चाह
वंदना
कविता बन
अम्बर-सी
फैल जाऊं
शून्य सभी
स्वयं में भर
बादल-सी लहराऊं,
जितने भी संतप्त ह्रदय
सन्ताप हैं धरा के
बहा दूं बरस बरस
विस्मृति के सिंधु में।
समस्याओं के नाग
नथ दूं
बिष डंक
गले सडे़ रिवाजों के
मथ दूं,
नहीं चाहिए समृद्धि
नहीं चाहिए
स्वर्ग या मुक्ति,
पर इतना अवश्य हो
कि मेरे देश का
हर आदमी
भरपेट खाये
मैल उसके पास
फटकने न पाये
इतना हो आंचल
मां -बहिना की लाज
ढक जाये ।
हर सिर पर
अपनी हो छत
रोग न पडे सहने
पहनाये सब बच्चों को
शिक्षा के गहने
सुविधा न हो
केवल कुछ की
किरणों-सी हो
सब में बिखरी
रहे न अधूरा
किसी का भी सपना
सब को लगे
यह देश अपना
भगिनी-सा, भाई-सा,
जनक-सा, जाई-सा
प्रभु -सा, प्रभुताई-सा ।
“साक्षी”काव्य संग्रह (1991) से