अढानी औ’ माल्या के, हुये करोड़ो मांफ यहाँ |
पर किसान को दे पाती है, सत्ता कब इंसाफ यहाँ ||
खरपतवार मरे उससे, पहले किसान मर जाता है |
चंद हजारों के सदमे में घर अनाथ कर जाता है ||
यौवन बसन्त आने से पहले,मुरझा जाती तरूणाई |
फसलों के पकने से पहले, लुट जाती है अंगड़ाई ||
होते हुये बर्बाद किसान की,समझा न लाचारी को |
फेंक उखाड़ो सत्ता की,गद्दी से अत्याचारी को ||
पौंछा तक लगवा न पाये, अस्पताल के वार्डों में |
वैसे स्वच्छ दिखाई देता भारत फोटो-कार्डों में ||
सात माह में नम्बर आता, ऑपरेशन की होड़ रही |
रोज विलखते बच्चे मरते, प्रसूता दम तोड़ रही ||
अब तो आँखें खोल समझलो, बहुरुपये का मायाजाल |
फलस्तीन में खोलेंगे, सुविधाओं वाला अस्पताल ||
बस जुमलों के सिवा हकीकत,दिखे न कछु मदारी को|
फेंक उखाड़ो सत्ता की, गद्दी सेे अत्याचारी को ||
काट रहे हैं खनन के पट्टे, सेनाओं के आँगन में |
न्यायपालिका दिखा रही खुद, दाग लगे जो दामन में ||
हत्या,दंगे,बलात्कार,उत्पीड़न पर भी मौन है |
बैठा है जो खाल शेर की,पहन भेड़िया कौंन है ?
मजदूर-किसान औ’ मूलनिवाशी,नौकर औ’ अफसरशाही |
मिलके ‘वोट’ करो ऐसा कि, काँप उठे हिटलरशाही ||
बदल रहा हर बार मुखौटा,पहचानों अय्यारी को |
फेंक उखाड़ो सत्ता की, गद्दी से अत्याचारी को ||
✍ कवि लोकेन्द्र जहर