#चाह_वैभव_लिए_नित्य_चलता_रहा_रोष_बढ़ता_गया_और_मैं_ना_रहा।।
#चाह_वैभव_लिए_नित्य_चलता_रहा_रोष_बढ़ता_गया_और_मैं_ना_रहा।।
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चाह वैभव लिए नित्य चलता रहा, रोष बढ़ता गया और मैं ना रहा।।
याम हो या निशा एक सम मान कर,
ऐषणा ने जगाया जगे ही रहे।
मान मिथ्या सहोदर यहीं बस सगा,
साँच से रार ठाने लगे ही रहे।
कर्म के व्याकरण को न समझा कभी, दोष बढ़ता गया और मैं ना रहा।
चाह वैभव लिए नित्य चलता रहा, रोष बढ़ता गया और मैं ना रहा।।
क्या सही क्या गलत थाह कुछ भी नहीं,
लालसा मात्र इतनी शिखर चूम लूँ।
दौड़कर अभ्युदय को लगा लूँ गले,
नाच लूंँ या मगन मौन ही झूम लूँ।
श्रृंग को चूमने की ललक पोशकर, शोष बढ़ता गया और मैं ना रहा।
चाह वैभव लिए नित्य चलता रहा, रोष बढ़ता गया और मैं ना रहा।।
धर्म के आचरण से रहा दूर मैं,
पूर्ण जीवन हुआ पूर्णता न मिली।
चार कंधे मुझे तो मिले अन्त में,
प्रीति मिश्रित मगर बन्धुता न मिली।
सम्पदा ढूँढते – ढूँढते खो गया, कोष बढ़ता गया और मैं ना रहा।
चाह वैभव लिए नित्य चलता रहा, रोष बढ़ता गया और मैं ना रहा।।
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण
बिहार