चाह
मैंने कभी कुछ चाहा ही नहीं
ऐसा मुझे लगता रहा
और मन ना जाने
क्यूँ रोज़ थकता रहा
आँख खुली है या बंद
ये कौन बतला गया
ख़ुद को था आईना समझा
ख़ुद को ही ठगता रहा
चलो एक राह मिली
तुम तक पहुँचने की..
अब समझा,
हर मील का पत्थर
क्यूँ गिले शिकवे करता रहा